Sunday, February 10, 2013

गांवों के विकास से ही देश का विकास: सचिन

कॉरपोरेट मामलों के मंत्री सचिन पायलट रविवार को पूरी तरह से किसानी रंग में रंगे नजर आए। अपने पिता राजेश पायलट के अंदाज में ही किसानों और देश की सीमा पर तैनात जवानों का दर्द उनके भाषण में झलका तो पिता की तरह ही लोगों का अभिवादन राम-राम सा से किया। अवसर था राजेश पायलट की जयंती के उपलक्ष्य में गुड़गांव के घाटा गांव के चौक पर उनकी मूर्ति के अनावरण का। इस दौरान आयोजित किसान सम्मेलन को सचिन पायलट के साथ-साथ उनकी मां रमा पायलट, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, सांसद इंद्रजीत सहित हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस सांसद व विधायकों ने भी संबोधित किया। किसान सम्मेलन में सचिन पायलट ने कहा कि उनके पिता जीए तो किसानों और देश के जवानों के लिए और मरे भी तो इन्हीं के लिए। उनके दिल में हमेशा कसक रहती थी कि कैसे भी किसान मजदूर का बेटा उन पदों पर पहुंचे जहां नीतियां बनती हैं और आज कांग्रेस की सरकार निश्चित तौर पर उन्हीं नीतियों पर चल रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व राहुल गांधी की सराहना करते हुए सचिन ने कहा कि दोनों के नेतृत्व में युवाओं को आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है, किसानों की चिंता की जा रही है।

