Thursday, April 28, 2011

कुछ गरीबी रख छोड़ी है


इतना-इतना मीडिया है। चौतरफा चमक-दमक है। हर तरफ टीवी है, रेडियो है मोबाइल हैं, इंटरनेट है, फेसबुक है, ट्विटर है। हर आदमी खबर बन रहा है, खबर बना रहा है। नाच रहा है, गा रहा है और अपनी 'महानताओं' को सरे आम सबको बताने-सुनाने पर तुला है। पिछले बीस-पच्चीस साल में हमारे मीडिया ने अपने शहरी पढ़ेिलखे मध्य वर्ग को अधिक घमंडी, अधिक अशालीन, अधिक धूर्त और मक्कार और उतना ही ताकतवर बनाया है। मीडिया की सकल लीला ने एक नए किस्म का संदेहवादी अनुभववाद पैदा कर दिया है कि आदमी लाइव सामने हैं और बताया जा रहा है कि वे ये ये ये हैं। आप उचाट मन से उसकी चंटई का पाठ करने लगते हैं लेकिन उसके रुतबे में आने लगते हैं। अच्छा अब ये महान आए! हर बड़े पर शक, हर महान चीज तुच्छ और हर ताकतवर की इज्जत यह सामाजिक व्यवहार का सार है जिसे मीडिया ने तय किया है। यह अंधी ताकत की दुनिया का निर्माण है जिसमें कमजोर को जगह नहीं है। मीडिया ने ताकत के विमर्श को एक मात्र विमर्श बना दिया है। कमजोर की आवाज अपनी कोई आवाज नहीं रह गई है। कमजोर की आवाज भी कोई ताकतवर ही उठाए तो सुनी जाती है, वरना कमजोर कल की जगह आज मरे तो मरे!
आप अपने शहर को देखें, अपने गांव को देखें और मीडिया में आ रहे शहर और गांव के साक्षात जीवन से उनका मिलान करें। आप अपने जीवन का मीडिया में उपलब्ध जीवन से मिलान करें। आपको मालूम हो जाएगा कि आपके जीवन में बहुत कुछ ऐसा आ गया है जो मीडिया ने आपको जबर्दस्ती दिया है जबकि उससे पहले भी आप ठीक-ठाक से जिंदा थे। समाज मीडिया से पहले भी था। नल की जगह बोतल। मीठे पानी की जगह कोक, पेप्सी और शराब। घर की जगह होटल। पैदल यात्रा की जगह पड़ोस जाने के लिए निजी गाड़ी। पगडंडी की जगह चौड़ीसडक, कायदे से चलते वाहनों की जगह आवारा स्पीडी वाहन। सड़क फाइट। सब ताकत का खेल है। इसमें कमजोर की जगह नहीं है। मीडिया भ्रष्टाचार का विरोध करता है, पारदर्शिता की बात करता है लेकिन जिनकी कहानी देता है जिन चेहरों को दिखाता है। वे किसी कमजोर की कहानी नहंीं कहते। वे किसी ताकतवर की कहानी कहते हैं और ताकत से उसे डिफेंड करते हैं। आप किसी भी एक आम कहानी को उठा लें और मीडिया का उसके प्रति नजरिया देखें- शालिनी, अनुराधा दो बहनें, नोएडा में एक मकान में सात महीने तक बंद रहीं। पड़ोसियों ने उन्हें जब निकलते नहीं देखा तो शंका हुई। शिकायत की तो पुलिस आई, दरवाजा तोड़ा गया तो दो लगभग ठठरी बन गई स्त्रियां नजर आई। मीडिया ने उनकी राम कहानी को सौ पचास शब्दों में निपटाया और तुरंत लग गया मनोवैज्ञानिक से बात कराने कि ऐसा डिप्रेसन क्यों होता है। बताया गया कि महागनगरों में छोटे परिवार, उनमें अकेले लोग, एक दूसरे से दु:खदर्द, सहारा नहंीं बांट पाते। अकेली लड़कियां डरती हैं और डिप्रेशन जल्दी घेरता है। कुछ घरेलू समस्याएं होती हैं जिनमें वे घिर जाती हैं। पुलिस आई, दबाव बना तो अस्पताल ले जाया गया। एक ने दम तोड़ दिया। दूसरी ठीक हो रही है। उसके बाद उसका क्या होगा, कौन-क्या जाने? मीडिया किसी को रोटी नहीं दे सकता लेकिन हां, पांच सितारा हेाटल के व्यंजन दिखाकर, आपके मुंह में पानी लाकर, आपको उधर आने के लिए फुसला सकता है।
