Wednesday, January 19, 2011

डर के शिल्प

टीवी के कई चैनलों पर इन दिनों तरहत रह के नजर रक्षा कवच यंत्र’, ‘श्री यंत्र’, ‘लक्ष्मी यंत्रऔर बाधा मुक्ति यंत्रआदि बिकते रहते हैं। देखते-देखते रक्षा कवचों के बीच भी टफ कंपटीशनपैदा हो चला है। डर और आपदा निवारण करने का दावा करने वाले नए कवच ब्रांड और विज्ञापनों का उभार समकालीन आर्थिक संकट से जुड़ा है। संकट के दिनों में आपदा निवारक तत्वों का बाजार बढ़ता है। समस्या भौतिक सच है, निदान हवाई है। अंधविास फैलाने वाले कार्यक्रम प्रसारित न करने का संकल्प लेने वाला मीडिया इन दिनों ऐसे विज्ञापन खूब देता है
बाजार का डर है, डर का बाजार है। सत्ता का डर है, डर की सत्ता है। डर की सांस्कृतिक निर्मितियां अनंत हैं! डर का मनोविज्ञान फैला है। वह मौजूदा आर्थिक संकट का सांस्कृतिक विस्तार है। वह बेरोजगारी का तनाव है, वह महंगाई का क्लेश है। वह आसन्न अभाव और असुरक्षा का स्ट्रेसहै। आदमी के चित्त में धीरे-धीरे घर करताजन-अवसाद’; मासडिप््रोसन है। यह आज के आम आदमी का हर ओर से बेसहारा और डरा हुआ चित्त है। जो असुरक्षित है इसलिए बदहवास है और अशांत और हिंसक है। इसका संबंध समकालीन आर्थिक तनाव से है जिसके निवारण के उपाय दूर-दूर नजर नहीं आते। उनकी जगह नजर निवारक यंत्र ज्यादा नजर आते हैं। इस डर के वातावरण के कई बयान हैं। उनका मीडिया से सीधा संबंध है। वे मीडिया की निर्मितियां हैं। लोग इन डरों को और इन डरों से ज्यादा उनके निवारण के उपादानों के बाजार में रमते हैं। यह डर का नया बड़ा बाजार है जो जगह-जगह बन रहा है। यह डर की नई मारकेटिंग है। यह डर इन दिनों कीजनवार्ताओंका मुख्य विषय है। डर हमारे उपभोग का एक बड़ा आइटम बन चला है। हर विज्ञापन डर के शिल्प को पुष्ट करता चलता है। पूरे दिन में आपके लिए क्या अशुभ है? क्या शुभ है? इसकी मारकेटिंग भी है। आज का दिन कैसा गुजरेगा और अगर कोई परेशानी है तो उसका उपाय क्या है? ये सब डर के नए शिल्प हैं। इन दिनों इस शिल्प की भाषा कुछ पर्सनल और प्रामाणिक-सी बनाई जा रही है। इस अखिल सृष्टि में एक आम आदमी के डरों की निर्मितियां क्या गजब ढा रही हैं यह देखते ही बनता है। जरा देखें- क्या वाकई यह धरती दो हजार बारह में खत्म हो जाएगी? क्या अमेरिका भी खत्म हो जाएगा? क्या हिमालय भी खत्म हो जाएगा? किस तरह खत्म होगा?’
यह एक जनवार्ताकी चिंता थी। एक बस यात्रा में एक उक्त भविष्य-जिज्ञासु से भेंट हुई। उनकी नौकरी छूट गई थी। नई की तलाश में निकले थे। यों ठीक-ठाक थे, हाथ की चार उंगलियों में पांच अगूंठियां थीं। उनमें नग जड़े थे, हाथ में एक मोटा कलावा बंधा था। उनकी चिंता का विषय था कि क्या दो हजार बारह में सचमुच धरती खत्म हो जाएगी? उन्होंने अपने आप बता दिया कि एक चैनल ने ऐसी भविष्यवाणी की है। वे पल्रयके बारे में अध्कि ज्ञानी होकर उसका मुकाबला करना चाहते थे!
