अभी हाल ही में चिकित्सकों द्वारा यह बताया गया है कि रूसी कोई बीमारी नहीं है और इसकी उत्पत्ति के संबंध में भी कोई ठोस जानकारी नहीं है। जाहिर है, शैंपू निर्माता न केवल उसे हटाने के नाम पर लोगों को ठग रहे हैं, बल्कि उनकी भावनाओं से भी खेल रहे हैं। ऐसा केवल एक उत्पाद के साथ नहीं है। उपभोक्ताओं को तो आए दिन तमाम असरहीन उत्पादों के झूठे और भ्रामक प्रचारों से ठगा जा रहा है। ये दावे विज्ञापनों और संचार माध्यमों के जरिये किए जा रहे हैं। जाहिर है, यह तथ्य सभी के संज्ञान में है। लेकिन हमारे यहां ऐसी कोई जिम्मेदार संस्था नहीं है, जो इन झूठे दावों को खारिज कर उपभोक्ताओं को सजग और सुरक्षित कर सके या प्रचारित दावों के अनुरूप माल की गुणवत्ता न होने पर उत्पादकों के खिलाफ कार्रवाई करे।
बात सिर्फ दावों को खारिज करने से नहीं बनेगी। जब उत्पाद सामग्री दावे के अनुसार नहीं हो, तो मामला धोखाधड़ी और ठगी का बनना चाहिए। वैसे तो यह अपराध ठगी से भी बढ़कर हैं, क्योंकि इन्हें प्रचार माध्यमों से और अधिकृत उत्पादकों द्वारा बेचा जा रहा है। दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों के जितने भ्रामक दावे किए जाते हैं, उतने शायद ही किसी क्षेत्र में किए गए हों।
लीवर को स्वस्थ रखने के लिए बाजार में तमाम तरह की दवाएं मौजूद हैं, जबकि चिकित्सा विज्ञान मानता है कि लीवर को स्वस्थ रखने में उचित खानपान का हाथ होता है, न कि किसी दवा का। इसके संक्रमण की दशा में विश्राम और वसा मुक्त खान-पान ही निरोगी बनाता है। क्या नियंत्रक संस्थाएं बता सकती हैं कि ऐसी कोई आयुर्वेदिक या होमियोपैथी दवा का आविष्कार हुआ है, जो सिर पर बाल उगा दे या पुरुषों के जननेंद्रियों या स्त्रियों के वक्षों का आकार बढ़ा दे? पर ऐसे दावे प्रतिदिन विज्ञापनों में देखने को मिलते हैं। पौरुष शक्ति बढ़ाने, कैंसर का शर्तिया इलाज करने या चंद दिनों में गोरा बनाने या झुर्रियां हटाने के दावे कितने सही हैं, इस बारे में कभी किसी सरकारी संस्था ने कुछ नहीं बताया। सौंदर्य की चाह में समाज का एक बड़ा तबका उलजलूल इलाजों के नाम पर ठगा जा रहा है। इसी तरह शारीरिक लंबाई बढ़ाने की दवाएं भी कोई फायदा नहीं करतीं, फिर भी विज्ञापनों के जरिये उपभोक्ताओं को ठगा जाता है। चिकित्साशास्त्र के अनुसार, 18 से 20 वर्ष की उम्र तक ही किसी व्यक्ति की लंबाई बढ़ती है, वह भी किसी दवा से नहीं। ऋषिकेश का एक डॉक्टर दशकों तक आयुर्वेदिक दवा के नाम पर मिरगी रोग ठीक करने का दावा करता रहा। मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के साथ अपने फोटो दिखाकर वह मरीजों को प्रभावित करता रहा। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की शिकायत के बाद जब हकीकत सामने आई, तो उसे जेल की हवा खानी पड़ी।
दरअसल ऐसे दावों-प्रतिदावों की जांच करने वाला हमारा तंत्र नकारा है। यहां कोई भी कुछ भी दावा कर सकता है और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। अब तो रुद्राक्ष कवच से भी दमा, कैंसर और रक्तचाप के इलाज का दावा किया जा रहा है।
योग स्वास्थ्य के लिए निस्संदेह लाभदायक है। हम नियमित योग कर स्वस्थ रह सकते हैं। परंतु योग से टीबी या कैंसर जैसी बीमारियों को ठीक करने का दावा कोरी बकवास के अलावा कुछ नहीं है।
सवाल उठता है कि तमाम विज्ञापनों की भूल-भुलैया में ठगी जाने वाली जनता का रक्षक कौन है? चिकित्सा विभाग में हमने ऐसा कोई तंत्र विकसित किया है, जो इन तमाम झूठे दावों की असलियत जांचे, परखे और झूठा दावा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर सके? अगर नहीं, तो आम जनता को ठगे जाने या इन नीम-हकीमों, तांत्रिकों के जाल में फंसने से कौन बचाएगा? क्या हम उन तमाम निरक्षर लोगों को उनके हाल पर छोड़ देंगे? कहने को तो कहा जा सकता है कि भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ औषधि एवं झाड़-फूंक उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम प्रभावी है। इसके लिए भारतीय विज्ञापन मानक परिषद और राज्य स्वास्थ्य विभाग से भी शिकायत की जा सकती है, पर क्या गांव के करोड़ों अनपढ़ उपभोक्ता ऐसे उत्पादों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं? हरगिज नहीं, क्योंकि उनमें जागरूकता का अभाव है और ऐसी संस्थाएं उनकी पहुंच से दूर हैं। ऐसे में नियंत्रक संस्थाओं की ही जिम्मेदारी बनती है कि वे झूठे विज्ञापनों के खिलाफ कार्रवाई करें और इन पर रोक लगाएं।