11 फ़रवरी 2013
दैनिक जागरण

गृह मंत्रालय ने संभाली सुरक्षा की कमान

संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू को शनिवार तड़के फांसी लगने के बाद हिंसा फैलने की आशंका को देखते हुए गृह मंत्रालय ने सुरक्षा की कमान खुद संभाल ली। शनिवार को अवकाश होने के बावजूद गृह सचिव, संयुक्त सचिव (आतंरिक सुरक्षा) और खुफिया ब्यूरो के निदेशक सुबह से ही अपने दफ्तरों में डटे रहे। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर जहां सेना को सतर्क कर दिया गया, वहीं आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर राज्यों को भी हाई अलर्ट कर दिया गया। देश के हर हिस्से की पल-पल की जानकारी ली जाती रही। जम्मू कश्मीर समेत देश के सभी प्रमुख संवेदनशील शहरों में अभूतपूर्व सुरक्षा के उपाय देर रात ही कर दिए गए थे। जम्मू-कश्मीर के डीजीपी को शुक्रवार की देर शाम को ही सुरक्षा के लिए एहतियाती कदम उठाने के निर्देश दे दिए गए थे। अन्य राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को फांसी की खबर सार्वजनिक होने के बाद अलर्ट रहने का निर्देश जारी किया गया।सरकार का यह फैसला काफी देरी से आया, लेकिन अच्छी बात है कि लोगों की भावनाओं की कद्र की गई। सरकार ने बहादुरी का परिचय दिया है। - संजय राउत, शिवसेना प्रवक्ता चौतरफा घिरी कांग्रेस ने सांप्रदायिक ताकतों को खुश करने के लिए अफजल को फांसी दी है। - दीपांकर भट्टाचार्य महासचिव, भाकपा (माले) इस फैसले में देरी हुई। इसकी वजह यह थी कि इसके लिए एक संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करना जरूरी था और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। -अभिषेक मनु सिंघवी, कांग्रेस नेता कांग्रेस ने राजनीतिक कारणों की वजह से ही लंबे अर्से से इस फैसले को लटकाए रखा था। -स्मृति ईरानी, भाजपा सांसद आतंक के गुरू को फांसी भीतर भी गृह मंत्री, गृह सचिव और संयुक्त सचिव (आंतरिक सुरक्षा) के अलावा किसी को इसकी भनक नहीं लगने दी गई। 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर आतंकी हमले के लिए साल 2005 से फांसी का इंतजार कर रहे अफजल की फाइल पिछले 15 दिनों में तेजी से घूमी। जयपुर चिंतन शिविर में 20 जनवरी को हिंदू आतंकवाद पर बयान देने के अगले ही दिन गृह मंत्री ने अफजल की दया याचिका ठुकराने की सिफारिश के साथ फाइल मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दी। जिस पर राष्ट्रपति ने तीन फरवरी को मुहर लगा दी। आठ फरवरी को स्थानीय अदालत ने फांसी के लिए शनिवार सुबह आठ बजे का समय तय कर दिया। सुरक्षा कारणों से अफजल के शव को तिहाड़ जेल परिसर में ही दफन कर दिया गया। फांसी का समय तय होने के बाद गृह मंत्रालय इसके बाद की स्थिति से निपटने की तैयारियों में जुट गया था। शुक्रवार देर शाम शिंदे ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व गृह सचिव आरके सिंह ने डीजीपी को फोन कर इसकी जानकारी दी और राज्य में सुरक्षा के लिए जरूरी एहतियाती कदम उठाने के निर्देश दिए। खुफिया ब्यूरो ने अफजल के शव को परिवार को सौंपने की स्थिति में घाटी में स्थिति बेकाबू होने की आशंका जताई थी। गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अफजल के परिवार को गुरुवार और शुक्रवार को दो स्पीड पोस्ट भेजकर दया याचिका खारिज होने की जानकारी दे दी गई थी। शुक्रवार शाम राज्य के डीजीपी को अफजल के परिवार तक उसकी फांसी के बारे में सूचना पहुंचाने को कह दिया गया था। अफजल की फांसी के बाद पैदा होने वाली संभावित स्थितियों से निपटने के लिए गृह मंत्रालय ने शनिवार सुबह से ही सुरक्षा की कमान संभाल ली। कंट्रोल रूम से देश भर में घटनाओं की पल-पल की सूचना मंत्रालय में मौजूद गृह सचिव, संयुक्त सचिव आंतरिक सुरक्षा और खुफिया ब्यूरो के निदेशक को दी जा रही थी। इसके अनुरूप संबंधित राज्यों और पुलिस प्रमुखों को जरूरी निर्देश दिए जा रहे थे। गृह मंत्रालय का मानना है कि घाटी में भी अगले कुछ दिनों में स्थिति सामान्य हो जाएगी। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि घाटी में आतंकवाद पिछले तीन दशक के सबसे निचले स्तर पर है। फिलहाल घाटी में करीब तीन सौ आतंकी सक्रिय हैं और सुरक्षा बल उन पर भारी पड़ रहे हैं। आतंकियों को स्थानीय समर्थन में भी भारी कमी देखी जा रही है। गृह मंत्रालय ने संभाली सुरक्षा की कमान पर नजर रखें और जरूरत पड़ने पर तत्काल उन्हें हिरासत में लें। बस अड्डों, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों और अन्य सार्वजनिक स्थलों की खुफिया निगरानी बढ़ा दी गई। राज्यों से आने वाली छोटी-बड़ी सभी खबरों और धरना प्रदर्शन की खबरों की गहन समीक्षा होती रही। अफजल की फांसी को लेकर जम्मू- कश्मीर को अति संवेदनशील क्षेत्र के रूप में देखा जा रहा था। वहां के ज्यादातर जिलों में लोगों के सुबह जगने के पहले ही कफ्र्यू लगा दिया गया। राज्य में मोबाइल नेटवर्क जाम कर दिया गया। स्थानीय केबल ऑपरेटरों को तत्काल प्रभाव से प्रसारण रोकने के निर्देश दे दिए गए। केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह सीधे राज्यों के पुलिस महानिदेशकों से संपर्क में रहे। मंत्रालय ने जम्मू- कश्मीर के मुख्य सचिव को राज्य की कानून व्यवस्था की विस्तृत जानकारी देने के लिए दिल्ली बुला लिया। गृह मंत्रालय की ओर से राज्यों को भेजी गई एडवाइजरी में स्पष्ट कहा गया कि वे अपने यहां के संवेदनशील क्षेत्रों पर कड़ी नजर रखें। आतंकी धमकियों को देखते हुए राजधानी दिल्ली के अलावा मुंबई, हैदराबाद के साथ इलाहाबाद के कुंभ मेले की सुरक्षा को और पुख्ता करने के निर्देश दे दिए गए हैं। 10 फरवरी को वहां शाही स्नान का पर्व है।
13 फ़रवरी 2013 दैनिक जागरण

