Wednesday, December 28, 2011

मीडिया और सामाजिक परिवर्तन

सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में पृथ्वी का दायरा सिमटता-सा नजर आ रहा है। आज वि के किसी भी कोने में घटित घटना हम घर में बैठे-बैठे ही देख रहे हैं। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विचारों का विनिमय इस तरह हो रहा है जैसे हम परिवार के लोगों से करते हैं। वैीकरण की प्रक्रिया का सारा श्रेय जनसंचार माध्यम को जाता है जो सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं व रूढ़ियों की जटिलताओं को क्षीण करते हुए मिली-जुली संस्कृति एवं नए मानव मूल्यों की स्थापना कर रहा है। आज हम जिस सामाजिक परिवर्तन का दर्शन कर रहे हैं उसका सबसे अधिक श्रेय मीडिया को जाता है। लोगों की जीवनशैली में जिस तरह से परिवर्तन हुआ है उससे अमीरी और गरीबी की खाई पटती नजर आ रही है। व्यक्ति भले ही अभावों में जीवनयापन कर रहा हो लेकिन वह जीवन के अच्छे पहलू को समझ रहा है और उसको प्राप्त करने का प्रयास भी कर रहा है। दैनिक उपयोग की वस्तुओं का जिस तरह से सामान्यीकरण हुआ है उसमें महत्वपूर्ण योगदान जनसंचार माध्यमों का है। आज योग और आयुव्रेदिक उपचार से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है, अगर मीडिया इतनी प्रभावी न होती तो शायद सूचना इतनी तीव्र गति से नहीं पहुंचाई जा सकती थी। मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में समाज को मजबूत दिशा दे रहा है। लोकहित की रक्षा के लिए सरकार पर नियंतण्ररखते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करने का कार्य मीडिया के द्वारा हो रहा है। वर्तमान समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो रहा है जिससे कृषि उत्पाद दर और परिवार कल्याण को प्रोत्साहन मिल रहा है। खेल का मैदान भी मीडिया से अछूता नहीं है। इसके द्वारा खेलों की जानकारी के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय भावना का विकास हो रहा है। महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता मीडिया की ही देन है। भूमंडलीकरण के इस दौर में पिछले एक दशक से जिस उपभोक्तावादी संस्कृति ने जन्म लिया है उसका प्रभाव पूरे वि पर देखने को मिल रहा है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह सका है। न्यूज चैनल उन्हीं तथ्यों को देखने और दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं जो दर्शकों को ज्यादा लुभावने लग सकते हैं, भले ही उनके दिलो-दिमाग पर इसका कैसा भी असर पड़े। आरुषि हत्याकांड इसका एक उदाहरण भर है। जहां देश की अस्सी प्रतिशत जनता मीडिया द्वारा प्रस्तुत बात को आशीर्वचन समझती हो, ऐसे में उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना मीडिया का अपने कार्य और सिद्धांत से भटकना माना जाएगा। मीडिया समाज को दर्पण दिखाने का कार्य कर रहा है, लेकिन उस दर्पण में लोगों को अपना प्रतिरूप आदर्श लग रहा है। समाज का प्रतिबिंब देख, बदलने के स्थान पर लोग उसी में ढलते जा रहे हैं। यह मीडिया के लिए विचारणीय प्रश्न है। अगर एक दशक के सिनेमा पर विहंगम दृष्टि डालें तो बीस फीसद फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के चरित्र को दर्शाया गया है। लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के भोंडे स्वरूप को ही प्रस्तुत किया गया है। उसी की नकल स्कूल और कॉलेजों में शुरू हो गई है। इंटरनेट समाज के लिए वरदान है, लेकिन कुछ अश्लील वेबसाइट्स से युवा पीढ़ी गुमराह भी हो रही है। इस पर भी विचार की आवश्यकता है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खबर को मसालेदार और चटपटा बनाने के लिए सचाई को तोड़- मरोड़कर प्रस्तुत करना, अश्लीलता को परोसना, एक ही खबर को पूरे दिन या कई दिनों तक प्रस्तुत करना न्यूज चैनलों के लिए आम बात है। टीवी धारावाहिकों को इतना लंबा बनाया जा रहा है कि वे अंतहीन मालूम पड़ने लगते हैं। कुछ धारावाहिकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी पाश्चात्य चमकद मक से ओत-प्रोत हैं जिससे हमारी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास की जड़ें खोखली होती जा रही हैं जिसके कारण हम अपने आदर्श, मर्यादा, राष्ट्रप्रेम, समाज और संस्कृति से कटते जा रहे हैं। विज्ञापनों की अधिकता भी मीडिया के सकारात्मक पहलू को प्रभावित कर रही है। सच है कि विज्ञापनों के माध्यम से ही मीडिया को अर्थ की प्राप्ति होती है पर इतना ही मीडिया का उद्देश्य तो नहीं हो सकता। तीस मिनट के कार्यक्रम में सत्रह से अट्ठारह मिनट विज्ञापन में ही जाते हैं और उसी तीस मिनट के कार्यक्रम में एक ही विज्ञापन को चार से पांच बार दिखाया जाता है। इससे समय तो बर्बाद होता ही है बाजारवाद को भी बढ़ावा मिलता है। समय के साथ-साथ विज्ञापन की गुणवत्ता को भी ध्यान में रखना मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। समाचारपत्र भी इस प्रभाव से नहीं बच पाए हैं। जिस नीमहकीम को डॉक्टरों ने खारिज कर रखा है उसका भी विज्ञापन उच्च गुणवत्ता के मानक के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। लोकतंत्र में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के समुचित ढंग से कार्य न करने के कारण लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आज का सबसे बड़ा सरोकार है नकारात्मकता भूमिका से सकारात्मक भूमिका में परिवर्तन। मीडिया की भूमिका जितनी सशक्त होगी, उतना ही अधिक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन होगा।

