Wednesday, December 28, 2011

मीडिया और सामाजिक परिवर्तन

सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में पृथ्वी का दायरा सिमटता-सा नजर आ रहा है। आज वि के किसी भी कोने में घटित घटना हम घर में बैठे-बैठे ही देख रहे हैं। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विचारों का विनिमय इस तरह हो रहा है जैसे हम परिवार के लोगों से करते हैं। वैीकरण की प्रक्रिया का सारा श्रेय जनसंचार माध्यम को जाता है जो सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं व रूढ़ियों की जटिलताओं को क्षीण करते हुए मिली-जुली संस्कृति एवं नए मानव मूल्यों की स्थापना कर रहा है। आज हम जिस सामाजिक परिवर्तन का दर्शन कर रहे हैं उसका सबसे अधिक श्रेय मीडिया को जाता है। लोगों की जीवनशैली में जिस तरह से परिवर्तन हुआ है उससे अमीरी और गरीबी की खाई पटती नजर आ रही है। व्यक्ति भले ही अभावों में जीवनयापन कर रहा हो लेकिन वह जीवन के अच्छे पहलू को समझ रहा है और उसको प्राप्त करने का प्रयास भी कर रहा है। दैनिक उपयोग की वस्तुओं का जिस तरह से सामान्यीकरण हुआ है उसमें महत्वपूर्ण योगदान जनसंचार माध्यमों का है। आज योग और आयुव्रेदिक उपचार से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है, अगर मीडिया इतनी प्रभावी न होती तो शायद सूचना इतनी तीव्र गति से नहीं पहुंचाई जा सकती थी। मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में समाज को मजबूत दिशा दे रहा है। लोकहित की रक्षा के लिए सरकार पर नियंतण्ररखते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करने का कार्य मीडिया के द्वारा हो रहा है। वर्तमान समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो रहा है जिससे कृषि उत्पाद दर और परिवार कल्याण को प्रोत्साहन मिल रहा है। खेल का मैदान भी मीडिया से अछूता नहीं है। इसके द्वारा खेलों की जानकारी के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय भावना का विकास हो रहा है। महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता मीडिया की ही देन है। भूमंडलीकरण के इस दौर में पिछले एक दशक से जिस उपभोक्तावादी संस्कृति ने जन्म लिया है उसका प्रभाव पूरे वि पर देखने को मिल रहा है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह सका है। न्यूज चैनल उन्हीं तथ्यों को देखने और दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं जो दर्शकों को ज्यादा लुभावने लग सकते हैं, भले ही उनके दिलो-दिमाग पर इसका कैसा भी असर पड़े। आरुषि हत्याकांड इसका एक उदाहरण भर है। जहां देश की अस्सी प्रतिशत जनता मीडिया द्वारा प्रस्तुत बात को आशीर्वचन समझती हो, ऐसे में उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना मीडिया का अपने कार्य और सिद्धांत से भटकना माना जाएगा। मीडिया समाज को दर्पण दिखाने का कार्य कर रहा है, लेकिन उस दर्पण में लोगों को अपना प्रतिरूप आदर्श लग रहा है। समाज का प्रतिबिंब देख, बदलने के स्थान पर लोग उसी में ढलते जा रहे हैं। यह मीडिया के लिए विचारणीय प्रश्न है। अगर एक दशक के सिनेमा पर विहंगम दृष्टि डालें तो बीस फीसद फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के चरित्र को दर्शाया गया है। लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के भोंडे स्वरूप को ही प्रस्तुत किया गया है। उसी की नकल स्कूल और कॉलेजों में शुरू हो गई है। इंटरनेट समाज के लिए वरदान है, लेकिन कुछ अश्लील वेबसाइट्स से युवा पीढ़ी गुमराह भी हो रही है। इस पर भी विचार की आवश्यकता है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खबर को मसालेदार और चटपटा बनाने के लिए सचाई को तोड़- मरोड़कर प्रस्तुत करना, अश्लीलता को परोसना, एक ही खबर को पूरे दिन या कई दिनों तक प्रस्तुत करना न्यूज चैनलों के लिए आम बात है। टीवी धारावाहिकों को इतना लंबा बनाया जा रहा है कि वे अंतहीन मालूम पड़ने लगते हैं। कुछ धारावाहिकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी पाश्चात्य चमकद मक से ओत-प्रोत हैं जिससे हमारी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास की जड़ें खोखली होती जा रही हैं जिसके कारण हम अपने आदर्श, मर्यादा, राष्ट्रप्रेम, समाज और संस्कृति से कटते जा रहे हैं। विज्ञापनों की अधिकता भी मीडिया के सकारात्मक पहलू को प्रभावित कर रही है। सच है कि विज्ञापनों के माध्यम से ही मीडिया को अर्थ की प्राप्ति होती है पर इतना ही मीडिया का उद्देश्य तो नहीं हो सकता। तीस मिनट के कार्यक्रम में सत्रह से अट्ठारह मिनट विज्ञापन में ही जाते हैं और उसी तीस मिनट के कार्यक्रम में एक ही विज्ञापन को चार से पांच बार दिखाया जाता है। इससे समय तो बर्बाद होता ही है बाजारवाद को भी बढ़ावा मिलता है। समय के साथ-साथ विज्ञापन की गुणवत्ता को भी ध्यान में रखना मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। समाचारपत्र भी इस प्रभाव से नहीं बच पाए हैं। जिस नीमहकीम को डॉक्टरों ने खारिज कर रखा है उसका भी विज्ञापन उच्च गुणवत्ता के मानक के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। लोकतंत्र में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के समुचित ढंग से कार्य न करने के कारण लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आज का सबसे बड़ा सरोकार है नकारात्मकता भूमिका से सकारात्मक भूमिका में परिवर्तन। मीडिया की भूमिका जितनी सशक्त होगी, उतना ही अधिक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन होगा।

