इतना-इतना मीडिया है। चौतरफा चमक-दमक है। हर तरफ टीवी है, रेडियो है मोबाइल हैं, इंटरनेट है, फेसबुक है, ट्विटर है। हर आदमी खबर बन रहा है, खबर बना रहा है। नाच रहा है, गा रहा है और अपनी 'महानताओं' को सरे आम सबको बताने-सुनाने पर तुला है। पिछले बीस-पच्चीस साल में हमारे मीडिया ने अपने शहरी पढ़ेिलखे मध्य वर्ग को अधिक घमंडी, अधिक अशालीन, अधिक धूर्त और मक्कार और उतना ही ताकतवर बनाया है। मीडिया की सकल लीला ने एक नए किस्म का संदेहवादी अनुभववाद पैदा कर दिया है कि आदमी लाइव सामने हैं और बताया जा रहा है कि वे ये ये ये हैं। आप उचाट मन से उसकी चंटई का पाठ करने लगते हैं लेकिन उसके रुतबे में आने लगते हैं। अच्छा अब ये महान आए! हर बड़े पर शक, हर महान चीज तुच्छ और हर ताकतवर की इज्जत यह सामाजिक व्यवहार का सार है जिसे मीडिया ने तय किया है। यह अंधी ताकत की दुनिया का निर्माण है जिसमें कमजोर को जगह नहीं है। मीडिया ने ताकत के विमर्श को एक मात्र विमर्श बना दिया है। कमजोर की आवाज अपनी कोई आवाज नहीं रह गई है। कमजोर की आवाज भी कोई ताकतवर ही उठाए तो सुनी जाती है, वरना कमजोर कल की जगह आज मरे तो मरे!
आप अपने शहर को देखें, अपने गांव को देखें और मीडिया में आ रहे शहर और गांव के साक्षात जीवन से उनका मिलान करें। आप अपने जीवन का मीडिया में उपलब्ध जीवन से मिलान करें। आपको मालूम हो जाएगा कि आपके जीवन में बहुत कुछ ऐसा आ गया है जो मीडिया ने आपको जबर्दस्ती दिया है जबकि उससे पहले भी आप ठीक-ठाक से जिंदा थे। समाज मीडिया से पहले भी था। नल की जगह बोतल। मीठे पानी की जगह कोक, पेप्सी और शराब। घर की जगह होटल। पैदल यात्रा की जगह पड़ोस जाने के लिए निजी गाड़ी। पगडंडी की जगह चौड़ीसडक, कायदे से चलते वाहनों की जगह आवारा स्पीडी वाहन। सड़क फाइट। सब ताकत का खेल है। इसमें कमजोर की जगह नहीं है। मीडिया भ्रष्टाचार का विरोध करता है, पारदर्शिता की बात करता है लेकिन जिनकी कहानी देता है जिन चेहरों को दिखाता है। वे किसी कमजोर की कहानी नहंीं कहते। वे किसी ताकतवर की कहानी कहते हैं और ताकत से उसे डिफेंड करते हैं। आप किसी भी एक आम कहानी को उठा लें और मीडिया का उसके प्रति नजरिया देखें- शालिनी, अनुराधा दो बहनें, नोएडा में एक मकान में सात महीने तक बंद रहीं। पड़ोसियों ने उन्हें जब निकलते नहीं देखा तो शंका हुई। शिकायत की तो पुलिस आई, दरवाजा तोड़ा गया तो दो लगभग ठठरी बन गई स्त्रियां नजर आई। मीडिया ने उनकी राम कहानी को सौ पचास शब्दों में निपटाया और तुरंत लग गया मनोवैज्ञानिक से बात कराने कि ऐसा डिप्रेसन क्यों होता है। बताया गया कि महागनगरों में छोटे परिवार, उनमें अकेले लोग, एक दूसरे से दु:खदर्द, सहारा नहंीं बांट पाते। अकेली लड़कियां