मीडिया ने गरीब को पेटू ग्राहक बनाया है और मिडिल क्लास को मोमबत्ती समाज बनाया है तथा कारपोरेट को सबका मालिक बनाया है। जो मिडिलक्लासी मोमबत्ती समाज अपने जैसों के लिए मोमबत्तियां लेकर निकल पडता है वह अंग्रेजी में एक जुमला कहता है और वह बड़ी खबर बन जाता है। वह किसी को गऊ का तबेला कह दे तो पांच दिन तक विद्वान मिलकर उसका गोबर उठाते फिरते हैं। जितना ग्लैमरित, जितना ताकतवर, जितना पैसे वाला, जितना सेलेब्रिटी चेहरा है उतना ही अथेंिटक है। उतना की जबर्दस्त है वह खबर का मालिक है। खबर से पहले है, खबर में है, खबर के बाद है। वह मनोरंजन में है, उससे पहले और उससे बाद भी है। पैसा, ताकत, मनोरंजन, सेलिब्रिटी, अपराध, कानून सब एक दूसरे से मिक्स हैं और इस महा-मिक्स को बनाने वाला नया मीडिया है। उसका नया संजाल है जो अब जमीन पर बहुत कम आता है। ज्यादा वक्त जमीन से डेढ़ इंच ऊपर लाइव-लाइव रहता है। बड़ी बातें करता है। उसका एक चुटीला अंग्रेजी वाक्य किसी गरीब की खबर की जगह खा जाता है। मीडिया के पास कारपोरेट्स हैं। विज्ञापन हैं। चकाचक पैसा है। अकूत ताकत है। दुनियाभर का ग्लैमर है और इस सबका प्रपंच है। आम आदमी के पास क्या है? वह आपसे पूछता है। आम आदमी सिर्फ उपभोक्ता है। वह मानता कि उपभोक्ता का काम सिर्फ उपभोग करना है। बड़-बड़ करना नहीं! वह यह मानकर चलता है। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले जन की कोई पुरानी तस्वीर उसके अमीरी से भरे मोंताज का हिस्सा भर है। वह 'अतुलनीय भारत' का एक क्षण का मिथक है। आम आदमी मीडिया में स्थगित है। अगर आम आदमी ढूंढना भी पड़ा तो उसे तब ढूंढा जाता है जब कोई बिल गेट्स अपने एन.जी.ओ. के फोटो के लिए अपनी दानशीलता का बखान कराने के लिए किसी गरीब झोपड़ पट्टी में पहुंच जाते हैं। वहां गरीब औरतों को नई साड़ी देकर, बच्चों को नई पोशाक देकर पहले से तैयार कर बिठा दिया जाता है। हे प्रभु! तुम्हारे पास अगर हमें देने के लिए पैसा है तो एक ठो गरीब जगह हमने बचाकर रखी है, आइए गरीबी का स्पर्श की कीजिए। गरीब के साथ दिखना कुछ अपराध बोध कम करता है। आदमी गरीब से हाथ मिलाकर उसके ढिंग बैठ भले-भले, मानवीय से लगने वाले उदात्त सीन देता है। हमारे मीडिया ने किसी बड़े ताकतवर आदमी के मानवीय अलंकरण के लिए एक ठो गरीबी रख छोडी है।


Monday, April 25, 2011

छवि के छल


मीडिया के लिए अन्ना से लेकर केजरीवाल तक सब एक या संयुक्त ब्रांड भर रहे। ब्रांड का चरित्र साक्षात जीवन के व्यक्तित्व से अलग होता है। ब्रांड एक चिह्न भर होता है। कु छ दिन के लॉन्च के बाद, बढ़िया पोजीशनिंग के बाद उसे बदलना होता है। स्लोगन, कै च लाइन बदलनी होती है। जो ब्रांड अपनी कै च लाइन में फंस गया वह काम से गया!
