Saturday, December 1, 2012

अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल





उमेश चतुर्वेदी सुप्रीम कोर्ट में आइटी कानून की धारा 66ए को रद करने की याचिका क्या दायर हुई, सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत की जाने वाली गिरफ्तारियों के लिए नए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। नए निर्देशों के मुताबिक किसी शख्स को इस कानून के तहत बिना डीसीपी या आइजी रैंक के अधिकारी की अनुमति के गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। निश्चित तौर पर यह दिशा-निर्देश आइटी कानून का दुरुपयोग रोकने में मददगार साबित तो होगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सरकारें तब ही क्यों चेतती हैं, जब ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं और उन्हें लेकर सर्वोच्च अदालत से खिंचाई की उन्हें आशंका होती है। शुक्र है कि दिल्ली की कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने आइटी कानून की धारा 66ए पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसे स्पष्ट करने की मांग की। श्रेया सिंघल ने इस अस्पष्टता के चलते मुंबई के ठाणे की दो छात्राएं रेणु और शाहीन को सूर्यास्त के बाद महज फेसबुक पर टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार करने के साथ ही जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा समेत कई गिरफ्तारियों का हवाला दिया है। सुप्रीम कोर्ट के सामने जब यह मामला आया तो सुप्रीम कोर्ट भी हैरत में पड़ गया कि आखिर फेसबुक पर टिप्पणी करना इतना संगीन मामला कब से और क्यों हो गया कि दो लड़कियों को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार करना पड़ा। फेसबुक पर उठते मामले और उससे जुड़े विवाद से पहले जान लें कि आइटी कानून की धारा 66ए में आखिर है क्या? आइटी एक्ट के सेक्शन 66(ए) के तहत कंप्यूटर या संचार माध्यम से सरासर आपत्तिजनक या डरावनी जानकारियां और सूचनाएं भेजने के मामले आते हैं। इसके तहत संबंधित व्यक्ति या समूह के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, जो कोई ऐसी जानकारी भेजे, जिसके गलत होने का पता हो, लेकिन फिर भी उसे किसी को चिढ़ाने या परेशान करने, खतरे में डालने, बाधा डालने, अपमान करने, चोट पहुंचाने, धमकी देने, दुश्मनी पैदा करने, घृणा या दुर्भावना के मकसद से भेजा जाए। आज सोशल मीडिया के जरिये अभिव्यक्ति की अपनी आजादी का इस्तेमाल करने वाले लोगों के खिलाफ जितनी भी कार्रवाइयां हो रही हैं, वे सब इसी धारा के तहत हो रही हैं। जाहिर है, इस धारा में कई चीजें स्पष्ट नहीं हैं। आखिर कौन तय करेगा कि कौन-सी जानकारी डरावनी है और किसी सार्वजनिक व्यक्ति पर सवाल कब जाकर उसका अपमान हो जाएगा। जानकार तो मानते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल को लेकर चले अभियान के दौरान जिस तरह सोशल मीडिया के सार्वजनिक मंचों के जरिये सरकार और उसके जिम्मेदार लोगों पर सवाल उठे, उसके बाद ही आइटी कानून की इस धारा के इस्तेमाल की परिपाटी बढ़ चली। बेशक उस दौरान कुछ लोगों ने सोशल साइटों पर गलत और आपत्तिजनक कमेंट किए, उनके आपत्तिजनक चित्र भी बनाकर पेश किए गए, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों को ऐसी कीमतें चुकानी पड़ती हैं। निंदक नियरे राखिए लोकतांत्रिक समाज में भीड़तंत्र से आप मर्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसी हरकतों पर रोक तो लगनी चाहिए थी, हालांकि इसके लिए माकूल इंतजाम कर पाना मौजूदा तकनीकी विस्तार के दौर में संभव भी नहीं है। आखिर किसी की गिरफ्तारी मात्र से क्या ऐसी सूचनाएं रोकी जा सकेंगी। मौजूदा तकनीक ने सोशल मीडिया को ऐसा माहौल और मंच उपलब्ध करा दिया है कि वह हर प्रतिबंध के बाद नए रूप में सामने आ जाएगी। दिवंगत बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा पर ठाणे की रेणु और शाहीन की टिप्पणियों को रोकने की नीयत से महाराष्ट्र