फिर किसी ने पल्रय से पहले समकालीन महंगाई को पल्रय की संज्ञा दी और बातचीत महंगाई की ओर मुड़ गई। फिर आदमी की कीमत कम हो गई जान की कीमत कुछ नहंी हैंआदि से होते देश की सरकार पर आ गई। पहले सब नेताओं को जिम्मेदार बताया गया। टहलती हुई यह चल-जनवार्ताकुछ देर पाकिस्तान-चीन के खतरे को छूती हुई प्राचीन भारत के सतयुग का भ्रमण भी कर आई और फिर हर आदमी मानने लगा कि आज भी भले लोग हैं। देवता आज भी रहते हैं, सब कुछ है- तंत्र-मंत्र हैं, उनकी वही ताकत है। शर्त यह है कि आपको असली गुरु मिलें, असली की किल्लत है। फिर यह जनवार्ता अचानक एक असली बाबा के जिक्र और महिमामंडन के साथ तांत्रिकों की ओर मुड़ गई। तांत्रिकों के बीच से होकर यह बातचीत टीवी पर आते तंत्र-मंत्रों के यंत्रोंकी ओर मुड़ गई। इस तरह डर आधे घ्ांटे में चारो धाम की यात्रा कर आया। फिर अपने स्टाप पर जन-वार्ताकार उतर गए!
इस वार्ता में जब बात टीवी पर आकर टिक गई तब एक अन्य व्यक्ति ने बताया कि उसने ये नजर रक्षाकवच पहना हुआ है, इसे टीवी पर देखा था। उसने स्वेटर के अंदर हाथ डालकर यंत्र दिखाया, वह काली धातु का बना था। वह एक दुकानदार था पिछले दिनों से उसका बिजनेस चौपट है। शेयर बाजार में पैसा डूब गया है। उधारी पर गये माल की वसूली नहीं हो रही है लेकिन जबसे नजर रक्षा कवच पहना है बेहतर फील करता हूं। अब ज्यादा डर नहीं लगता है, इसकी ताकत बताई है। साल भर मे कमाल दिखाएगा! वह आदमी नहीं था। रक्षा कवचका चलता-फिरता विज्ञापन था! विज्ञापन टीवी से बाहर निकल पड़ा था। टीवी के कई चैनलों पर इन दिनों तरह-तरह के नजर रक्षा कवच यंत्र’, ‘श्री यंत्र’, ‘लक्ष्मी यंत्रऔरबाधा मुक्ति यंत्र
आदि बिकते रहते हैं। देखते-देखते रक्षा कवचों के बीच भी टफ कंपटीशनपैदा हो चला है। नए ब्रांड बाधा मुक्ति यंत्रके विज्ञापन में एक नई दुल्हन कहती है-मेरे बच्चा नहीं ठहरता था, मिस केरिज हो जाता था, मैं मां न बन पाई तो क्या होगा? मैं परेशान रहती थी फिर मैं अपनी मां के घर गई और वहां उसने बाध मुक्ति यंत्र की बात बताई। उसके बाद मेरी गोद हरी हुई।आगे, एक काले चोगे वाला बाबा गरज-तरज कर बताता है- आपके दुश्मन आपके ऊपर काला जादू कर देते हैं, उपरी हवा लग जाती है, टोना-टोटका करा देते हैं। हाथ-पांव-दिमाग बांध दिए जाते हैं। आदमी लगातार सोचता रहता है, कलेजे में ऐंठन होती है। शरीर में नीले दाग पड़ जाते हैं, आपके घर में घुाटन रहती है, परिवार से दूर भागने की इच्छा होती है। किसी आसमानी शक्ति के वश में होते हैं- इस सबसे बचाने के लिए हम लाए हैं इस अभिमंत्रित यंत्र को!इस तरह के रक्षा कवच आदमी के भौतिक डरों को जादू-टोने के जरिए उड़ाने का अंध्विास बेचते हैं। उक्त जनवार्ता में मौजूद असुरक्षा के असली कारण बेरोजगारी, मंदी और महंगाई इत्यादि हैं। उनमें उभरे डरों की निर्मितियों के असल उपाय अर्थ- राजनीतिक ही हैं। महंगाई, बेरोजगारी और मंदी के उपाय अर्थ-राजनीतिक ही हैं। डर और आपदा निवारण करने का दावा करने वाले नए कवच ब्रांड और विज्ञापनों का उभार समकालीन आर्थिक संकट से जुड़ा है। संकट के दिनों में आपदा निवारक तत्वों का बाजार बढ़ता है। समस्या भौतिक सच है, निदान हवाई है। अंधविास फैलाने वाले कार्यक्रम प्रसारित न करने का संकल्प लेने वाला मीडिया इन दिनों ऐसे विज्ञापन खूब देता है। उनका असर होता है। क्या ऐसे चैनल सेचेंगे कि वे ऐसे कवचों का विज्ञापन देकर डर का निवारण नहीं कर रहे उल्टे डरावने अंधविस को फैला रहे हैं!
मीडिया की अपनी भाषा इन दिनों डर के शिल्प की भाषा है।