Monday, December 19, 2011

सोशल मीडिया पर हिट, तो काम में फिट


फेसबुक, ट्विटर, ऑरकुट पर अगर अब तक अकाउंट नहीं खोला है, तो जल्द खोल लें। संभव है कि किसी कंपनी से नौकरी का शानदार ऑफर यहीं से आपको आ जाए। वजह यह है कि देश में तमाम कंपनियां अब नियुक्ति के लिए सोशल मीडिया को खंगाल रही हैं। कस्टमर रिलेशन (ग्राहकों के साथ संबंध) सुधारने के लिए भी वे इन पर सक्रिय हैं। सलाहकार फर्म केपीएमजी के सर्वे के मुताबिक देश में कंपनियों ने नियुक्ति के लिए नया पैमाना बनाया है। इसमें सोशल मीडिया पर नेटवर्किंग आपकी खूबी मानी जाती है। यानी सोशल मीडिया पर हिट हैं, तो काम के लिए भी फिट हैं। खास बात यह है कि भारत, चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं विकसित देशों के मुकाबले नियुक्ति के लिए सोशल मीडिया को अधिक वरीयता दे रही हैं। यह चलन तेजी से बढ़ा है। यह सर्वे दुनिया भर में करीब 4 हजार नियोक्ताओं और प्रबंधकों के बीच किया गया। सर्वे के मुताबिक, भारत में करीब 70 प्रतिशत कंपनियां सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं। चीन में यह संख्या और भी अधिक (88 प्रतिशत) है। ब्राजील में भी 68 प्रतिशत कंपनियां अपने ग्राहकों तक पहुंचने और कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करती हैं। इसके उलट विकसित देशों में इनके लिए सोशल मीडिया का उपयोग काफी कम है। जापान में 27, ऑस्ट्रेलिया में 41.6, स्वीडन में 41.7, जर्मनी में 43, ब्रिटेन में 48.2 और कनाडा में 51 प्रतिशत कंपनियां कर्मचारियों को रखने के लिए इस प्लेटफॉर्म को खंगालती हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि सोशल मीडिया पर किसी तरह की रोक लगाने की कोशिश बेकार है। अंत में इसका खामियाजा कंपनी को ही भुगतना पड़ता है। किसी न किसी तरह से कर्मचारी सोशल मीडिया को इस्तेमाल कर ही लेते हैं। इसके लिए वे अपने ऑफिस उपकरणों में तमाम तरह के बदलावों से भी परहेज नहीं करते।