Thursday, January 31, 2013

देश में तलवार की धार पर प्रेस




वाशिंगटन, प्रेट्र : दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में शुमार भारत में पिछले कुछ साल के दौरान प्रेस की आजादी पर अंकुश बढ़ा है। हाल ही में जारी व‌र्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत नौ पायदान खिसककर 140वें स्थान पर पहुंच गया है। इंडेक्स तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले एक व्यक्ति के मुताबिक वर्ष 2002 से भारत में प्रेस पर लगाम कसने की कवायद बढ़ी है। वर्ष 2013 के लिए जारी सूची में पत्रकारों को आजादी के मामले में यूरोपीय देश फिनलैंड, नीदरलैंड्स और नॉर्वे सबसे ऊपर हैं। वहीं, तुर्कमेनिस्तान, उत्तरी कोरिया और इरीट्रिया लगातार तीसरे साल भी सूची में सबसे नीचे हैं। सूची में 140वें स्थान पर लुढ़कने वाला भारत एशिया में सबसे नीचे पहुंच गया है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2002 के बाद पत्रकारों पर गंभीर हमले और इंटरनेट सेंसरशिप में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। वहीं, पत्रकारों पर हमला करने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं करने के मामले भी सामने आए हैं। चीन एक स्थान उछलकर 173वें स्थान पर पहुंच गया है। चीन में कई पत्रकार और नेटीजन जेल में हैं। गैरसरकारी संगठन रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स द्वारा जारी प्रेस आजादी सूचकांक में राष्ट्रों की राजनीतिक प्रणाली पर प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं की गई है, लेकिन स्पष्ट किया गया है कि जिन देशों में सही व वास्तविक सूचनाएं उपलब्ध कराने वालों को बेहतर सुरक्षा दी जाती है, उन देशों में मानवाधिकार पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं। एनजीओ के महासचिव क्रिस्टोफर डेलियर के मुताबिक, तानाशाहों वाले देशों में बिना लागलपेट के खबर मुहैया कराने वालों और उनके परिजनों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है, जबकि लोकतांत्रिक देशों में मीडिया को आर्थिक समस्याओं के कारण समझौता करना पड़ता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत सहित वे तमाम देश सूची में नीचे खिसके हैं, जहां क्षेत्रीय मॉडल को तरजीह दी जाती है। दक्षिण एशिया में वर्ष 2012 के दौरान खबर व सूचनाओं से जुड़े लोगों के लिए माहौल तेजी से खराब हुआ है। मालदीव सूची में 30 स्थान लुढ़ककर 103वें स्थान पर पहुंच गया है। मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के इस्तीफे के बाद मीडियाकर्मियों को धमकी के साथ ही हिंसा का शिकार भी बनाया गया। पाकिस्तान (159वां स्थान), बांग्लादेश और नेपाल (118वां स्थान) में भी पत्रकारों की स्थिति बिगड़ती जा रही है।
  Dainik jagran National Edition 31-01-2013 page -014 (ehMh;k)