फ्लैप का फॉर्मूला

फ्लैप लेखन के अपने फॉर्मूले होते हैं। अगर कोई इन फॉर्मूलों को साध ले, तो शानदार फ्लैप लेखक हो सकता है। मगर सवाल यही है कि आखिर वो फॉर्मूले क्या होते हैं?

हे फ्लैप लेखक बनने की आकांक्षा पालनेवालों! आपकी सेवा में ये फॉर्मूले पेश हैं। वैसे तो अमूमन फ्लैप-लेखक वरिष्ठ और चुके हुए लेखक बनते हैं। परंतु युवा या प्रौढ़ वय के लेखकों को भी ये फॉर्मूले सीखने में कोई हर्ज नहीं है। एक तो आज जो प्रौढ़ उम्र के लेखक हैं, वे जल्दी ही वरिष्ठ लेखक होने वाले हैं। दूसरे जो आज के युवा लेखक हैं वे भी कल नहीं तो परसों के वरिष्ठ लेखक होने वाले हैं। अगर ऐसे लेखक इस फॉर्मूले को जल्दी सीख लें, तो भविष्य में काम आएंगे। पहले से सीखा हुआ हुनर गाढ़े वक्त में काम आता है। ये भी हो सकता है कि जिस तेजी से जमाना बदल रहा है उसकी वजह से ये भी हो जाए कि फ्लैप लेखन का काम युवा और प्रौढ़वय के लेखकों को भी मिलने लगे। आखिर किताबें पहले से ज्यादा छप रही हैं। ऐसे में वरिष्ठ लेखक भी अपने कंधे पर कितना बोझ उठा पाएंगे।
हां, तो फॉर्मूला नंबर वन यानी एक। वो यह है कि आप जिसकी किताब पर लिख रहे हैं, उसे अपनी विधा का विशिष्ट व्यक्ति बताइए। शुरुआत कुछ-कुछ इस तरह होनी चाहिए-श्री क की कविताओं में एक अलग तरह का भावबोध दिखाई पड़ता है। ये कविताएं जटिलता को बड़ी सहजता के प्रेषित करती हैं, क्योंकि कवि का भाषा पर विलक्षण अधिकार है। इन कविताओं में जीवन का मर्म शिद्दत से उद्घाटित हुआ है। इन कविताओं का शिल्प निरायास होने का बोध कराता है, लेकिन कविता के गुनग्राही पाठक जानते हैं कि निरायास सा दीखने वाला शिल्प बड़े श्रम के बाद ही सधता है।
आप ये जान लीजिए कि हर कवि चाहता है, उसकी कविताओं के बारे में ये कहा जाए कि उसमें जीवन का मर्म है। उसे अपना विलक्षण कवि कहलाना भी अच्छा लगता है। कविता की किताब का फ्लैप-लेखन साधने के लिए कुछ शब्दों को बार-बार किस तरह संवारा जाए, ये समझना जरूरी है। जैसे जटिलता और सरलता से जुड़े आप कितनी तरह के वाक्य बना सकते हैं इस पर आपकी सफलता की गारंटी निर्भर करती है। हर कवि जटिल और सरल, दोनों होना चाहता है।
कहानियों या कथा साहित्य की पुस्तक के फ्लैप-लेखन का फॉर्मूला थोड़ा अलग है। कविता में जटिलता और सरलता में तालमेल बिठाना पढ़ता है, तो कहानी या उपन्यास के बारे में लिखते समय सामाजिक यथार्थ और और विसंगति में। हर कथाकार चाहता है कि उसकी रचनाओं में लोग सामाजिक यथार्थ को भी देखें और जीवन की विसंगतियों को भी। कथाकार की दूसरी इच्छा प्रेमचंद की परंपरा का होते हुए भी नई जमीन तोड़नेवाला कहलाने की होती है। इसलिए इसका भी खयाल रखें। कुछ कथाकार-कवि भी होते हैं। ऐसे में उसकी कविता पर लिखते समय उसमें कथातत्व और कहानी पर लिखते समय काव्यात्मकता की बात करना न भूलें। वरना वो अगली बार से आपसे फ्लैप नहीं लिखवाएगा। वो सकता है कि लिखवाया हुआ प्लैप ही न छापे और किसी दूसरे से फ्लैप लिखने को कहे। फ्लैप सिर्फ प्रशंसा के लिए लिखे जाते हैं।
अगर किताब साहित्य की आलोचना की हो, तो फ्लैप में इस तरह का वाक्य लिखें- श्री ख की पुस्तक में परंपरा की गहरी जानकारी और समझ है, लेकिन वे आधुनिकता को भी नहीं भूलते। वे आधुनिकता को परंपरा की कसौटी पर जांचते हैं और परंपरा को आधुनिकता के मानदंडों पर परखते हैं। लेखक ने पूर्व और पश्चिम- दोनों की बौद्धिक विरासत को आत्मसात किया है और एक नई राह का संधान किया हैँ।हिंदी का हर आलोचक अपने को आधुनिक भी कहलवाना चाहता है और परंपरा का जानकार भी- भले ही वो दोनों में से कुछ भी न जाने। अगर आप इन मोटी-मोटी बातों को ध्यान में रखें, तो सफल प्लैप लेखक बन सकते हैं। असल बात ये है कि प्लैप-लेखन भाषा की जादूगरी है। लेकिन कहीं भी अतिशयोक्तियों से काम मत लीजिए। कवि, कथाकार या आलोचक को विशिष्ट बताइए, लेकिन इस अंदाज से कि तारीफ जरूरत से कम हो रही है। ये भी याद रखिए कि हर समय के साथ कुछ नए-नए जुमले चलन में आते हैं। जैसे आजकल बाजारवाद काफी चलन में है। आप किसी कहानीकार, कवि या आलोचक के बारे में डंके की चोट पर कह सकते हैं कि उसकी रचना बाजारवाद के खिलाफ है। फ्लैप में इस तरह की बात सबको अच्छी लगेगी। पर ये हो सकता है दस साल बाद ये जुमला काम में न आए। हर वक्त के अपने चालू जुमले होते हैं।