Friday, December 16, 2011

मायावी दुनिया रचता न्यू मीडिया

न्यू मीडिया, एक लहर के समान दुनिया भर में किसी न किसी कारण लगातार चर्चा में रह रहा है। अपने यहां अभी यह केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइटों को अपनी विषयवस्तु पर छन्नी लगाकर उनकी दृष्टि में जो थोथा है उसे न आने देने और आ गया तो हटा देने की इच्छा जताने के कारण चर्चा में है। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू ने इसका समर्थन किया है। काटजू ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रिंट मीडिया के समान इलेक्ट्रॉनिक एवं समाचार से जुड़ी वेबसाइट्स को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाने का अनुरोध किया है। गरमागरम बहस जारी है। जो अपने मातहत काम करने वालों को नियंतण्रमें रखने की सारी जुगत करते रहते हैं वे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शब्दवीर बने हैं। इसके पूर्व भारत सहित दुनिया भर में पिछले दोढार्इ सालों में जो आंदोलन हुए, उसमें भूमिका को लेकर तो न्यू मीडिया लगातार चर्चा में है ही। अगर न्यू मीडिया नहीं होता तो ये आंदोलन नहीं होते, ऐसा कहने वालों की कोई कमी नहीं है। दुनिया के समाजशास्त्रियों, भविष्यवेत्ताओं के एक वर्ग ने इसे डिजिटल डेमोक्रेसी नाम दिया है। इसके राजनीतिक प्रक्रिया संबंधी प्रभावों पर विस्तृत अध्ययन हो रहे हैं, शोध प्रबंध आ रहे हैं। इन अध्ययनों का सार यही है कि यह राजनीति या लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन नहीं ला सकता। डिजिटल तकनीकों तक पहुंच रखने वाले सक्षम लोग , वे चाहे राजनीति के अंदर के हों या बाहर के- इसका उपयोग करते रहेंगे, पर शक्ति संतुलन एवं राजनीतिक संरचना नहीं बदलेगी। न्यू मीडिया की आंदोलन में भूमिका की चर्चा ईरान और अरब की क्रांतियों के संदर्भ में काफी हुई है। 2009 को जब ईरान के चुनाव परिणाम आए, भारी संख्या में ईरानी सड़क पर उतरे और विरोध किया। पश्चिम ने इसका श्रेय फेसबुक, यू ट्यूब और ट्वीटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को दिया। पश्चिमी मीडिया में इसे ट्वीटर रिवोल्यूशन ही कहा गया। अमेरिका के सुरक्षा सलाहकार ने कहा कि ट्वीटर को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना चाहिए क्योंकि उसके बिना ईरान के लोग लोकतंत्र तथा आजादी के लिए खड़े नहीं होते। लेकिन ईरान में ट्वीटर का अस्तित्व नहीं था। ईरान के एक लोकप्रिय ब्लॉगरअलीरेजा रेजेई, जिन्होंने स्वयं विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था- कहते हैं कि न्यू मीडिया ने न प्रदर्शनकारियों को मोबलाइज किया और न उनकी हौसला अफजाई की। ईरान में जो कुछ हुआ, वह जन आंदोलन था जो वास्तविक जनों द्वारा किया गया था। इनमें से अनेक न इंटरनेट और न्यू मीडिया का प्रयोग करते हैं और न उन तक उनकी पहुंच है। हां, मोबाइल फोन पर संदेशों ने इसमें योगदान दिया। वस्तुत: प्रदर्शन को कुचलने के प्रयासों ने इसे ज्यादा तीखा बना दिया। आंदोलन को ताकत से दबाने की कोशिश हुई तो लोगों ने सेल फोन से हिंसा की वीडियोग्राफी आरंभ कर दी। ये वीडियो यू ट्यूब पर अपलोड हुए और वहां से ट्वीटर एवं फेसबुक पर शेयर किए गए। लोगों ने उन वीडियोज को देखा, किंतु यह बाहर के देशों तक जानकारी पहुंचाने के ज्यादा काम आया। इरानियन ब्लॉगर एवं इंटरनेट एक्टिविस्ट वाहिद ऑन लाइन ने कहा कि ट्वीटर की भूमिका के बारे में अतिरंजना ज्यादा है। चूंकि बाहरी दुनिया उससे ईरान की घटनाओं को देख रही थी, इसलिए लगा कि विद्रोह में उसकी भूमिका है। अरब जगत में ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया में जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ, उसमें न्यू मीडिया की भूमिका पर अध्ययन की जरूरत है। लेकिन न्यू मीडिया की भूमिका ईरान से बहुत ज्यादा इन देशों में हो ऐसा लगता नहीं। ट्वीट्स पूरी दुनिया में है, इसलिए मीडिया को इसका ध्यान आता है एवं यह मीडिया से जुड़े लोगोें के बीच पूरे वि में फैल जाता है। फेसबुक की भी यही स्थिति है। तहरीर चौक के जमावड़े के दौरान ट्वीटर, फेसबुक पर लोग सक्रिय थे लेकिन आंदोलन सड़कों पर हुआ। न्यू मीडिया का चरित्र ही सड़कों पर आंदोलन के विपरीत है। फेसबुक पर ज्यादा व्यस्त होने वाले यथार्थ से वचरुअल र्वल्ड में सिमट जाते हैं। आंदोलन ऑनलाइन, वचरुअल र्वल्ड या साइबर दुनिया में नहीं हो सकता। दुनिया के अनजाने लोग स्वच्छंद सोच को अभिव्यक्त कर यदि क्रांतियां करने लगें तो आंदोलनों के लिए इतने परिश्रम की आवश्यकता ही नहीं। आधुनिक पत्रकारिता और मीडिया की पैदाइश बाजार पूंजीवाद के विचार से विकसित औद्योगिक क्रांति से हुई है। न्यू मीडिया भी पूंजीवाद के प्रचंड रूप बाजार पूंजीवाद की पैदाइश है। पुरानी गाथाओं में दैत्यों-राक्षसों द्वारा अत्यधिक भक्षण की कथाओं को याद करिए तो पूंजीवाद के ज्यादातर यंत्र वैसे ही नजर आएंगे। इसमें ऐसा कोई यंत्र नहीं जो बिना ऊर्जा के चलता हो, जिसे बनाने में प्रकृति की अनमोल धरोहर खर्च न हुई हो, जिससे स्वास्थ्य एवं प्रकृति को कोई हानि न होती हो। एक बड़े विचार और व्यवहार में पूंजीवाद और उसकी अनुचर बनी औद्योगिक और तकनीकी क्रांति का बड़ा राक्षस और न्यू मीडिया के सारे यंत्र जो हमारे हाथों में हैं उसके ही वंशज हैं। न्यू मीडिया के रूप में हर सक्षम हाथ में छोटा राक्षस है जो मायावी संसार रचने की विनाशलीला मचा रहा है। एक बड़े वर्ग को इसके विनाश में आनंदातिरेक की अनुभूति हो रही है! न्यू मीडिया का संस्कार नियंतण्रऔर संतुलन के विपरीत है। हालांकि संस्कार से संयमी कई व्यक्ति किसी साइट पर अच्छी बातें लिख रहे हैं या कुछ अच्छा करने की प्रेरणा भी दे रहे हैं लेकिन ऐसे लोग अल्पसंख्यक हैं। न्यू मीडिया में सबसे ज्यादा स्पेस काम क्रीड़ा यानी पोर्न साइटों के पास है और सर्वाधिक विजिटर भी इनके ही हैं। न्यू मीडिया के माध्यम से समाज की सम्पूर्ण निजता का चीरहरण हो रहा है। सोशल नेटवर्किंग नाम से ऐसा लगता है जैसे समाज के बीच संर्पकों का जाल बुना जा रहा हो। जिस देश में व्यक्ति को सम्पूर्ण सृष्टि से जोड़ने की जीवन पण्राली स्थापित की गई थी वहां तथाकथित सोशल नेटवर्किंग दैत्य के रूप में उस पण्राली को ही नष्ट कर रहा है। पूरा न्यू मीडिया अपने-आपमें न सकारात्मक चरित्र का है और न सही दिशा में गमन के लिए प्रेरित करने वाला साधन, बल्कि अपनी उत्पत्ति और संस्कार दोनों में यह उसके विपरीत ले जाने वाला है। ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर, मोबाइल संदेश, यू ट्यूब आदि को नियंत्रित या संतुलित करने की कोशिश सफल नहीं हो सकती। दैत्य की तरह इसका अंत करना होगा। किंतु मरने तक यह मानवीय सभ्यता के न जाने कितने पहलुओं को नष्ट कर अराजकताओं का जाल खड़ा कर चुका होगा।