Saturday, December 1, 2012

अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल





उमेश चतुर्वेदी सुप्रीम कोर्ट में आइटी कानून की धारा 66ए को रद करने की याचिका क्या दायर हुई, सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत की जाने वाली गिरफ्तारियों के लिए नए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। नए निर्देशों के मुताबिक किसी शख्स को इस कानून के तहत बिना डीसीपी या आइजी रैंक के अधिकारी की अनुमति के गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। निश्चित तौर पर यह दिशा-निर्देश आइटी कानून का दुरुपयोग रोकने में मददगार साबित तो होगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सरकारें तब ही क्यों चेतती हैं, जब ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं और उन्हें लेकर सर्वोच्च अदालत से खिंचाई की उन्हें आशंका होती है। शुक्र है कि दिल्ली की कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने आइटी कानून की धारा 66ए पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसे स्पष्ट करने की मांग की। श्रेया सिंघल ने इस अस्पष्टता के चलते मुंबई के ठाणे की दो छात्राएं रेणु और शाहीन को सूर्यास्त के बाद महज फेसबुक पर टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार करने के साथ ही जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा समेत कई गिरफ्तारियों का हवाला दिया है। सुप्रीम कोर्ट के सामने जब यह मामला आया तो सुप्रीम कोर्ट भी हैरत में पड़ गया कि आखिर फेसबुक पर टिप्पणी करना इतना संगीन मामला कब से और क्यों हो गया कि दो लड़कियों को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार करना पड़ा। फेसबुक पर उठते मामले और उससे जुड़े विवाद से पहले जान लें कि आइटी कानून की धारा 66ए में आखिर है क्या? आइटी एक्ट के सेक्शन 66(ए) के तहत कंप्यूटर या संचार माध्यम से सरासर आपत्तिजनक या डरावनी जानकारियां और सूचनाएं भेजने के मामले आते हैं। इसके तहत संबंधित व्यक्ति या समूह के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, जो कोई ऐसी जानकारी भेजे, जिसके गलत होने का पता हो, लेकिन फिर भी उसे किसी को चिढ़ाने या परेशान करने, खतरे में डालने, बाधा डालने, अपमान करने, चोट पहुंचाने, धमकी देने, दुश्मनी पैदा करने, घृणा या दुर्भावना के मकसद से भेजा जाए। आज सोशल मीडिया के जरिये अभिव्यक्ति की अपनी आजादी का इस्तेमाल करने वाले लोगों के खिलाफ जितनी भी कार्रवाइयां हो रही हैं, वे सब इसी धारा के तहत हो रही हैं। जाहिर है, इस धारा में कई चीजें स्पष्ट नहीं हैं। आखिर कौन तय करेगा कि कौन-सी जानकारी डरावनी है और किसी सार्वजनिक व्यक्ति पर सवाल कब जाकर उसका अपमान हो जाएगा। जानकार तो मानते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल को लेकर चले अभियान के दौरान जिस तरह सोशल मीडिया के सार्वजनिक मंचों के जरिये सरकार और उसके जिम्मेदार लोगों पर सवाल उठे, उसके बाद ही आइटी कानून की इस धारा के इस्तेमाल की परिपाटी बढ़ चली। बेशक उस दौरान कुछ लोगों ने सोशल साइटों पर गलत और आपत्तिजनक कमेंट किए, उनके आपत्तिजनक चित्र भी बनाकर पेश किए गए, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों को ऐसी कीमतें चुकानी पड़ती हैं। निंदक नियरे राखिए लोकतांत्रिक समाज में भीड़तंत्र से आप मर्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसी हरकतों पर रोक तो लगनी चाहिए थी, हालांकि इसके लिए माकूल इंतजाम कर पाना मौजूदा तकनीकी विस्तार के दौर में संभव भी नहीं है। आखिर किसी की गिरफ्तारी मात्र से क्या ऐसी सूचनाएं रोकी जा सकेंगी। मौजूदा तकनीक ने सोशल मीडिया को ऐसा माहौल और मंच उपलब्ध करा दिया है कि वह हर प्रतिबंध के बाद नए रूप में सामने आ जाएगी। दिवंगत बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा पर ठाणे की रेणु और शाहीन की टिप्पणियों को रोकने की नीयत से महाराष्ट्र