Sunday, January 9, 2011

आस्था समूह ला रहा है कई नए चैनल

 आस्था चैनलअब धर्म और आध्यात्म ही नहीं साहित्य संगीत, संस्कृति, आदि विधाओं की ओर भी अपना ध्यान केन्द्रित कर रहा हैं। जल्द ही, ‘वैदिक ब्रॉडकास्टिंग नेटवर्क की सहयोगी संस्था पातंजलि योगपीठएक साथ, कई चैनल लाने की तैयारी कर रहा है। चर्चा, इस बात की भी है कि वैदिक ब्रॉडकास्टिंग लिमिटेडनाम की कंपनी ने आस्थानाम के आध्यात्मिक चैनल चलाने वाली कंपनी आस्था ब्रॉडकास्टिंगनेटवर्क को खरीद लिया है।  

समाचार4मीडिया.कॉम से बात करते हुए, ‘आस्था चैनलके सेल्स अधिकारी अरविन्द जोशी ने इस खबर की पुष्टि करते हुए बताया, “बाबा रामदेव के आशीर्वाद से संस्थान कई और चैनल लेकर दर्शकों के बीच आयेगा। उनका कहना था कि हाल में ही आस्था भजननाम का चैनल हमने रामनवमी के दिन लॉन्च किया जिसे दर्शकों के बीच काफी सराहा जा रहा हैं। हमारा पहला मकसद, भारतीय संस्कृति और दर्शन का प्रचार-प्रसार होगा।

वैदिक ब्रॉडकास्टिंगनेटवर्क बाबा रामदेव के पातंजलि योगपीठ की सहयोगी संस्था है और इस कंपनी में बाबा के तीन नजदीकी सहयोगी आचार्य बालकृष्ण, स्वामी मुक्तानंद और अजय आर्य निदेशक हैं।

नो वन किल्ड न्यूज!