Monday, November 21, 2011

हेगड़े ने भी मीडिया को नियामक तंत्र के दायरे में लाने की वकालत की


कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने भी मीडिया को नियामक तंत्र के दायरे में लाने की वकालत की है। उन्होंने मीडिया के कामकाज पर कुछ हद तक कानूनी नियंत्रण का पक्ष लिया है। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी भी इसकी हिमायत कर चुके हैं। पेड न्यूज और मीडिया को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने जैसी वजहें गिनाते हुए हुए उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने इसकी हिमायत की। उन्होंने कहा कि झूठी खबरों पर लगाम लगाने के उद्देश्य से भी मीडियाकर्मियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। हेगड़े ने कहा कि ऐसी कई घटनाएं हैं जिनमें मीडिया का कुछ छिपे हुए हितों के लिए इस्तेमाल किया गया। उन्होंने पूर्व लोकायुक्त एसपी मधुकर शेट्टी के बयान का जिक्र किया जिन्होंने कहा था कि कर्नाटक में भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। हेगड़े ने सवाल उठाया कि इस खबर को चार महीने बाद जारी करना क्या ईमानदार पत्रकारिता है? आप अचानक ही किसी कहानी को प्रकाशित कर देते हैं, जब वह कुछ लोगों के लिए काम की हो। अगर यही उद्देश्य है, तो क्या यह सही पत्रकारिता है।

Monday, October 31, 2011

इलेक्ट्रानिक मीडिया भी प्रेस परिषद के दायरे में हो : काटजू



भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उन्हें सुझाव दिया है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी परिषद के दायरे में लाया जाना चाहिए और निकाय को अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए। जस्टिस काटजू ने एक टीवी कार्यक्रम में कहा, ‘मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाया जाना चाहिए, इसे मीडिया परिषद नाम दिया जाना चाहिए व इसे अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए। ऐसी शक्तियों का चरम परिस्थितियों में इस्तेमाल होगा।उन्होंने कहा कि उन्हें उनका लिखा पत्र प्राप्त हो जाने और उस पर विचार किए जानेका प्रधानमंत्री की ओर से खत मिला है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कहा कि उन्होंने लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज से भी मुलाकात की, जिन्होंने उन्हें बताया कि इस बारे में संभवत: आम सहमतिबन जाएगी। एक सवाल के जवाब में काटजू ने कहा, ‘मैं सरकारी विज्ञापन रोकने की शक्ति चाहता हूं। अगर कोई मीडिया काफी निंदनीय तरीके से काम करे तो मैं एक निश्चित अवधि के लिए उसके लाइसेंस को निलंबित करने और दंड लगाने का अधिकार चाहता हूं।
उन्होंने कहा कि इन सभी उपायों का इस्तेमाल चरम परिस्थितियों में ही होगा। इस सवाल पर कि क्या इन उपायों से मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में नहीं पड़ेगी, उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र में हर कोई जवाबदेह है। कोई भी स्वतंत्रता निरंकुश नहीं होती। हर आजादी के साथ जायज पाबंदियां भी होती हैं। मैं जवाबदेह हूं, आप भी जवाबदेह हैं। हम जनता के प्रति जवाबदेह हैं।उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि टीवी चैनलों पर होने वाली बहस उथली होती हैं और परिचर्चा के वक्ताओं के बीच कोई अनुशासन नहीं होता। उन्होंने कहा, ‘यह कोई चीखने-चिल्लाने की प्रतियोगिता नहीं है।उन्होंने तुलसीदास कृत रामचरितमानसमें लिखी एक पंक्ति भय बिन होय न प्रीतका हवाला देते हुए कहा, ‘मीडिया में कुछ भय का भाव होना चाहिए।उन्होंने कहा कि मीडिया के प्रति उनके विचार अच्छे नहीं हैं। मीडिया को जनहित में काम करना चाहिए। वे जनहित में काम नहीं कर रहे हैं। कभी-कभी वे जनविरोधी तरीके से काम करते हैं। भारतीय मीडिया भी अक्सर जनविरोधी भूमिका निभाता है। वह अक्सर जनता का ध्यान उन वास्तविक समस्याओं से हटा देता है जो बुनियादी रूप से आर्थिक समस्याएं होती हैं।काटजू ने कहा, ‘80 फीसद लोग अत्यधिक गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और स्वास्थ्य सेवा संबंधी समस्याओं के साथ जी रहे हैं। आप (मीडिया) इन समस्याओं से उनका ध्यान बंटा देते हैं। आप फिल्मी सितारों और फैशन परेड को इस तरह पेश करते हैं, जैसे यही जनता की समस्या हो।..क्रि केट जनता के लिए नशे की तरह है। रोमन शासक कहा करते थे कि अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दीजिए। भारत में जनता को अगर आप रोटी नहीं दे सकते तो उसे क्रि केट दीजिए।
काटजू ने कहा कि जहां कहीं भी बम विस्फोट होता है, कुछ ही घंटों के भीतर हर चैनल यह दिखाने लग जाता है कि उसे इंडियन मुजाहिदीन या जैश-ए-मोहम्मद या हरकत-उल-अंसार या अन्य किसी मुस्लिम नाम से ई-मेल या एसएमएस आया है, जिसमें जिम्मेदारी ली गई है। आप देख सकते हैं कि कोई भी शरारती व्यक्ति ई-मेल या एसएमएस भेज सकता है लेकिन उसे टीवी चैनल पर दिखाकर आप कपटपूण तरीके से यह संदेश दे रहे हैं कि सभी मुस्लिम आतंकवादी हैं और बम फेंकने वाले हैं और आप मुस्लिमों को बुरा बता रहे हैं। सभी समुदायों में 99 फीसदी लोग अच्छे होते हैं।
उन्होंने कहा कि भारत सामंती कृषि समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज बनने के परिवर्तनशील दौर में है। यह इतिहास का सबसे दर्दनाक और दुखदायी दौर है। जब यूरोप इस दौर से गुजर रहा था तो वहां मीडिया ने बड़ी भूमिका अदा की थी। यूरोप में रोउसेयू, वाल्टेयर, थॉमस पेन, जूनियस, डीडेरॉट जैसे महान लेखकों ने मदद की। ..यहां मीडिया अंधविास और ज्योतिष को बढ़ावा देता है। देश में 90 फीसद लोग मानसिक रूप से पिछड़े हुए और जातिवाद, साम्प्रदायिकता व अंधविास आदि में डूबे हुए हैं।काटजू ने कहा कि जनता को आधुनिक वैज्ञानिक विचारों की जरूरत है, लेकिन इसके उलट हो रहा है। उदाहरण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘एक टीवी चैनल पर लगातार दो दिन हाईकोर्ट के एक जज की तस्वीर को एक बदमाश अपराधी की तस्वीर के साथ दिखाया जाता रहा।