सरकार और पुलिस ने उनकी गिरफ्तारियां कीं। दबाव में उन्होंने अपना फेसबुक प्रोफाइल कुछ अस्थायी तौर पर मुल्तवी भी कर दिया, लेकिन बदले में क्या हुआ, वे टिप्पणियां लाखों लोगों तक सात समंदर पार तक जा पहुंचीं। फिर उसके बाद क्या हुआ, जिस कमेंट की अनदेखी की जा सकती थी और अनदेखी के जरिये उसे अनाम रह जाने दिया जा सकता था, उसे सरकारी तंत्र की एक कोशिश ने और ज्यादा प्रचारित कर दिया। दरअसल, आज का सत्ता तंत्र और उसे चलाने वाले लोग तुलसीदास की पुरानी उक्ति को भूलते जा रहे हैं। तुलसीदास तो बहुत पहले ही निंदक नियरे रखने का सुझाव दुनिया को दे गए थे, लेकिन राजनीति की दुनिया में निंदकों को लगातार दूर रखने और मौका पड़े तो निबटाने की ही परंपरा विकसित होती चली गई। इस दौर में अपने लोकतांत्रिक समाज में भी लोग कम से कम रसूखदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जुबान खोलने से बचते थे। ऐसा नहीं कि भारतीय राजनीति की बुनियाद निंदकों को निबटाने की ही क्रूर कारसाजी के साथ रखी गई थी। देश के पहले उप-प्रधानमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बाकायदा अपने सचिवों से कह रखा था कि उनको अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से लोगों के सामने रखना चाहिए। भले ही उनके विचार अन्य लोगों से नहीं मिलते हों। लेकिन लोकतांत्रिक सत्ता का चरित्र ऐसा विकसित हुआ कि निंदकों की कौन कहे, आजाद खयाल रखने वाले लोगों की आजाद खयाली को ही रोकने की कोशिश की जाने लगी। इसमें यस मिनिस्टर कहने वाली ब्रिटिश परिपाटी से विकसित हुई नौकरशाही तो जैसे राजनीति की पूरक की भूमिका निभाने लगी। अव्वल तो उसे राजनीति को भी अपने आचरण से एक हद तक मर्यादित रहने की सीख देने की कोशिश करनी चाहिए थी तो वह राजनीति की गुलाम बन गई। आजाद खयाली पर नकेल लोकनायक जयप्रकाश नारायण नौकरशाही की जैसी बहे बयार, तैसी पीठ कीजै की इस अवसरवादी चापलूसी से परिचित थे। यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल से पहले नौकरशाही से राजनीतिक तंत्र के असंवैधानिक आदेश न मानने की अपील भी की थी। तब उन्हें अराजकतावादी कहकर उनकी आलोचना भी की गई थी। बहरहाल, आज सोशल मीडिया के आजाद मंचों पर हो रही आजाद खयाली को लेकर जिस तरह प्रशासनिक तंत्र और पुलिस के लोग बढ़-चढ़कर कार्रवाइयां कर रहे हैं, दरअसल वह कानून से कहीं ज्यादा नैतिकता का मामला है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या शाहीन और रेणु के खिलाफ उद्धव ठाकरे या शिवसेना ने मामला दर्ज कराया था कि उनके खिलाफ कार्रवाई की गई। अंबिकेश महापात्र के मामले में भी ममता बनर्जी से कहीं ज्यादा पश्चिम बंगाल पुलिस ने खुद आगे बढ़कर कार्रवाई की थी। हां, इस बीच पुडुचेरी के एक शख्स के खिलाफ पी चिदंबरम के बेटे के खिलाफ कमेंट के लिए मामला जरूर झेलना पड़ा है। जाहिर है, राजनीतिक तंत्र की शह और कई बार बिना शह के ही नैतिकता और मर्यादा से बाहर जाकर पुलिस और प्रशासन ने कदम उठाए और अब इस का ही नतीजा है कि अब सुप्रीम कोर्ट भी इस पर सवाल उठाने लगा है। बेशक, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी दूध के धुले नहीं हैं। ब्रिटेन में पिछले साल हुए दंगों के बाद बनी जांच समिति ने दंगों में सोशल मीडिया की भूमिका की भी जांच की थी और उसे भी दोषी पाया था। आफ्टर दि रायट्स नाम से तैयार इस रिपोर्ट में सोशल मीडिया को तब के दंगों के लिए जिम्मेदार बताया गया था, लेकिन इसके लिए कारण जिम्मेदार थे, वे माध्यम (सोशल मीडिया) खुद में नहीं। लगातार तकनीकी क्रांति के साथ कदमताल करते अपने देश में हम विकास की धारा भी बहाना चाहते हैं और कानूनी शिकंजा 18वीं सदी का रखना चाहते हैं। अब जरूरत इस बात की है कि बदलते दौर में तकनीक से कदमताल की जाए और कारणों को ज्यादा जिम्मेदार समझा जाए, माध्यम को नहीं। इसी दिशा में कानून को भी प्रभावी बनाया जाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page-9(ehMh;k)