मीडिया के लिए जंतर मंतर का अनशनकारी सिविल समाज महज एक बिकने योग्य बाइट-संजाल था। उसके बाद सिविल समाज को लेकर तरह-तरह के नाजुक सवालों को बराबर की जगह देना भी बिकने वाली खबर थी। यही मीडिया का अपना बनाया जनतंत्र है। जो सवाल पहले सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे, भ्रष्टाचार और उससे लड़ाई की कहानी दिन-रात बेचते रहे वही भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध की कहानी भी बताने लगे। यह मीडिया की सतत अति रही और रहनी है
टीवी का समाज मूलत: छवि-समाज है। छवियां अपने विषय के बारे में बहुत कुछ कहती रहती हैं। तो भी वे उसकी सच्ची और स्थायी प्रतिनिधि नहीं होतीं। इसलिए कि वे अपने अर्थ लगातार बदलती रहती हैं। चूंकि एक छवि एक शब्द भर नहीं होती। उनकी अनंत शब्दावली होती हैं, अनंत-अर्थावली होती हैं, इसलिए वे जल्दी पकड़ में नहीं आती हैं। फिसल-फिसल जाती हैं। यही टीवी का वह हाइपर-रीयल तत्व है जो छवि को साक्षात जमीन से डेढ़ इंच ऊपर उठाकर आभासी ताकत दे देता है कि आप उसको पकड़ नहीं सकते लेकिन उसके घोर कंदनकारी और चिह्नशास्त्रीय प्रभाव से बच भी नहीं सकते। मीडिया तटस्थ की जगह नहीं छोड़ता। यह स्तुतिपरकता या निंदकता स्थायी नहीं होती। वह भी छवियों की तरह अस्थिर होती है। छवियों में सक्रिय शब्दिमशण्रसे लेकर अर्थ-मिशण्रउन्हें नित्य नवीन करते रहते हैं। यह जादुई नवीनता का छल यह है कि जितनी चमक होगी उतनी ही दर्शक से आजिजी होगी और जितनी आजिजी होगी उतनी ही शिकायत या प्यार होगा। मुहब्बत भी पंद्रह सेकिंडी तो घृणा भी पंद्रह सेकिंडी! इस छवि प्रपंच का परम प्रकट छल यह है कि आप छवि को एक सेकिंड ठहराकर उसका अर्थ पक्का नहीं कर सकते। इसलिए छवि के जितने अर्थ लगाए जाते हैं वे सब मिलकर भी छवि को पकड़ नहीं पाते बल्कि उसे अधिक नेतिनेति, अधिक आवारा, अधिक दु:साध्य और फिर भी अधिक दुर्निवार बनाते रहते हैं। टीवी ने जिस सिविल समाज को पिछले दिनों अनंत बार रचा, सिविल समाज के नाम से जिसे पॉपूलर बनाया वह पॉपूलर कल्चर की एक संरचनामात्र रही। इस टीवी जनतंत्र के उपभोग का मारा उसमें जीता- मरता शाम को खबर देखता सुबह को उसकी चरचा करता उसके जरिए अपना दृष्टिकोण बनाता दर्शक समाज में तो समाज की तरह रहता है। वह किसी खबर को सीधे अपने हिताहित से जोड़कर देखता है और अहितकारी महसूस होने पर सीधे आक्थू कहता है या हंस देता है। छवि की लीला पर उसका वश नहीं चलता। टीवी छवि की द्वंद्वात्मकता यह भी है कि जिस समाज से खास टीवी-छवि अपना उपजीव्य ग्रहण करती है, जिस समाज को अपना उपभोक्ता बनाती है, वही छवि टीवी पर एक बार खर्च होने; प्रसारित होने के बाद अपने उपजीव्य समाज से बेगानी या अजनबी हो उठती है। छवि दूसरा बड़ा छल यह करती है कि वह व्यक्ति जिसकी वह छवि है वह अपनी छवि को अपनी मानने की गलतफहमी में रहता है जबकि वह छवि उससे दगा कर चुकी होती है। वह समझता है कि वह प्रसारित होकर अधिक बड़ा, अधिक सामाजिक हो गया और ताकतवर हो गया लेकिन यथार्थ में वह और अधिक नाजुक और शीशे की तरह आसानी से टूटने योग्य या विखंड्य हो उठता है। हजारों-लाखों के बीच