Thursday, November 1, 2012

न्यूज चैनलों का अफसाना


अभिषेक उपाध्याय वरिष्ठ टीवी पत्रकार प्रभात शुंगलू ने कुछ ऐसा कर दिया है, जिस पर यकीन करना जितना सुखद है, उतना ही मुश्किल भी। उन्होंने एक ऐसे दौर पर कलम चलाने का दुस्साहस किया है, जब टीवी पत्रकारिता पर आरोप गहराते जा रहे हैं। फिर भी दूसरे की जवाबदेही तय करने और उनमें कमियां ढूंढ़ने में जुटे इस आत्ममुग्ध समुदाय को अपनी गिरेबान में झांकने से एक विचित्र किस्म का संकोच और एलर्जी हो रही है। प्रभात ने न्यूजरूम लाइव के जरिये टीवी न्यूज चैनलों की अंधेरी, अवास्तविक और रहस्यमय दुनिया को अपने उपन्यास का विषय बनाया है। न्यूजरूम लाइव पढ़ते हुए ऐसा लगता है, मानो हम यशपाल की कालजयी कहानी पर्दा के चौधरी पीरबक्श से रूबरू हो रहे हों, जिसने टाट के एक मैले-कुचैले और फटे-पुराने पर्दे के पीछे अपने पूरे कुनबे की आबरू छुपा रखी थी। मगर पीरबक्श की लाख कोशिशों के बावजूद एक दिन यह पर्दा गिर ही जाता है। प्रभात का उपन्यास न्यूजरूम लाइव यों तो डीएनएन नाम के एक काल्पनिक न्यूज चैनल के न्यूजरूम से शरू होता है, मगर कुछ ही देर में तमाम काल्पनिक किरदारों से गुजरता हुआ न सिर्फ हमारी अपनी वास्तविक दुनिया में प्रवेश कर जाता है, बल्कि हम इसे लाइन-दर-लाइन जीने पर मजबूर हो जाते हैं। शायद यही प्रभात की इस कोशिश की बेहद बारीक, सधी हुई और अद्भुत सफलता है, जो न्यूजरूम लाइव की प्रवाहमयी भाषा के साथ मिलकर कुछ अथरें में मीडिया के प्रस्थान बिंदु सी प्रतीत होती है। प्रभात टीवी की दुनिया के उस दौर के पत्रकार हैं, जब 24 घंटे के न्यूज चैनलों ने आंख खोलने के लिए आंख मलने की प्रक्रिया शुरू की थी। देश के पहले न्यूज चैनल बीआईटीवी से शुरू हुए प्रभात के टीवी पत्रकार के सफर में कई बड़े मीडिया हाउसे महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में रहे। इस दौरान प्रभात ने जो देखा, सुना, भोगा, जिया और जिसके साक्षी रहे, उन्हें पूरी बेबाकी और ईमानदारी के साथ परत दर परत कहानी में पिरोकर रख दिया है। मशहूर कलमकार दुष्यंत कुमार की पक्तियां हैं - गजब है सच को सच नहीं कहते, कुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं। दुष्यंत 1933 में जन्मे थे और महज 42 साल की उम्र में 1975 में दुनिया से रुख्सत हो गए। उस वक्त टीवी न्यूज की दुनिया महज दूरदर्शन तक सीमित थी। मगर ऐसा लगता है कि शायद दुष्यंत की कलम को ऐसे तमाम झूठे सचों का बाखूबी अंदाजा था। प्रभात भी इलाहाबाद से हैं और दुष्यंत से खासे प्रभावित भी दिखते हैं। यह अनायास ही नहीं है कि टीवी न्यूज की विसंगतियों से लड़ता हुआ प्रभात के उपन्यास न्यूजरूम लाइव का किरदार पुष्कर बात-बात पर दुष्यंत की ही पंक्तियों का हवाला देता है। न्यूजरूम में जड़ें जमा चुके विचारों के भीषण अलोकतांत्रीकरण से लड़ता पुष्कर एक मौके पर अहंकारी सत्ता और चाटुकार दरबारियों के आघातों से बुरी तरह विचलित पत्रकार सबीर को दिलासा देते हुए कवि दुष्यंत का ही सहारा लेता है - ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा/ मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा। आशावादिता से भरी दुष्यंत की ये लाइनें असल में इस पूरे उपन्यास का सबसे मजबूत पहलू पेश करती हैं। तमाम विसंगतियों, कुचक्रों और झूठ के गिरते-उठते लबादों से गुजरता यह उपन्यास अपने हर पड़ाव में उम्मीद की चिंगारी जलाए रखता है, जो आखिर में लपट बनकर उठती दिखाई देती है। न्यूजरूम के कुचक्रों से दुर्घटनाग्रस्त पुष्कर की जीवन-संगिनी मंदाकिनी की अपने बलबूते पर लड़ी लड़ाई ऐसी ही एक उठती हुई लपट की जोरदार प्रतिध्वनि है। उपन्यास में खोजी पत्रकार सत्येंद्र पर चैनल के कर्ता-धर्ताओं की कॉरपोरेट व‌र्ल्ड के साथ सांठगांठ का प्रहार और उसकी पुत्री रितिका का प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस साजिश को बेनकाब करना उम्मीद की इस धधकती हुई लौ में घी का काम करता है। न्यूजरूम लाइव की एक बड़ी खासियत यह है कि उपन्यास होकर भी यह कहीं भी यथार्थ की जमीन को छोड़ता नजर नहीं आता। यही वजह है कि न्यूजरूम के सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोग अपनी कारगुजारियों के पर्दाफाश हो जाने के बावजूद हाशिये पर खड़े नजर नहीं आते हैं, बल्कि वे उसी सिस्टम में अच्छे पैसे और पदों के साथ पनाह पा जाते हैं, जिसकी हिमायत वे पत्रकारिता की कीमत पर करते आए थे। न्यूजरूम लाइव जितना पत्रकारिता और कॉरपोरेट जगत के घालमेल पर चोट करता है, उतना ही निहित स्वार्र्थो के चलते राजनीतिक गलियारों में पनाह लेते पत्रकारिता के कथित नुमाइंदों को भी बेनकाब करता है। न्यूजरूम लाइव टीवी के भीतर की संस्कृति को एक रोचक अफसानानिगार शैली में बेहद ही बेबाक और खांटी तरीके से बयां करता है। उपन्यास अंग्रेजी में है, लेकिन इसकी रोचक शैली, प्रवाह और एक के बाद दूसरी दिलचस्प घटनाओं की गुदगुदाती दुनिया इसे भाषा की सीमाओं से बहुत आगे ले जाती है। इसमें किरदारों के होठों पर तैरती वे भद्दी और असभ्य गालियां भी हैं, जो कंुठाओं को धकेलकर न्यूजरूम की दीवारों पर सिर मारती हैं। साथ ही सांसों की धौंकनी पर चस्पां होती वे तितलियां भी हैं, जो गाहे-बगाहे हवाओं का रुख चीरकर परों के जरिये आजाद होने की कोशिश करती हैं। संक्षेप में कहें तो न्यूजरूम लाइव के इंद्रधनुष में कई रंग हैं, कई राग हैं। कुछ दिखते हैं, तो कुछ ढूंढ़ने पड़ते हैं, मगर इन सबके बीच ईमानदारी की एक गाढ़ी धानी सी परत है, जो अपनी रंगत और चमक में सभी रंगों, सभी रागों पर भारी पड़ती है।

Dainik Jagran National Edition 28-10-2012 Media Page -9