Thursday, November 1, 2012

न्यूज चैनलों का अफसाना


अभिषेक उपाध्याय वरिष्ठ टीवी पत्रकार प्रभात शुंगलू ने कुछ ऐसा कर दिया है, जिस पर यकीन करना जितना सुखद है, उतना ही मुश्किल भी। उन्होंने एक ऐसे दौर पर कलम चलाने का दुस्साहस किया है, जब टीवी पत्रकारिता पर आरोप गहराते जा रहे हैं। फिर भी दूसरे की जवाबदेही तय करने और उनमें कमियां ढूंढ़ने में जुटे इस आत्ममुग्ध समुदाय को अपनी गिरेबान में झांकने से एक विचित्र किस्म का संकोच और एलर्जी हो रही है। प्रभात ने न्यूजरूम लाइव के जरिये टीवी न्यूज चैनलों की अंधेरी, अवास्तविक और रहस्यमय दुनिया को अपने उपन्यास का विषय बनाया है। न्यूजरूम लाइव पढ़ते हुए ऐसा लगता है, मानो हम यशपाल की कालजयी कहानी पर्दा के चौधरी पीरबक्श से रूबरू हो रहे हों, जिसने टाट के एक मैले-कुचैले और फटे-पुराने पर्दे के पीछे अपने पूरे कुनबे की आबरू छुपा रखी थी। मगर पीरबक्श की लाख कोशिशों के बावजूद एक दिन यह पर्दा गिर ही जाता है। प्रभात का उपन्यास न्यूजरूम लाइव यों तो डीएनएन नाम के एक काल्पनिक न्यूज चैनल के न्यूजरूम से शरू होता है, मगर कुछ ही देर में तमाम काल्पनिक किरदारों से गुजरता हुआ न सिर्फ हमारी अपनी वास्तविक दुनिया में प्रवेश कर जाता है, बल्कि हम इसे लाइन-दर-लाइन जीने पर मजबूर हो जाते हैं। शायद यही प्रभात की इस कोशिश की बेहद बारीक, सधी हुई और अद्भुत सफलता है, जो न्यूजरूम लाइव की प्रवाहमयी भाषा के साथ मिलकर कुछ अथरें में मीडिया के प्रस्थान बिंदु सी प्रतीत होती है। प्रभात टीवी की दुनिया के उस दौर के पत्रकार हैं, जब 24 घंटे के न्यूज चैनलों ने आंख खोलने के लिए आंख मलने की प्रक्रिया शुरू की थी। देश के पहले न्यूज चैनल बीआईटीवी से शुरू हुए प्रभात के टीवी पत्रकार के सफर में कई बड़े मीडिया हाउसे महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में रहे। इस दौरान प्रभात ने जो देखा, सुना, भोगा, जिया और जिसके साक्षी रहे, उन्हें पूरी बेबाकी और ईमानदारी के साथ परत दर परत कहानी में पिरोकर रख दिया है। मशहूर कलमकार दुष्यंत कुमार की पक्तियां हैं - गजब है सच को सच नहीं कहते, कुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं। दुष्यंत 1933 में जन्मे थे और महज 42 साल की उम्र में 1975 में दुनिया से रुख्सत हो गए। उस वक्त टीवी न्यूज की दुनिया महज दूरदर्शन तक सीमित थी। मगर ऐसा लगता है कि शायद दुष्यंत की कलम को ऐसे तमाम झूठे सचों का बाखूबी अंदाजा था। प्रभात भी इलाहाबाद से हैं और दुष्यंत से खासे प्रभावित भी दिखते हैं। यह अनायास ही नहीं है कि टीवी न्यूज की विसंगतियों से लड़ता हुआ प्रभात के उपन्यास न्यूजरूम लाइव का किरदार पुष्कर बात-बात पर दुष्यंत की ही पंक्तियों का हवाला देता है। न्यूजरूम में जड़ें जमा चुके विचारों के