जाकर आप बदल जाते हैं। आपकी छवि आपको पब्लिक डोमेन में पटक देती है। सबसे जोखिमभरी जगह यही होती है। पब्लिक के होकर आप पब्लिक से दगा कर नहीं सकते जबकि आपकी छवि आप से दगा कर चुकी होती है और वह छवि जनता को आकर्षित कर आपको उसकी मुहब्बत या घृणा का, आलोचना का आकर्षक पात्र भी बना चुकी होती है। नया लोकप्रिय सिविल समाज मीडिया निर्मित इसी पब्लिक डोमेन की चपेट में इन दिनों फंसा है। उसकी तुरंता प्रतिक्रियाओं से; जो इतनी तुरंता न होती तो उसके लिए कहीं बेहतर होता, नहीं लगता कि उसे मालूम है कि वह छवि की लोकप्रियता के तिर्यक बेगानेपन का शिकार हो रहा है और उसकी रक्षात्मक छवि उसके प्रति विकर्षण पैदा करने लगी है। तुरत आकर्षण और तुरत विकर्षण तीसरा छवि छल है जिसे मीडिया बनाता है। जिससे अपना पेट भरता यानी कार्य-व्यापार करता है। जो इस प्रपंच में फंसा वह काम से गया। यह लेखक अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी संकल्प से या उनके सिविल समाज के पुण्य संकल्प से किसी भांति असहमत नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार उन्मूलन समाजोपकारी संकल्पना है और नागरिक जीवन के निर्माण में इस विचार की महती भूमिका है और रहेगी। इस लेखक के मन में इनके साहस के प्रति आदर भाव है। सभी नागरिकों की तरह यह लेखक उम्मीद करता है कि इस सामयिक छेड़छाड़ से वे अपना धीरज नहीं खोएंगे और अपने ऐतिहासिक कर्त्तव्य पूरे करेंगे। इस सिविल समाज की मीडिया निर्मित छवि की उम्र कुल दो-चार दिन की है। सिविल समाज के नायकों की उम्र, समाज के हित में उनकी सक्रियता की उम्र लंबी है। समाजहित में उनकी अनेक स्तरीय भूमिकाएं रहीं हैं लेकिन जंतर मंतर के कवरेज की उम्र चार दो चार दिन की ही है। इसी अवधि में इस समाज को नए अर्थ और नई ऐतिहासिक भूमिकाएं मिली हैं। इस सबके पीछे मीडिया की भूमिका है। उनके मुद्दों की दिनानुदिन स्वीकृति बढ़ाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। उनका आभामंडल अपूर्व हुआ है। उसमें गुणात्मक इजाफा हुआ है। बस यहीं सारे पेच पैदा हुए। मीडिया के लिए जंतर मंतर का अनशनकारी सिविल समाज महज एक बिकने योग्य बाइट-संजाल था। उसके बाद सिविल समाज को लेकर तरह-तरह के नाजुक सवालों को बराबर की जगह देना भी बिकने वाली खबर थी। यही मीडिया का अपना बनाया जनतंत्र है। जो सवाल पहले सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे, भ्रष्टाचार और उससे लड़ाई की कहानी दिन-रात बेचते रहे, वही भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध की कहानी भी बताने लगे। यह मीडिया की सतत अति रही और रहनी है। मीडिया किसी का सगा नहीं होता। मालिक का सगा भले हो जाए लेकिन छवियां तो अपने बाप की भी सगी नहीं होतीं। छवि माया के संजाल की तरह है जो लुभाती है, फंसाती है और उपभोग के बाद चिथड़े बनाकर बाहर उगल देती है। यह किसी ब्रांड की निर्मिति की तरह चलता है।


Monday, April 18, 2011

सिविल सुसटय मुसटय