Friday, September 30, 2011

अंग्रेजों के जमाने के प्रेस कानून में होगा बदलाव


प्रणव और चिदंबरम के बीच सुलह होने पर कैबिनेट की बैठक आज
गैर कानूनी तरीके से अखबार और पत्रिकाएं छापने या नियमों का पालन न करने पर 50 हजार रुपए तक जुर्माना और 60 दिनों तक प्रकाशन पर प्रतिबंध लग सकता है। परमाणु दुर्घटना होने पर हर्जाने की राशि बढ़ाने का भी प्रस्ताव है। उत्खनन के कारण प्रभावित होने वाले आदिवासियों को 26 प्रतिशत रायल्टी देने और अवैध खनन रोकने के सख्ती से कानून लागू किया जाए। इन सभी प्रस्तावों पर शुक्रवार को होने वाली कैबिनेट बैठक में मुहर लगने की संभावना है। करीब 15 दिन के लम्बे अंतराल और यूपीए सरकार को दो वरिष्ठ मंत्रियों के बीच के मनमुटाव में दिखावटी दूरी के बाद प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को कैबिनेट की बैठक बुलाई है। इस बीच बैठक के लिए एजेंड़ों का ढेर लगा है। इस बैठक में 22 नए प्रस्ताव और कुछ पिछली बैठकों के छूटे हुए प्रस्तावों पर फैसला होगा। बैठक में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विशेष प्रस्ताव पर फैसला होगा। मसलन स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत सभी केंद्रीय योजनाओं के लिए दवाई और अन्य सामग्री की खरीद के लिए एक ही एजेंसी केंद्रीय खरीद एजेंसी का गठन शामिल है। अवैध खनन कार्य रोक ने के लिए मिनरल एडं माइन्स अधिनियम में बदलाव किया जाएगा। कैबिनेट की इस बैठक में सरकार ऐसे प्रस्ताव पेश कर रही है जो पहले भी कैबिनेट से पारित हो गये थे लेकिन विवाद के कारण उनमें भी फेरबदल किया गया है। इनमें एक है अंग्रेजों के जमाने का प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण कानून 1867। पिछले साल सरकार ने इसमें संशोधन किया था और कैबिनेट ने पारित कर दिया था लेकिन मीडिया उद्योग के विरोध के कारण सरकार को उसे वापस लेना पड़ा और फिर उसमें संशोधन करना पड़ा। नये संशोधन के मुताबिक बिना अनुमति के अखबार, मैगजीन, पम्फलेट किताबें छापने पर पहली बार में 5 हजार, दूसरी बार में 20 हजार और तीसरी बार में 50 हजार रुपये जुर्माना और 60 दिनों तक प्रकाशन का बंद करने का प्रस्ताव है। नये प्रस्ताव में अखबार या मैगजीन के टाइटल के पंजीकरण को ज्यादा स्पष्ट किया जा रहा है। विदेशी अखबारों या मैगजीन के कंटेंट भी अनुमति से ज्यादा छापने पर सजा होगी। संशोधन के तहत देशद्रोह, आतंकवाद आदि कायरे में लिप्त लोगों को अखबार निकालने या पुस्तक लिखने की अनुमति नहीं होगी। शीषर्क मिलने के बाद अखबार का प्रकाशन एक साल के भीतर करना होगा नहीं तो टाइटल छीनने का प्रावधान किया जा रहा है। समाचारपत्र, पत्र पत्रिका एवं न्यूजलेटर आदि जैसी कई नयी परिभाषाओं को शामिल किया गया है। प्रस्तावित विधान के तहत आतंकवादी कार्रवाइयों या राष्ट्र की सुरक्षा के खिलाफ किये गये किसी कार्य के लिए दोषी व्यक्तियों को कोई भी प्रकाशन लाने की इजाजत नहीं दी जायेगी। उन्होंने बताया कि पुराने कानून में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं था। यह व्यापक विधेयक जल्द ही संसद में लाया जाएगा। यह व्यापक विधान शीषर्क की जांच पड़ताल, अखबारों के इंटरनेट संस्करणों सहित प्रकाशनों की परिभाषा और अगंभीर प्रकाशकों को हतोत्साहित करने के लिए शीषर्क को रोके रखने पर रोक और विदेशी समाचार सामग्री और विदेशी निवेश की सीमा जैसे मुद्दों से निपटेगा। आदिवासियों को 26 प्रतिशत रायल्टी देने का प्रस्ताव: इस विधेयक में कोयला खनन कंपनियों के लिए परियोजना क्षेत्र के प्रभावित लोगों के कल्याण पर लाभ का 26 फीसद हिस्सा खर्च करने की व्यवस्था अनिवार्य करने का प्रस्ताव है। इसी तरह गैर कोयला क्षेत्र की खनन कंपनियों को उनके द्वारा राज्यों को दी जाने वाली रायल्टी के बराबर की राशि सामाजिक कल्याण पर खर्च करनी होगी। प्रस्तावित नया खनन एवं खनिज (नियमन एवं विकास) विधेयक- 2011 पुराने हो चुके 1957 के खनन अधिनियम की जगह लेगा। प्रस्तावित विधेयक में एक राष्ट्रीय खनन नियामक प्राधिकरण और ट्रिब्यूनल गठित किए जाने तथा 60 खनिज प्रधान जिलों में जिला खनिज न्यायस बनाने का प्रावधान है। बैठक में 22 नए प्रस्ताव और कुछ पिछली बैठकों के छूटे हुए प्रस्तावों पर फैसला होगा अवैध खनन कार्य रोक ने के लिए मिनरल एडं माइन्स अधिनियम में बदलाव किया जाएगा