Monday, December 19, 2011

सोशल मीडिया पर हिट, तो काम में फिट


फेसबुक, ट्विटर, ऑरकुट पर अगर अब तक अकाउंट नहीं खोला है, तो जल्द खोल लें। संभव है कि किसी कंपनी से नौकरी का शानदार ऑफर यहीं से आपको आ जाए। वजह यह है कि देश में तमाम कंपनियां अब नियुक्ति के लिए सोशल मीडिया को खंगाल रही हैं। कस्टमर रिलेशन (ग्राहकों के साथ संबंध) सुधारने के लिए भी वे इन पर सक्रिय हैं। सलाहकार फर्म केपीएमजी के सर्वे के मुताबिक देश में कंपनियों ने नियुक्ति के लिए नया पैमाना बनाया है। इसमें सोशल मीडिया पर नेटवर्किंग आपकी खूबी मानी जाती है। यानी सोशल मीडिया पर हिट हैं, तो काम के लिए भी फिट हैं। खास बात यह है कि भारत, चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं विकसित देशों के मुकाबले नियुक्ति के लिए सोशल मीडिया को अधिक वरीयता दे रही हैं। यह चलन तेजी से बढ़ा है। यह सर्वे दुनिया भर में करीब 4 हजार नियोक्ताओं और प्रबंधकों के बीच किया गया। सर्वे के मुताबिक, भारत में करीब 70 प्रतिशत कंपनियां सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं। चीन में यह संख्या और भी अधिक (88 प्रतिशत) है। ब्राजील में भी 68 प्रतिशत कंपनियां अपने ग्राहकों तक पहुंचने और कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करती हैं। इसके उलट विकसित देशों में इनके लिए सोशल मीडिया का उपयोग काफी कम है। जापान में 27, ऑस्ट्रेलिया में 41.6, स्वीडन में 41.7, जर्मनी में 43, ब्रिटेन में 48.2 और कनाडा में 51 प्रतिशत कंपनियां कर्मचारियों को रखने के लिए इस प्लेटफॉर्म को खंगालती हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि सोशल मीडिया पर किसी तरह की रोक लगाने की कोशिश बेकार है। अंत में इसका खामियाजा कंपनी को ही भुगतना पड़ता है। किसी न किसी तरह से कर्मचारी सोशल मीडिया को इस्तेमाल कर ही लेते हैं। इसके लिए वे अपने ऑफिस उपकरणों में तमाम तरह के बदलावों से भी परहेज नहीं करते।