सरकार और पुलिस ने उनकी गिरफ्तारियां कीं। दबाव में उन्होंने अपना फेसबुक प्रोफाइल कुछ अस्थायी तौर पर मुल्तवी भी कर दिया, लेकिन बदले में क्या हुआ, वे टिप्पणियां लाखों लोगों तक सात समंदर पार तक जा पहुंचीं। फिर उसके बाद क्या हुआ, जिस कमेंट की अनदेखी की जा सकती थी और अनदेखी के जरिये उसे अनाम रह जाने दिया जा सकता था, उसे सरकारी तंत्र की एक कोशिश ने और ज्यादा प्रचारित कर दिया। दरअसल, आज का सत्ता तंत्र और उसे चलाने वाले लोग तुलसीदास की पुरानी उक्ति को भूलते जा रहे हैं। तुलसीदास तो बहुत पहले ही निंदक नियरे रखने का सुझाव दुनिया को दे गए थे, लेकिन राजनीति की दुनिया में निंदकों को लगातार दूर रखने और मौका पड़े तो निबटाने की ही परंपरा विकसित होती चली गई। इस दौर में अपने लोकतांत्रिक समाज में भी लोग कम से कम रसूखदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जुबान खोलने से बचते थे। ऐसा नहीं कि भारतीय राजनीति की बुनियाद निंदकों को निबटाने की ही क्रूर कारसाजी के साथ रखी गई थी। देश के पहले उप-प्रधानमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बाकायदा अपने सचिवों से कह रखा था कि उनको अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से लोगों के सामने रखना चाहिए। भले ही उनके विचार अन्य लोगों से नहीं मिलते हों। लेकिन लोकतांत्रिक सत्ता का चरित्र ऐसा विकसित हुआ कि निंदकों की कौन कहे, आजाद खयाल रखने वाले लोगों की आजाद खयाली को ही रोकने की कोशिश की जाने लगी। इसमें यस मिनिस्टर कहने वाली ब्रिटिश परिपाटी से विकसित हुई नौकरशाही तो जैसे राजनीति की पूरक की भूमिका निभाने लगी। अव्वल तो उसे राजनीति को भी अपने आचरण से एक हद तक मर्यादित रहने की सीख देने की कोशिश करनी चाहिए थी तो वह राजनीति की गुलाम बन गई। आजाद खयाली पर नकेल लोकनायक जयप्रकाश नारायण नौकरशाही की जैसी बहे बयार, तैसी पीठ कीजै की इस अवसरवादी चापलूसी से परिचित थे। यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल से पहले नौकरशाही से राजनीतिक तंत्र के असंवैधानिक आदेश न मानने की अपील भी की थी। तब उन्हें अराजकतावादी कहकर उनकी आलोचना भी की गई थी। बहरहाल, आज सोशल मीडिया के आजाद मंचों पर हो रही आजाद खयाली को लेकर जिस तरह प्रशासनिक तंत्र और पुलिस के लोग बढ़-चढ़कर कार्रवाइयां कर रहे हैं, दरअसल वह कानून से कहीं ज्यादा नैतिकता का मामला है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या शाहीन और रेणु के खिलाफ उद्धव ठाकरे या शिवसेना ने मामला दर्ज कराया था कि उनके खिलाफ कार्रवाई की गई। अंबिकेश महापात्र के मामले में भी ममता बनर्जी से कहीं ज्यादा पश्चिम बंगाल पुलिस ने खुद आगे बढ़कर कार्रवाई की थी। हां, इस बीच पुडुचेरी के एक शख्स के खिलाफ पी चिदंबरम के बेटे के खिलाफ कमेंट के लिए मामला जरूर झेलना पड़ा है। जाहिर है, राजनीतिक तंत्र की शह और कई बार बिना शह के ही नैतिकता और मर्यादा से बाहर जाकर पुलिस और प्रशासन ने कदम उठाए और अब इस का ही नतीजा है कि अब सुप्रीम कोर्ट भी इस पर सवाल उठाने लगा है। बेशक, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी दूध के धुले नहीं हैं। ब्रिटेन में पिछले साल हुए दंगों के बाद बनी जांच समिति ने दंगों में सोशल मीडिया की भूमिका की भी जांच की थी और उसे भी दोषी पाया था। आफ्टर दि रायट्स नाम से तैयार इस रिपोर्ट में सोशल मीडिया को तब के दंगों के लिए जिम्मेदार बताया गया था, लेकिन इसके लिए कारण जिम्मेदार थे, वे माध्यम (सोशल मीडिया) खुद में नहीं। लगातार तकनीकी क्रांति के साथ कदमताल करते अपने देश में हम विकास की धारा भी बहाना चाहते हैं और कानूनी शिकंजा 18वीं सदी का रखना चाहते हैं। अब जरूरत इस बात की है कि बदलते दौर में तकनीक से कदमताल की जाए और कारणों को ज्यादा जिम्मेदार समझा जाए, माध्यम को नहीं। इसी दिशा में कानून को भी प्रभावी बनाया जाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page-9(ehMh;k)