Monday, July 18, 2011

मर्डोक ने अखबारों में विज्ञापन देकर माफी मांगी

मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने अपनी कंपनी के फोन हैकिंग प्रकरण के लिए ब्रिटेन के कई बड़े अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन देकर माफी मांगी है। अखबारों में शीर्षक वी आर सॉरी के नाम से माफीनामा छपा है। इन अखबारों में द गार्जियन भी शामिल है जिसने सबसे पहले फोन हैकिंग का पर्दाफाश किया था। माफीनामे पर मर्डोक के हस्ताक्षर हैं। मर्डोक ने कहा है, जो गंभीर गलती हुई, उसके लिए हम माफी मांगते हैं। मुझे पता है कि केवल माफी मांग लेना पर्याप्त नहीं है। हमारा व्यवसाय इस विचार पर आधारित है कि स्वतंत्र और मुक्त प्रेस समाज में एक सकारात्मक शक्ति होनी चाहिए। ब्रिटेन के अलावा फोन हैकिंग विवाद के अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और चीन तक फैल जाने के बाद 80 वर्षीय मर्डोक का इससे निपटने का रवैया बदल गया है। इससे पहले मर्डोक की कंपनी के दो बड़े अधिकारी रेबेका बू्रक्स और लेस हिंटन शुक्रवार को इस मामले में इस्तीफा दे चुके हैं। ब्रूक्स लोगों के फोन हैक करके खुफिया खबरें बनाने वाले 168 साल पुराने साप्ताहिक अखबार न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड की संपादक थीं। मर्डोक ने इस अखबार को पिछले हफ्ते बंद कर दिया। जबकि लेस हिंटन मर्डोक के अन्य मीडिया ग्रुप डाउ जोंस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे। अखबार में छपे माफीनामे के अलावा मर्डोक ने लंदन में मिली डाउलर के परिवार वालों से भी माफी मांगी। मर्डोक ने इस परिवार से मिलने का अनुरोध तब किया जब उन्हें पता चला कि मिली डाउलर की हत्या से पहले उनका फोन न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड ने हैक किया था। परिवार के वकील ने कहा कि मर्डोक ने कई बार माफी मांगी और वह बार-बार अपने हाथों से अपने सिर को पकड़ अफसोस जाहिर कर रहे थे।

Saturday, July 16, 2011

मर्डोक के खिलाफ अमेरिका में भी जांच शुरू

वाशिंगटन, प्रेट्र : ब्रिटेन में मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक की मुश्किलें अभी कम भी नहीं हुई कि वह अमेरिका में भी घिर गए हैं। अमेरिका में रूपर्ट की कंपनी न्यूज कॉर्प पर 9/11 हमलों के पीडि़तों के फोन हैक करने के आरोप लगने के बाद उसे संघीय जांच एजेंसी एफबीआइ का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि ब्रिटेन में मर्डोक और उनका परिवार फोन हैकिंग प्रकरण के लिए माफी मांगने को तैयार हो गया है। वह इस सप्ताहांत ब्रिटेन में अपनी कंपनी के सभी अखबारों में माफीनामा प्रकाशित करेंगे। अपने देशवासियों के फोन हैक किए जाने से नाराज अमेरिकी सांसदों ने मामले की जांच एफबीआइ से कराने की मांग की है। इस संबंध में एफबीआइ के निदेशक रॉबर्ट मुलर के पास सांसदों का आग्रह आने के बाद उन्होंने जांच के आदेश दिए। उल्लेखनीय है कि एफबीआइ सांसदों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों की प्रारंभिक जांच करके यह तय करती है कि मामले की पूर्ण जांच की जरूरत है या नहीं। इससे पहले ब्रिटेन में रूपर्ट की कंपनी न्यूज इंटरनेशनल पर वैज्ञानिकों, खूंखार अपराधियों और इराक युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिजनों के फोन हैक करके सूचनाएं जुटाने के आरोप लगे थे। इन्हीं आरोपों के चलते मर्डोक को ब्रिटेन में अपना 168 साल पुराना साप्ताहिक अखबार न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड बंद करना पड़ा था। एक अन्य खबर के अनुसार रूपर्ट और उनके पुत्र जेम्स मर्डोक ब्रिटेन की संसद की मीडिया मामलों की समिति के समक्ष पेश होने को तैयार हो गए हैं। यह जानकारी कंपनी ने दी है। समिति दोनों से फोन हैकिंग मामले में अगले हफ्ते पूछताछ करेगी। मुख्य कार्यकारी अधिकारी रिबेका ने दिया इस्तीफा लंदन, प्रेट्र : फोन हैकिंग मामले में पडे़ भारी दबाव के चलते रूपर्ट मर्डोक की कंपनी न्यूज इंटरनेशनल की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रिबेका ब्रूक्स ने इस्तीफा दे दिया है। मर्डोक ने भी उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है। वह कंपनी के चार अखबारों द सन, द टाइम्स, द संडे टाइम्स और बंद हो चुके न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड का काम देख रही थीं। उनपर फोन हैकिंग को बढ़ावा देने का आरोप है। इस्तीफे में उन्होंने अपने किए पर पछतावा व्यक्त किया है। ब्रिटिश सांसदों ने उनके इस कदम का स्वागत करते हुए कहा है कि यह बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था।