Friday, December 16, 2011

मायावी दुनिया रचता न्यू मीडिया

न्यू मीडिया, एक लहर के समान दुनिया भर में किसी न किसी कारण लगातार चर्चा में रह रहा है। अपने यहां अभी यह केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइटों को अपनी विषयवस्तु पर छन्नी लगाकर उनकी दृष्टि में जो थोथा है उसे न आने देने और आ गया तो हटा देने की इच्छा जताने के कारण चर्चा में है। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू ने इसका समर्थन किया है। काटजू ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रिंट मीडिया के समान इलेक्ट्रॉनिक एवं समाचार से जुड़ी वेबसाइट्स को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाने का अनुरोध किया है। गरमागरम बहस जारी है। जो अपने मातहत काम करने वालों को नियंतण्रमें रखने की सारी जुगत करते रहते हैं वे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शब्दवीर बने हैं। इसके पूर्व भारत सहित दुनिया भर में पिछले दोढार्इ सालों में जो आंदोलन हुए, उसमें भूमिका को लेकर तो न्यू मीडिया लगातार चर्चा में है ही। अगर न्यू मीडिया नहीं होता तो ये आंदोलन नहीं होते, ऐसा कहने वालों की कोई कमी नहीं है। दुनिया के समाजशास्त्रियों, भविष्यवेत्ताओं के एक वर्ग ने इसे डिजिटल डेमोक्रेसी नाम दिया है। इसके राजनीतिक प्रक्रिया संबंधी प्रभावों पर विस्तृत अध्ययन हो रहे हैं, शोध प्रबंध आ रहे हैं। इन अध्ययनों का सार यही है कि यह राजनीति या लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन नहीं ला सकता। डिजिटल तकनीकों तक पहुंच रखने वाले सक्षम लोग , वे चाहे राजनीति के अंदर के हों या बाहर के- इसका उपयोग करते रहेंगे, पर शक्ति संतुलन एवं राजनीतिक संरचना नहीं बदलेगी। न्यू मीडिया की आंदोलन में भूमिका की चर्चा ईरान और अरब की क्रांतियों के संदर्भ में काफी हुई है। 2009 को जब ईरान के चुनाव परिणाम आए, भारी संख्या में ईरानी सड़क पर उतरे और विरोध किया। पश्चिम ने इसका श्रेय फेसबुक, यू ट्यूब और ट्वीटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को दिया। पश्चिमी मीडिया में इसे ट्वीटर रिवोल्यूशन ही कहा गया। अमेरिका के सुरक्षा सलाहकार ने कहा कि ट्वीटर को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना चाहिए क्योंकि उसके बिना ईरान के लोग लोकतंत्र तथा आजादी के लिए खड़े नहीं होते। लेकिन ईरान में ट्वीटर का अस्तित्व नहीं था। ईरान के एक लोकप्रिय ब्लॉगरअलीरेजा रेजेई, जिन्होंने स्वयं विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था- कहते हैं कि न्यू मीडिया ने न प्रदर्शनकारियों को मोबलाइज किया और न उनकी हौसला अफजाई की। ईरान में जो कुछ हुआ, वह जन आंदोलन था जो वास्तविक जनों द्वारा किया गया था। इनमें से अनेक न इंटरनेट और न्यू मीडिया का प्रयोग करते हैं और न उन तक उनकी पहुंच है। हां, मोबाइल फोन पर संदेशों ने इसमें योगदान दिया। वस्तुत: प्रदर्शन को कुचलने के प्रयासों ने इसे ज्यादा तीखा बना दिया। आंदोलन को ताकत से दबाने की कोशिश हुई तो लोगों ने सेल फोन से हिंसा की वीडियोग्राफी आरंभ कर दी। ये वीडियो यू ट्यूब पर अपलोड हुए और वहां से ट्वीटर एवं फेसबुक पर शेयर किए गए। लोगों ने उन वीडियोज को देखा, किंतु यह बाहर के देशों तक जानकारी पहुंचाने के ज्यादा काम आया। इरानियन ब्लॉगर एवं इंटरनेट एक्टिविस्ट वाहिद ऑन लाइन