भीषण अलोकतांत्रीकरण से लड़ता पुष्कर एक मौके पर अहंकारी सत्ता और चाटुकार दरबारियों के आघातों से बुरी तरह विचलित पत्रकार सबीर को दिलासा देते हुए कवि दुष्यंत का ही सहारा लेता है - ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा/ मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा। आशावादिता से भरी दुष्यंत की ये लाइनें असल में इस पूरे उपन्यास का सबसे मजबूत पहलू पेश करती हैं। तमाम विसंगतियों, कुचक्रों और झूठ के गिरते-उठते लबादों से गुजरता यह उपन्यास अपने हर पड़ाव में उम्मीद की चिंगारी जलाए रखता है, जो आखिर में लपट बनकर उठती दिखाई देती है। न्यूजरूम के कुचक्रों से दुर्घटनाग्रस्त पुष्कर की जीवन-संगिनी मंदाकिनी की अपने बलबूते पर लड़ी लड़ाई ऐसी ही एक उठती हुई लपट की जोरदार प्रतिध्वनि है। उपन्यास में खोजी पत्रकार सत्येंद्र पर चैनल के कर्ता-धर्ताओं की कॉरपोरेट व‌र्ल्ड के साथ सांठगांठ का प्रहार और उसकी पुत्री रितिका का प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस साजिश को बेनकाब करना उम्मीद की इस धधकती हुई लौ में घी का काम करता है। न्यूजरूम लाइव की एक बड़ी खासियत यह है कि उपन्यास होकर भी यह कहीं भी यथार्थ की जमीन को छोड़ता नजर नहीं आता। यही वजह है कि न्यूजरूम के सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोग अपनी कारगुजारियों के पर्दाफाश हो जाने के बावजूद हाशिये पर खड़े नजर नहीं आते हैं, बल्कि वे उसी सिस्टम में अच्छे पैसे और पदों के साथ पनाह पा जाते हैं, जिसकी हिमायत वे पत्रकारिता की कीमत पर करते आए थे। न्यूजरूम लाइव जितना पत्रकारिता और कॉरपोरेट जगत के घालमेल पर चोट करता है, उतना ही निहित स्वार्र्थो के चलते राजनीतिक गलियारों में पनाह लेते पत्रकारिता के कथित नुमाइंदों को भी बेनकाब करता है। न्यूजरूम लाइव टीवी के भीतर की संस्कृति को एक रोचक अफसानानिगार शैली में बेहद ही बेबाक और खांटी तरीके से बयां करता है। उपन्यास अंग्रेजी में है, लेकिन इसकी रोचक शैली, प्रवाह और एक के बाद दूसरी दिलचस्प घटनाओं की गुदगुदाती दुनिया इसे भाषा की सीमाओं से बहुत आगे ले जाती है। इसमें किरदारों के होठों पर तैरती वे भद्दी और असभ्य गालियां भी हैं, जो कंुठाओं को धकेलकर न्यूजरूम की दीवारों पर सिर मारती हैं। साथ ही सांसों की धौंकनी पर चस्पां होती वे तितलियां भी हैं, जो गाहे-बगाहे हवाओं का रुख चीरकर परों के जरिये आजाद होने की कोशिश करती हैं। संक्षेप में कहें तो न्यूजरूम लाइव के इंद्रधनुष में कई रंग हैं, कई राग हैं। कुछ दिखते हैं, तो कुछ ढूंढ़ने पड़ते हैं, मगर इन सबके बीच ईमानदारी की एक गाढ़ी धानी सी परत है, जो अपनी रंगत और चमक में सभी रंगों, सभी रागों पर भारी पड़ती है।

Dainik Jagran National Edition 28-10-2012 Media Page -9