Tuesday, July 12, 2011

रूपर्ट मर्डोक के बीस्काईबी के अधिग्रहण पर मंडराया खतरा


फोन टैपिंग प्रकरण के बाद मीडिया जगत के बादशाह रूपर्ट मर्डोक की सेटेलाइट ब्रॉडकास्टिंग कंपनी, ब्रिटिश स्काई ब्रॉडकास्टिंग (बीस्काईबी) को अधिग्रहित करने की कोशिशों पर पानी फिरता दिख रहा है। एक सप्ताह पहले तक ब्रिटिश राजनीति पर जबर्दस्त प्रभाव रखने वाले मर्डोक से सभी दलों ने दूरी बनानी शुरू कर दी है। सोमवार को सरकार और विपक्षी दलों के नेताओं ने इस सौदे को स्थगित या लंबे समय तक टालने का आह्वान किया। उप प्रधानमंत्री निक क्लेग ने सोमवार को न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड द्वारा फोन टैपिंग की सोमवार को फिर आलोचना की। उन्होंने कहा, मर्डोक लंदन में हैं। चीजों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं उनसे सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि वह यह समझने की कोशिश करें कि लोग इसबारे में कैसा महसूस करते हैं। देश ने विभिन्न रहस्योद्घाटनों पर किस तरह घृणा के साथ प्रतिक्रिया की है। निक क्लेग की पार्टी लिबरल डेमोक्रेट्स मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के प्रभाव और ताकत की लगातार आलोचना करती रही है। सेलिब्रिटी, खूंखार अपराधियों और इराक युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिजनों के फोन हैक करके सूचनाएं जुटाने के गंभीर आरोप लगने के बाद न्यूज ऑफ व‌र्ल्ड अखबार के मालिक रूपर्ट मर्डोक ने इसे बंद करने का फैसला लिया। मर्डोक के सर्वाधिक बिकने वाला टैबलायड ने पिछले साल हुए चुनाव में लेबर पार्टी का समर्थन किया था। क्लेग ने मर्डोक से कहा, मर्यादित कार्य करिए और बीस्काईबी के सौदे के लिए पुनर्विचार करिए। शाही परिवार के सुरक्षा अधिकारियों ने रिश्वत लेकर फोन नंबर लीक किए न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड के पूर्व शाही मामलों के संपादक क्लाइव गुडमैन ने शाही परिवार के सुरक्षा अधिकारियों को रिश्वत देकर प्रिंस विलियम सहित शाही घराने के कई लोगों के नंबर एकत्रित किए थे। बीबीसी के बिजनेस मामलों के संपादक रॉबर्ट पेट्सन ने यह दावा किया है। रॉबर्ट के मुताबिक न्यूज ऑफ द व‌र्ल्ड के तत्कालीन संपादक एंडी कल्सन ने गुडमैन को ऐसा करने के लिए कहा था। शाही परिवार के फोन नंबरों वाली बुक को ग्रीन बुक कहा जाता है। रिपोर्ट के अनुसार प्रयोग के बाद ग्रीन बुक को लॉक कर दिया जाता था। शाही के फोन नंबरों की हैकिंग का यह मामला 2005 में प्रकाश में आया था और 2007 में अदालत ने गुडमैन को जेल भेजा था।

