यदि उत्तर भारत के किसी राज्य में पांच दिनों के लिए अखबार बंद होने का ऐलान किया जाता, तो शायद यह एक बड़ी खबर बनती। पर मणिपुर में इस तरह की हलचल हमारे समाज का अहम हिस्सा नहीं बन पाती। वहां की तकलीफें हमारे लिए बेमानी हैं। अलगाव की मांग कर रहे इस राज्य के प्रति हमारे जनमानस में एक विलगाव पहले से ही मौजूद है, जिसे वहां की संस्कृति, भाषा और स्वरूप ने मजबूत आधार प्रदान किया है। मुख्यमंत्री के आश्वासन के बाद बेशक वहां के पत्रकारों ने सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार खत्म कर दिया है, लेकिन इससे उनके आक्रोश को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
दरअसल मणिपुर के एक प्रतिष्ठित दैनिक सनलाइबाक के संपादक बाम मोबी को पिछले दिनों पुलिस ने एक प्रतिबंधित संगठन से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। हालांकि बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन पत्रकारों की मांग है कि उन पर लगाए गए सभी आरोप सरकार वापस ले ले। मणिपुर के लोग पिछले कई वर्षों से दमन के खिलाफ गांधीवादी तरीका अपनाते हुए विफल रहे हैं। ऐसे में प्रतिरोध के स्वर और भी मुखर हुए हैं। प्रतिरोध करने वाले संगठनों की संख्या 30 से ऊपर पहुंच गई है। जन समर्थन हासिल कर चुके प्रतिबंधित संगठनों की बात सामने लाने के लिए उनसे संबंध रखना पत्रकारों के लिए जरूरी है। लेकिन उनसे संबंध रखने पर सरकार की नजर टेढ़ी हो रही है। यह पूर्वोत्तर के मीडिया के लिए वाकई संकट का समय है। मणिपुर जैसे राज्यों में वास्तविक स्थितियां लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत जा रही हैं। ऐसे में, लोकतंत्र की रक्षा के लिए स्वयंनिर्मित संस्थान राजसत्ता के लिए खतरा बन गए हैं। इन पर दबाव होता है कि ये सरकार समर्थक हो जाएं और सरकारी कामों को जायज ठहराएं अन्यथा सत्ता की दमनकारी अभियानों में दबा दिए जाएंगे। लिहाजा जमीनी स्तर के किसी भी कार्यकर्ता के राजद्रोही होने की पूरी आशंका है।
सरकारी संस्थानों में कार्यरत बुद्धिजीवी जब न्यायपालिका के किसी फैसले का विरोध करते हैं, तो तथ्यात्मक आधार पर वह भी एक तरह का राजद्रोह ही होता है। लेकिन पूरा मसला इस बात पर निर्भर करता है कि संरचनात्मक आधार पर राज्य के लिए खतरा कौन और कैसे बन रहा है। यह कल्याणकारी राज्य में बढ़ते वर्गीय विभाजन का एक कटु स्वरूप है, जो इन दोनों के अंतर्विरोध से निकलकर आ रहा है। ऐसे में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों आदि के लिए निष्पक्ष भूमिका निभाना मुश्किल होता जा रहा है। यह स्थिति बिनायक सेन, उड़ीसा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी से लेकर कश्मीर और मणिपुर के पत्रकारों-कार्यकर्ताओं तक पर लागू हो रही है। भले ही उनकी गिरफ्तारी के कारण स्थानीय आधार पर भिन्न हों, पर क्रियात्मक रूप से वे सभी एक ही धरातल पर खड़े हैं।
ऐसे में मीडियाकर्मियों को दो तरह के द्वंद्व में काम करना पड़ता है-एक तरफ अलग-अलग कारणों से चल रहे विभिन्न आंदोलनों की वास्तविक स्थितियों से लोगों को वाकिफ कराना, तो दूसरी तरफ सरकार की दमनकारी नीतियों से बचना। जबकि सरकार लगातार प्रतिबंधित संगठनों से संबंध रखने के आरोप में उन्हें प्रताड़ित करती है। उन संगठनों से संबंध रखे बगैर वास्तविकता सामने नहीं लाई जा सकती। पर सरकार उन्हें एकपक्षीय और अपनी निगरानी में ही काम करने के लिए बाध्य कर रही है। ऐसे में दायित्व और सुरक्षा बोध, दोनों दांव पर लगे हुए हैं।
जब भी कोई बड़ा आंदोलन स्वरूप लेता है, तो एक बड़ी जन भागीदारी उसमें उभरती है, जिससे मुकरना जनविरोधी कदम ही होगा। खास तौर से उन संस्थानों के लिए, जो जनमत की बहुलता को लोकतंत्र के रूप में देखते हैं। ऐसे में मानवाधिकार, नागरिक अधिकार, संप्रेषण की आजादी के लिए उठने वाली आवाजों की भूमिका क्या होगी? शायद सरकारी प्रतिबंधों को तोड़ते और दमनकारी रवैये से लड़ते हुए ही किसी ध्रुवीकरण की शुरुआत होगी, जहां जन आकांक्षाओं को तरजीह मिलेगी। राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को प्रदर्शित करने वाली संस्थाओं के प्रति मोहभंग की शुरुआत यहीं से होगी। हो सकता है कि कॉरपोरेट मीडिया संस्थानों में काम करने वाले किन्हीं दबावों के चलते वर्तमान नीतियों का समर्थन करें, पर प्रतिबद्धताओं के टकराव यहां भी पनपेंगे और पनप रहे हैं।