डरती हैं और डिप्रेशन जल्दी घेरता है। कुछ घरेलू समस्याएं होती हैं जिनमें वे घिर जाती हैं। पुलिस आई, दबाव बना तो अस्पताल ले जाया गया। एक ने दम तोड़ दिया। दूसरी ठीक हो रही है। उसके बाद उसका क्या होगा, कौन-क्या जाने? मीडिया किसी को रोटी नहीं दे सकता लेकिन हां, पांच सितारा हेाटल के व्यंजन दिखाकर, आपके मुंह में पानी लाकर, आपको उधर आने के लिए फुसला सकता है।
मीडिया ने गरीब को पेटू ग्राहक बनाया है और मिडिल क्लास को मोमबत्ती समाज बनाया है तथा कारपोरेट को सबका मालिक बनाया है। जो मिडिलक्लासी मोमबत्ती समाज अपने जैसों के लिए मोमबत्तियां लेकर निकल पडता है वह अंग्रेजी में एक जुमला कहता है और वह बड़ी खबर बन जाता है। वह किसी को गऊ का तबेला कह दे तो पांच दिन तक विद्वान मिलकर उसका गोबर उठाते फिरते हैं। जितना ग्लैमरित, जितना ताकतवर, जितना पैसे वाला, जितना सेलेब्रिटी चेहरा है उतना ही अथेंिटक है। उतना की जबर्दस्त है वह खबर का मालिक है। खबर से पहले है, खबर में है, खबर के बाद है। वह मनोरंजन में है, उससे पहले और उससे बाद भी है। पैसा, ताकत, मनोरंजन, सेलिब्रिटी, अपराध, कानून सब एक दूसरे से मिक्स हैं और इस महा-मिक्स को बनाने वाला नया मीडिया है। उसका नया संजाल है जो अब जमीन पर बहुत कम आता है। ज्यादा वक्त जमीन से डेढ़ इंच ऊपर लाइव-लाइव रहता है। बड़ी बातें करता है। उसका एक चुटीला अंग्रेजी वाक्य किसी गरीब की खबर की जगह खा जाता है। मीडिया के पास कारपोरेट्स हैं। विज्ञापन हैं। चकाचक पैसा है। अकूत ताकत है। दुनियाभर का ग्लैमर है और इस सबका प्रपंच है। आम आदमी के पास क्या है? वह आपसे पूछता है। आम आदमी सिर्फ उपभोक्ता है। वह मानता कि उपभोक्ता का काम सिर्फ उपभोग करना है। बड़-बड़ करना नहीं! वह यह मानकर चलता है। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले जन की कोई पुरानी तस्वीर उसके अमीरी से भरे मोंताज का हिस्सा भर है। वह 'अतुलनीय भारत' का एक क्षण का मिथक है। आम आदमी मीडिया में स्थगित है। अगर आम आदमी ढूंढना भी पड़ा तो उसे तब ढूंढा जाता है जब कोई बिल गेट्स अपने एन.जी.ओ. के फोटो के लिए अपनी दानशीलता का बखान कराने के लिए किसी गरीब झोपड़ पट्टी में पहुंच जाते हैं। वहां गरीब औरतों को नई साड़ी देकर, बच्चों को नई पोशाक देकर पहले से तैयार कर बिठा दिया जाता है। हे प्रभु! तुम्हारे पास अगर हमें देने के लिए पैसा है तो एक ठो गरीब जगह हमने बचाकर रखी है, आइए गरीबी का स्पर्श की कीजिए। गरीब के साथ दिखना कुछ अपराध बोध कम करता है। आदमी गरीब से हाथ मिलाकर उसके ढिंग बैठ भले-भले, मानवीय से लगने वाले उदात्त सीन देता है। हमारे मीडिया ने किसी बड़े ताकतवर आदमी के मानवीय अलंकरण के लिए एक ठो गरीबी रख छोडी है।