Wednesday, June 29, 2011

अभिव्यक्ति की आजादी का सच


अंडरव‌र्ल्ड की दुनिया की गहरी समझ रखने वाले पत्रकार ज्योतिर्मय डे की निर्मम हत्या की घटना से पूरा देश स्तब्ध है। सिर्फ इसलिए नहीं कि एक खोजी पत्रकार की हत्या हो गई, बल्कि इसलिए भी कि हत्या एक ऐसे पत्रकार की हुई है, जिसके लिए अपने पेशे के मूल्य और समाज के प्रति जिम्मेदारी अपनी जान से भी बढ़कर थी। मीडिया जगत और अभिव्यक्ति की आजादी को जरूरी समझने वाले आम नागरिकों के लिए इससे भी ज्यादा सदमे वाली बात यह है कि देश की आजादी के छह दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद पत्रकारों की सुरक्षा के लिए हमारे पास कोई मजबूत कानून नहीं है। शर्मनाक यह है कि जब भी ऐसा कोई कानून बनने की बात आती है तो उसे किसी न किसी बहाने टाल दिया जाता है और टलवाने का प्रयास करने वालों में कुछ राजनेता भी शामिल होते हैं। अगर वे जाहिर तौर पर इसमें शामिल न हों तो भी इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसा उनकी इच्छा के बगैर नहीं हो सकता। चाहे यह मदद सिर्फ उदासीनता के रूप में ही क्यों न हो। सोचा जाना जरूरी हो गया है कि वे कौन से सच हैं, जिनके उजागर होने से हमारे राजनेता इतने ज्यादा घबराए हुए हैं और जिनके कारण वे पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित होने नहीं देना चाहते। इस नृशंस हत्याकांड के सिलसिले में छोटा शकील गिरोह के तीन गुर्गे हिरासत में लिए जा चुके हैं। पूछताछ भी काफी कुछ हो चुकी है। कई तरह की बातें सामने आ चुकी हैं। इसी सिलसिले में एक पुलिस अधिकारी से भी पूछताछ हो चुकी है। हालांकि सामने आई किसी बात पर अभी न तो पुलिस यकीन कर पा रही है, मीडियाकर्मी और न आमजन ही। जांच की दिशा भी सुनिश्चित नहीं हो सकी है। कभी इसके पीछे चंदन तस्करों का हाथ माना जा रहा है और कभी महाराष्ट्र के तेल माफियाओं का। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये दोनों ही देश के बेहद खतरनाक गिरोहों में शामिल हैं। चंदन तस्करी के काले धंधे के तहत क्या-क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। तेल माफियाओं का बेहद वीभत्स कारनामा कुछ ही महीने पहले सामने आया था, जब एक अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने को जलगांव में दिनदहाड़े जलाकर मार डाला गया था। तब महाराष्ट्र सरकार ने यह भरोसा दिलाया था कि वह तेल माफिया को जड़ से उखाड़ फेंकेगी, लेकिन अब? अगर इस पूरे प्रकरण पर नजर डालें तो पता यह चलता है कि नतीजा अंतत: शून्य ही रहा। आखिर क्यों? डे को तेल माफियाओं व उनके धंधे की गहरी जानकारी थी। इन पर वह कई महत्वपूर्ण खबरें लिख चुके थे। यह बात भी सामने आई है कि वह इधर चंदन तस्कर कासिम के बारे में कोई स्टोरी लिखना चाह रहे थे। दुबई में रह चुका कासिम छोटा शकील का व्यावसायिक साझेदार है। यह बात कासिम को पता चल गई थी। इसके बाद कासिम ने पहले उन्हें किसी मध्यस्थ के जरिये बड़ी रकम देने की पेशकश की और फुसलाना चाहा, लेकिन डे ने इससे इनकार कर दिया और नतीजा यह हुआ कि उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा। माफियाओं और अराजक तत्वों की शर्तो को मानने और उनके फुसलाने में न आने वाले पत्रकारों का हमारे देश में क्या हश्र होता है, यह अलग से लिखने की जरूरत नहीं है। ऐसा कोई अकारण नहीं है कि पत्रकारों की सुरक्षा की निगरानी रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था की सूची में भारत को दागदार सातवीं जगह दी गई है। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि इस मामले में पाकिस्तान की हालत भी हमसे बेहतर है। लोकतंत्र और लोकतंत्र के स्तंभों की सुरक्षा के प्रति हम कितने जिम्मेदार और जवाबदेह हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद महाराष्ट्र पुलिस अभी तक इस घटना की जांच के मामले में कुछ खास तरक्की कर नहीं पाई और राज्य सरकार सीबीआइ जांच की इजाजत भी नहीं दे रही है। इसके लिए पत्रकारों ने अनशन व प्रदर्शन किया और धरना भी दिया। मुख्यमंत्री ने उनकी बातें सुनीं भी, लेकिन मांगें नहीं मानी। न केवल मुंबई या महाराष्ट्र, पूरे देश का समूचा मीडिया जगत आज भी अपनी इस मांग पर अडिग है। आखिर क्या वजह है कि राज्य सरकार मामला सीबीआइ को सौंपने से इनकार कर रही है? अगर अब तक उसकी पुलिस कुछ पता नहीं लगा सकी तो आगे कुछ कर लेगी, ऐसी उम्मीद उसे किस तरह है? बाद में जब राज्य पुलिस पूरी तरह हाथ खड़े करने की मुद्रा में आएगी, तब तक कई और मामलों की तरह इसके सबूत भी अपराधियों द्वारा पूरी तरह मिटाए जा चुके होंगे। फिर इसे सीबीआइ या किसी को भी सौंपने से क्या फायदा होगा? ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इन तथ्यों से अवगत नहीं है। सच तो यह है कि सरकार पत्रकारों और आम जनता से ज्यादा इन तथ्यों को जानती है। वह यह भी जानती है कि देश में पत्रकारों की सुरक्षा और इन पर होने वाले हमलों की जांच निष्पक्ष और तेज गति से कराया जाना सुनिश्चित करने के प्रावधान कितने जरूरी हैं। इसके बावजूद वह इस मसले पर कोई कदम आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हो रही है। आखिर क्यों? मालूम हुआ है कि जब पत्रकारों के संरक्षण के लिए कानून पर चर्चा चल रही थी, उस वक्त एक वरिष्ठ राजनेता विरोध करने वालों में सबसे आगे और सर्वाधिक मुखर थे। इससे सिर्फ यही जाहिर नहीं होता है कि हमारे देश की सरकारें पत्रकारों की सुरक्षा के प्रति कितनी इच्छुक और गंभीर हैं, यह सवाल भी उठता है कि ऐसा क्यों है? यह सवाल व्यवस्था पर अकसर उठने वाले आम सवालों जैसा नहीं है। सच तो यह है कि यह स्थिति देश में पत्रकारों की ऐसी असुरक्षा के पीछे राजनेताओं की भूमिका पर गंभीर सवाल है। सरकार को यह देखना होगा कि वे कौन से कारण हैं, जिनके नाते दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले भारत की हैसियत पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में पाकिस्तान से भी गई-गुजरी है। क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जानकारी के अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी का यही हश्र होना चाहिए? अगर वास्तव में सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध है तो उसे तुरंत देश भर में पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी कानून लाना चाहिए। साथ ही जे.डे हत्याकांड की जांच तो तुरंत सीबीआइ को सौंपे ही, उन लोगों की भूमिका को भी खंगाले जो पत्रकारों की सुरक्षा के लिए प्रभावी कानून लाए जाने का विरोध कर रहे हैं। पूरा मीडिया जगत और आम जनता यह चाहती है कि डे की हत्या के दोषियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाए और उन पर यथोचित कानूनी कार्रवाई हो। साथ ही यह भी देश में पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित कराई जाए। अगर कोई इसके लिए प्रभावी कानून लाए जाने का विरोध कर रहा है तो क्यों, यह जानने का हक न केवल मीडियाकर्मियोंबल्कि पूरे देश की आम जनता को भी है। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)