दिल्ली में इन दिनों जितना ठंड और कुहरा है उससे कहीं ज्यादा सिनीसिज्म का उत्ताप है। एक हताशा, एक निराशा है। इस हताशा और निराशा के बीच धीरे-धीरे लोग आदी हो चले हैं। भ्रष्टाचार हमारे मीडिया की अब उसी तरह की नित्य फीचर कथा है जिस तरह वह सुबह-सुबह ज्योतिष सितारे और टेरोकार्ड के फीचर देता है। इस तरह भ्रष्टाचार अब मीडिया का वैसा ही नित्य आइटम है जिस तरह फिल्म हैं, स्वास्थ्य है। यह भ्रष्टाचार का उपभोग है
मीडिया की खबरनवीसी को देख लगता है कि हम एक बेहद चिढ़चिढ़े, बदहवास, गुर्राते और कटखने समय में रह रहे हैं। एंकरों के पास सत्ता तंत्र के बरक्स एक्सपेजर की खबरें रहती हैं। उनके पीछे पूरा सत्तात्मक विमर्श उसके संजाल सक्रिय रहते हैं और खबर के सदुपयोग और दुरुपयोग सब जानते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं होता, कोई प्रमुख समय ऐसा नहीं होता जब कोई ब्रेकिंग न्यूज किसी घोटाले की खबर न देती हो। एंकरिग करता या रिपोर्ट देता पत्रकार अपने हाथ में एक कागज लेकर दिखाता कहता है- ये रिपोर्ट, ये कागज, ये खुफिया दस्तावेज हमारे पास हैं। कैसे दिन आ गए हैं कि उसकी खबर पर उसे ही विास नहीं होता, उसे विसनीय बनाना पड़ रहा है। हर घोटाले की खबर, हर भ्रष्टाचार की खबर पहले सीन से आखिरी सीन तक, पहली बाइट से आखिरी बाइट तक इन दिनों सरकार और तंत्र की ओर इशारा करती है। इस तरह की खबर निर्माण का अनिवार्य हिस्सा है। टीवी खबर चैनलों पर पक्षिवपक्ष की एक मिनी-संसदीय बहस, झड़प और तूतू-मैंमैं, जिसमें हर पक्ष अपने को निष्कलंक बताता है और दूसरे को पापी। इस तरह आप हर दिन पापी टू पापीके दर्शन करते रहते हैं। पत्रकार कागज दिखाता अकड़ता है कि सच उसके पास है। पक्षिवपक्ष एक-दूसरे को पापी बताकर जताते हैं कि जो सच बनाया जा रहा है वह पाप की ही पैदाइश है। इसके आगे हम तर्क-कुतर्क का मजा लेने लगते हैं और पटाबनैती के खेल का मजा लेने लगते हैं। इस पत्रकारिता का एक फलागम यह हुआ है कि समाज में सिनीसिज्म बरपा हुआ है। कोई विकल्प नहीं है, कोई रास्ता नहीं है, ऐसा अहसास बढ़ा है। पिछले दिनों जब आदर्श हाउसिंग के घोटाले की बात सामने आई तो टीवी चर्चा हुई। चर्चा में एक पत्रकार ने बताया कि आप जांच की बात करते हैं, जांच करने वाले कौन दूध के धुले हैं, आप अदालत की बात करते हैं लेकिन उस पर भी आरोप हैं और सेना की बात करते हैं, उस पर भी आरोप हैं और आप मीडिया की बात करते हैं तो उस पर भी आरोप हैं। सभी तो लिप्त हैं। आप न्याय पाने कहां जा सकते हैं? यह उस सनकपने की हद रही जिसे मीडिया ने और उसके पहेली सड़े-गले तंत्र ने बनाया है। दिल्ली में इन दिनों जितना ठंड और कुहरा है उससे कहीं ज्यादा सिनीसिज्म का उत्ताप है। एक हताशा, एक निराशा है। इस हताशा और निराशा के बीच धीरे-धीरे लोग आदी हो चले हैं। भ्रष्टाचार हमारे मीडिया की अब उसी तरह की नित्य फीचर कथा है जिस तरह वह सुबह-सुबह ज्योतिष