ने कहा कि ट्वीटर की भूमिका के बारे में अतिरंजना ज्यादा है। चूंकि बाहरी दुनिया उससे ईरान की घटनाओं को देख रही थी, इसलिए लगा कि विद्रोह में उसकी भूमिका है। अरब जगत में ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया में जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ, उसमें न्यू मीडिया की भूमिका पर अध्ययन की जरूरत है। लेकिन न्यू मीडिया की भूमिका ईरान से बहुत ज्यादा इन देशों में हो ऐसा लगता नहीं। ट्वीट्स पूरी दुनिया में है, इसलिए मीडिया को इसका ध्यान आता है एवं यह मीडिया से जुड़े लोगोें के बीच पूरे वि में फैल जाता है। फेसबुक की भी यही स्थिति है। तहरीर चौक के जमावड़े के दौरान ट्वीटर, फेसबुक पर लोग सक्रिय थे लेकिन आंदोलन सड़कों पर हुआ। न्यू मीडिया का चरित्र ही सड़कों पर आंदोलन के विपरीत है। फेसबुक पर ज्यादा व्यस्त होने वाले यथार्थ से वचरुअल र्वल्ड में सिमट जाते हैं। आंदोलन ऑनलाइन, वचरुअल र्वल्ड या साइबर दुनिया में नहीं हो सकता। दुनिया के अनजाने लोग स्वच्छंद सोच को अभिव्यक्त कर यदि क्रांतियां करने लगें तो आंदोलनों के लिए इतने परिश्रम की आवश्यकता ही नहीं। आधुनिक पत्रकारिता और मीडिया की पैदाइश बाजार पूंजीवाद के विचार से विकसित औद्योगिक क्रांति से हुई है। न्यू मीडिया भी पूंजीवाद के प्रचंड रूप बाजार पूंजीवाद की पैदाइश है। पुरानी गाथाओं में दैत्यों-राक्षसों द्वारा अत्यधिक भक्षण की कथाओं को याद करिए तो पूंजीवाद के ज्यादातर यंत्र वैसे ही नजर आएंगे। इसमें ऐसा कोई यंत्र नहीं जो बिना ऊर्जा के चलता हो, जिसे बनाने में प्रकृति की अनमोल धरोहर खर्च न हुई हो, जिससे स्वास्थ्य एवं प्रकृति को कोई हानि न होती हो। एक बड़े विचार और व्यवहार में पूंजीवाद और उसकी अनुचर बनी औद्योगिक और तकनीकी क्रांति का बड़ा राक्षस और न्यू मीडिया के सारे यंत्र जो हमारे हाथों में हैं उसके ही वंशज हैं। न्यू मीडिया के रूप में हर सक्षम हाथ में छोटा राक्षस है जो मायावी संसार रचने की विनाशलीला मचा रहा है। एक बड़े वर्ग को इसके विनाश में आनंदातिरेक की अनुभूति हो रही है! न्यू मीडिया का संस्कार नियंतण्रऔर संतुलन के विपरीत है। हालांकि संस्कार से संयमी कई व्यक्ति किसी साइट पर अच्छी बातें लिख रहे हैं या कुछ अच्छा करने की प्रेरणा भी दे रहे हैं लेकिन ऐसे लोग अल्पसंख्यक हैं। न्यू मीडिया में सबसे ज्यादा स्पेस काम क्रीड़ा यानी पोर्न साइटों के पास है और सर्वाधिक विजिटर भी इनके ही हैं। न्यू मीडिया के माध्यम से समाज की सम्पूर्ण निजता का चीरहरण हो रहा है। सोशल नेटवर्किंग नाम से ऐसा लगता है जैसे समाज के बीच संर्पकों का जाल बुना जा रहा हो। जिस देश में व्यक्ति को सम्पूर्ण सृष्टि से जोड़ने की जीवन पण्राली स्थापित की गई थी वहां तथाकथित सोशल नेटवर्किंग दैत्य के रूप में उस पण्राली को ही नष्ट कर रहा है। पूरा न्यू मीडिया अपने-आपमें न सकारात्मक चरित्र का है और न सही दिशा में गमन के लिए प्रेरित करने वाला साधन, बल्कि अपनी उत्पत्ति और संस्कार दोनों में यह उसके विपरीत ले जाने वाला है। ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर, मोबाइल संदेश, यू ट्यूब आदि को नियंत्रित या संतुलित करने की कोशिश सफल नहीं हो सकती। दैत्य की तरह इसका अंत करना होगा। किंतु मरने तक यह मानवीय सभ्यता के न जाने कितने पहलुओं को नष्ट कर अराजकताओं का जाल खड़ा कर चुका होगा।