पहले टीवी में जनता आती-जाती थी। वी द पीपुल लोग हुआ करते थे। अब पीपुल की जगह सिविल सुसटय उग आए हैं। परम्परागत जनता मासेज से पीपुल और पीपुल से पब्लिक बनती गई। वर्ग, जाति, धर्म, लिंग भेद आधारित समूह बनते रहे । गांधी से लेकर इंदिरा गांधी के जमाने तक यह जनता मीडिया में दिखती-छपती रही, देखी जाती रही। जेपी के आंदोलन में जनता सिंहासन खाली करने को कह रही थीिसंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता आई भी अल्पकाल के लिए पर उसके बाद जनता क्रमश: गायब होती गई
शरद जोशी होते तो सिविल 'सुसटय'कहते। बिहार के चुनाव का रिपोर्ताज लिखते। उन्होंने वहां की जनता में सोसाइटी की जगह प्रचलित शब्द 'सुसटय' लिखकर सोसाइटी का एक और पर्याय दे दिया। तबसे सोसाइटी नहीं बोल पाता। सोसाइटी बोलता हूं तो सुसटय निकलता है। सोसाइटी शब्द को सुसटय ने बेदखल कर दिया है। जब से टीवी ने सिविल सुसटय के सहस्र नाम स्त्रोत का लाइव पाठ किया है, तब से सिविल सुसटय का मतलब ढूंढ़ रहा हूं। अर्थ नहीं मिल रहा है। एक्शन मिल रहा है। एक्शन का अपना अर्थ करता हूं तो यह सुसटय कहेगा कि गलत समझते हो। हम वो नहीं जो तुम समझ रहे हो। इसके बावजूद मन अड़ा है कि इस शब्द का मर्म समझूं। हिन्दी का अध्यापक हूं। ठीक-ठीक शब्दार्थ जाने बिना अपना काम नहीं चलता। अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश देखे तो पुराने लगे। फादर के पास गया तो उनके शब्दकोश में सिविल अलग मिला, सोसाइटी अलग पड़ा मिला। सिविल के सामने हिंदी में लिखा था-नागरिक, नागर, शिष्ट, सभ्य! सिविल के आगे कई शब्द लगे हुए दिखे। सिविल सर्विस का मतलब लोकसेवा बताया। सिविलवार का गृहयुद्ध। सिविल में इतनी भी शिष्टता नहीं दिखी कि अपने पीछे वाले शब्द की पूंछ पकड़कर ही ठहर जाता। वह ऐसा शब्द नजर आया जो अपने पीछे वाले शब्द से जुड़कर अर्थ बदलता रहता है। सिविल- सर्विस में लोकसेवा हुआ, सिविलवार में गृहयुद्ध। लगा कि बेसिक लफड़ा सिविल में ही है। शायद सोसाइटी के साथ चिपकाएं तो इससे कु छ सुसटय, मुसटय न बने। फादर बुल्के ने अपने शब्दकोश में 'सोसाइटी' के अर्थ इस तरह बताए-समाज, उच्चवर्ग, संगति, साथ, साहर्चय, संग-साथ, संघ, सभ्य सोसाइटी, संस्था, संसद, सोसाइटी ऑफ जीसस यानी येसु संघ, उच्च्वर्गीय, फै शनेबुल! गल्ले के पास छोटा टीवी देखते हुए एक दुकानदार ने पूछा-सर जी ये सिविल सोसाइटी क्या है? टीवी दिन-रात सिविल सोसाइटी का राग अलाप रहा है? क्या किसी सोप की कोई नई ब्रांड है या निरमा पाउडर का ही नया लांच है? क्या यह कोई नई पार्टी है? क्या संगठन है? नया सीरियल है? रीयलिटी शो है?हमने कहा-सिविल सोसाइटी का मतलब तुम न समझोगे। पहले सिविल बनो फिर सुसटय बनाओ। देखते रहो। मजा लो। ये सिविल बंदों का काम है। तुम्हारे जैसे बीए फेल का नहीं। शब्दकोश के अर्थ उसकी समझ से बाहर थे। सवाल अटका रह गया। सिविल सोसाइटी का माहात्म्य ज्यों-ज्यों लाइव प्रसारण में टीवी के जरिए बढ़ा, त्यों-त्यों यह शब्द परिभाषा मांगने लगा। ऐसा हिट पद और कौन सा रहा जिसने पांच दिन में ही अपनी जरूरत समझा दी। टीवी ने इसकी पदावली अमर कर दी। एक शब्द की महिमा से आकर्षित होकर बयासी लाख रुपये जमा हो गए जिनमें से बत्तीस लाख खर्च भी हो गए। बत्तीस लाख में दरी, पंडाल, पानी, मोमबत्ती, आई होंगी!