सितारे और टेरोकार्ड के फीचर देता है। इस तरह भ्रष्टाचार अब मीडिया का वैसा ही नित्य आइटम है जिस तरह फिल्म हैं, स्वास्थ्य है। यह भ्रष्टाचार का उपभोग है। भ्रष्टाचार का उपभोग भ्रष्टाचार की खबरों की प्रस्तुतियों से जुड़ा है। इसकी इतनी अति की गई है कि देखते-देखते भ्रष्टाचार एक मनमोहक मूल्य बन चला है। यह भ्रष्टाचार का संस्कृतीकरण है, कल्चराइजेशन है। उसे पापूलर आइटम बना दिया गया है। मीडिया यही कर सकता है। जिस तरह से उसने ऐसा किया है उसे देख ऐसा लगता है कि वह अपराध का कल्चराइजेशन कर रहा है। अब तक वह सेक्स का कल्चराइजेशन कर चुका है, हिंसा का भी कल्चराइजेशन कर चुका है। जो कथित सच बनता दिखता है वह कल्र्चड यानी प्रसंस्कृत सच होता है लेकिन जिसे दिया इस तरह से जाता है मानो मीडिया सत्य का अधिष्ठान हो। पिछले दिनों यह अहसास बढ़ा है। उसके नित्य खबर व्यवहार को देख सवाल उठता है कि क्या मीडिया की खबर सचहै। यह किसी एक सच का कल्चरल बिजनेस है। शायद वह बिजनेस है जिसमें अब सरकार की रेटिंग, कॉरपोरेट स्टॉक की रेटिंग और मीडिया की अपनी रेटिंग मिलजुलकर रहती है। मीडिया की मासूमियत और उसके सच की पवित्रता का युग चला गया है। वह इतनी जल्दी विदा होगा, यह मीडिया के विद्यार्थियों को कतई चकित नहीं करता। तब क्या इस बात पर सोचने की जरूरत नहीं कि जिस वक्त मीडिया स्वयं संदिग्ध हो रहा हो उसका बनाया सच कैसा सच होगा? प्रस्तुत प्रसंग में इस बात को फिल्म नो वन किल्ड जेसिकाके हवाले समझने की कोशिश की जा सकती है! जेसिका मारी गई, प्रमाण बदल गए, गवाह मुकर गए। फिर मीडिया ने उसे हमदर्दी दी, एक अभियान चलाया। केस फिर जीवित हुआ लेकिन सारी प्रक्रिया में वह सच कितना तिर्यक तिरछा और बेमजा हो गया जो कि टेमरिंड कोर्ट के फर्श पर पड़े खून के छीटों की तरह दृश्य में बनाया गया न लगता था। जेसिका मारी गई लेकिन ताकतों ने कु छ इस तरह सच को तिरछा और गायब किया कि लगता है जेसिका को मारने वाला कोई न था। ठीक इन्हीं दिनों आरुषि हत्याकांड के केस को सीबीआई द्वारा बंद किया जाना बताता है कि सच को किस तरह से सुप्रबंधित किया जा सकता है!
आरुषि की कहानी का शीषर्क भी यही रहा- नो वन किल्ड आरुषि!
बताइए इतने दिन बाद आपको कोई कहे कि आरुषि मारी गई हेमराज मारा गया। यह खबर मात्र थी जिसका अब कोई प्रमाणन संभव नहीं है, प्रमाण बिना न्याय संभव नहीं है, न्याय बिना चैन संभव नहीं है। इतना मीडिया है और उसके सच के खोजी होने का दावा है लेकिन वह यह नही बता पाता कि जेसिका को दरअसल किसने मारा, आरुषि-हेमराज को किसने मारा? ये सारे सवाल पुलिस, सीबीआई के साथ मीडिया पर भी एक टिप्पणी हैं। वह सच बनाने की जगह उसका ध्ांधा करता है। सच जब ध्ांधा बन जाए तो वह मीडिया के ध्ांधे से बच के कहां जाएगा? बीस साल में मीडिया अपने तमाम गैरमासूम हितों के साथ सबके सामने नंगा है। खबर मर चुकी है। हम कह सकते हैं- नो वन किल्ड न्यूज!

Tuesday, January 4, 2011

मीडिया की नारदीय थियरी

दो हजार ग्यारह में पत्रकारिता के मिजाज पर विचार करने वालों को, मीडिया विशेषज्ञों को इस बुनियादी सवाल पर विचार करना होगा कि क्या लॉबिंग अपनी परंपरा में पुराने जमाने से नहीं चला आ रहा है? हमें लगता है कि यह सब तो परंपरा में है, पुराणों में है। आज जब हम इसे देख-देख चकित हो रहे हैं तो लगता है हमने अपनी परंपरा में पत्रकारिता में निहित लॉबिंग का और लॉबिंग में निहित पत्रकारिता का अध्ययन नहीं किया है दो हजार ग्यारह के साल में मीडिया कुछ नए संकल्प कर सकता है। पहला संकल्प यह कि अब मीडियार्कमी न बनें, अच्छे लॉबिस्ट बनें। वे र्शमिदा हरगिज न हों, जरूरत पड़ने पर वे दूसरों को र्शमिदा करें। उन्हें आत्मरक्षा की कतई जरूरत नहंीं हैं। आपकी हिफाजत तो आपकी लॉबी करेगी। इस साल किसी के चमचे न बनें। वे खुद लॉबिस्ट बनें और इस तरह लॉबी पत्रकारिता की शुरूआत करें। इसका बड़ा मार्केट है, इसे दो हजार दस ने बनाया है। यह हर शहर, हर गलीनुक्कड़, हर सरकारी-गैर सरकारी दफ्तर में है। इसे ठीकठाक ढंग से होना चाहिए। ये क्या कि खाया और मुंह पे लगा रह गया। अब मुंह पोंछने के लिए पत्रकारों-नेताओं-कॉरपोरेटों का मुंह जोहने की जरूरत नहीं, लगा है तो लगा रहने दीजिए। दो हजार ग्यारह में आप प्रेस क्लब को त्यागें और हाई लेवल लॉबिंग क्लब किसी पांच सितारा होटल में परमानेंटली खोलें। अब वही शोभा देता है। प्रेस क्लब का बंद धुआं पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहा है। इधर खबर दारू की खुशबू और सिगेरट के धुएं की तरह उड़ती रहती है। यह पत्रकारिता का ढाबा लगता है। यह साइबर युग है, आप साइबर स्पेस में क्लब बनाइए। प्रेस परिषद के सामने सन ग्यारह में एक और मुद्दा आएगा। उसे तैयार रहना चाहिए। इसे आज के पिछड़ी पत्रकारिता वाले बनाएंगे, मुद्दा लॉबिंग का होगा। लोग कहेंगे कि लॉबिंग को रोकिए, यह पत्रकारिता नहीं है। विचार करना होगा कि पत्रकरिता और लॉबिंग में क्या र्फक है? इससे भी पहले पता करना होगा कि पत्रकारिता और लॉबिंग में र्फक करना क्या जरूरी है? जब कोई र्फक न हो तब भी क्या र्फक किया जा सकता है? पत्रकारिता और जनसंर्पक में क्या र्फक हैं? क्या हमें पत्रकारिता की जगह जनसंर्पक शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहिए? मीडिया पाठ्यक्रमों में लॉबिंग को कोर्स में रखकर बाकायदे पढ़ाया जाना चाहिए। इसका गुर सिखाने कुछ विशेषज्ञों को बुलाया जा सकता है। दो हजार ग्यारह में पत्रकारिता के मिजाज पर विचार करने वालों को, मीडिया विशेषज्ञों को इस बुनियादी सवाल पर विचार करना होगा कि क्या लॉबिंग अपनी परंपरा में पुराने जमाने से नहीं चला आ रहा है? हमें लगता है कि यह सब तो परंपरा में है, पुराणों में है। आज जब हम इसे देख-देख चकित हो रहे हैं तो लगता है हमने अपनी परंपरा में पत्रकारिता में निहित लॉबिंग का और लॉबिंग में निहित पत्रकारिता का अध्ययन नहीं किया है। हमारी परंपरा में नारद जी पहले लॉबिस्ट हैं। जो सूचना को इधर- उधर करते हुए पत्रकारिता करते रहते हैं। उनके व्यक्तित्व में दोनों तत्व हैं। इस देवता से उसकी नुक्ताचीनी की, इस दुष्ट को भड़काया और उधर भगवान के हाथों उसका कल्याणकराया। सिर्फ नारायण-नारायणकहते अपनी वीणा बजाते निकल गए। आज के पत्रकार नारायण जाप नहीं जानते, न वीणा बजाते हैं। जिस-तिस के आगे बीन जरूर बजाते रहते हैं। नारद आर्दश लॉबिस्ट थे, सब देवताओं की लाबिंग की। ऐसा हो, वैसा न हो, यही क्यों हो? वह क्यों न हो? किसने किसका संहार किया? किसे किससे निपटवाना है? सब किया, लेकिन अपनी न कोई तिजोरी रखी न बैंक बैलेंस रखा। स्विस बैंक में कुछ हो तो पता नहंीं। नारद युग में नारद ही रहे, कोई नारदी नहीं रही। दो हजार दस ने नारदी का अवतार कर दिया। पत्रकारिता में नारदीय भक्तिसूत्र दो हजार दस में लागू हुआ। नारद जी के पास मोबाइल नहीं था। वे जो करते थे उसे रावण तक रिकार्ड नहंीं कर सका। उनके पास एक क्लासिकी वीणा थी। वही उनका मेबाइल था। उसके सुर संदेश भेजते थे। वे लॉंिबंग करते रहे, इसको उससे भिड़वाते रहे लेकिन कभी पकड में नहीं आए। नारद और आज के पत्रकारों के बीच थोड़ी-सी समानता है। नारद जी गंजे थे, सर के बाल सफाचट रखते थे। आजकल के कई पत्रकारों के सर गंजे हैं, गंजे होने का फैशन है। अपना सेमि- गंजत्व देख फुल गंजत्व की ओर चले जाते हैं। नारद गंजत्व के बीच एक लंबी चोटी रखा करते थे, आज के पत्रकार चोटी नहीं रखते। लेकिन चोटी के पत्रकार कहलाते हैं। चोटी से पकड़े जाते हैं। नारद जी की चोटी ऐसी थी जो कभी किसी के हाथ न लगी। नारद शब्द ना और रदसे बना है। इसका शब्दार्थ है दांत रहित। जिसके दांत न हों- बेदांत’! नाम बताता है कि नारद के दांत नहीं थे। बेदांत में बड़ी व्यंजना है। सोचिए तो कि त्रेता और द्वापर दो-दो युगों की पत्रकारिता अकेले दम पर की और बिना दांत के। आज के पत्रकारों के दांत ही दांत हैं। कई बार खबर की जगह दांत दिखते हैं, लेकिन खबरें बेदांत होती हैं। मुंह में दांत खबर बेदांत। नारद जी बेदांती होते हुए भी दो-दो युगों के डेंचर ठीक कर गए। आज के पत्रकार एक दिन की खबर का डेंचर ठीक नहंीं कर पाते। कहंीं लिखी जाती हैं, कहंीं पढ़ी जाती है। कहंीं देखी जाती है, कहंी सुनी जाती है। और कहंीं एक्शन होता है। नए साल के लिए नए सबक हैं। पत्रकारिता का इतिहास-भूगोल बदल गया है। सूचना से धंधे के युग में चला गया है। धंधा अंधयुग में चला गया है। अंधयुग, गंदा युग में चला गया है। एक लॉबिस्ट के कारनामे से सब मुंह लटकाए हैं। निराश हैं, सनक गए लगते हैं। भ्रष्टाचार का अखंड कीर्तन चल रहा है। पत्रकारिता के इस धुंधलके में पत्रकारिता का नारद भक्ति सूत्रही एक मात्र सहारा है, वही थियरी है, वही प्रेक्टिस है। उसमें पत्रकारिता और लॉबिंग का दैवी मिक्स है। इस मामले में नारद की मीडिया थियरी मार्शल मक्लूहान से आगे की है। चाहे पढकर देख लें!