पिछले पच्चीस-छब्बीस साल से इस लेखक ने मीडिया, खासकर टीवी देखने-दिखाने का रोग पाल रखा है। उसके हर दिन के बदलते मिजाज को उसके इतिहास को जानता है। उसकी लीला, उसकी ताकत, उसके धंधे को भी पहचानता है। मानता है कि इस युग का निर्णायक तत्व टीवी है। वह जिंदगी को अतिचंचल भाव से भाषित-परिभाषित-आभासित करता है। मारकेट बनाता है। प्ॉापुलर पोस्टमॉडर्न टीवी में जिंदगी आइटम बनती है, ब्रांड बनती है, उपभोग बनती है। बड़े पैसे का हाइपर रीयल है। इलेक्ट्रानिकी पीढ़ी का खेल है। मोबाइल है, फे सबुक है, ट्विटर है। सब मिलकर अलग साइबर कम्युनिटी बना रहे हैं। साइबर में साइबर होते हैं। जमीन पर उतरकर सिविल सुसटय हो जाते हैं। टीवी ने इस सुसटय तत्व को गोद ले लिया है। पुरानी जनता को खारिज कर दिया है। पहले टीवी में जनता आती-जाती थी। 'वी द पीपुल' लोग हुआ करते थे। अब पीपुल की जगह सिविल सुसटय उग आए हैं। परम्परागत जनता मासेज से पीपुल और पीपुल से पब्लिक बनती गई। वर्ग, जाति, धर्म, लिंग भेद आधारित समूह बनते रहे। गांधी से लेकर इंदिरा गांधी के जमाने तक यह जनता मीडिया में दिखती-छपती रही, देखी जाती रही। जेपी के आंदोलन में जनता सिंहासन खाली करने को कह रही थीिसंहासन खाली करो कि जनता आती है। वह आई भी पर अल्पकाल के लिए। उसके बाद जनता क्रमश: गायब होती गई। समाज सुसटय हो गया है। सुसटय मुसटय हो रहा है। सिविल सुसटय समाज की पोस्टमॉडर्न अदा है। थियरी में वह रोबर्ट पुटनम से काम पाती है। जनतंत्र और पूंजीवादी विकास उसके पालने हैं। सिविल सुसटय राज्यसत्ता और बाजार दोनों के बरक्स एनजीओ या समानविश्वासी समूह के रूप में समाज का तीसरा पाया है। यह आजकल के समाज में ज्यादा मजबूत होता जा रहा है। इतिहास कहता है कि सिविल सुसटय की वर्तमान अवधारणा और संस्करण नवें दशक की वाशिंगटन सर्वानुमति से निकले हैं जिसके पीछे र्वल्ड बैंक और आईएमएफ खड़े थे। तभी से जनतंत्र में दलेतर सरकारेतर प्रतिनिधिन; रिप्रेजेंटेशन की पवित्रता उभरी। इस संस्थान को वैधेतर वैधता मिली। एक विचारक जय सेन कहते हैं कि ये संस्थान नव उपनिवेशवादी योजना वाले हैं जिन्हें ग्लोबल शक्तियां चलाती हैं। हमें यकीन नहीं होता। ये मधुर-मधुर मेरी मोमबत्ती जलाने वाले जन खुद ग्लोबल स्वयंसेवक हैं, स्वयंचालित हैं। खुद चले हुए हैं। इन्हें कौन चलाएगा!
देखिए ना! चले थे सिविल सुसटय ढूढ़ने। मिले ये मुसटय! खोदा समाज और निकला मुसटय! इस मुसटय लेखक का संकल्प है कि अगली बार तुम मुझसे मिलने ताजमहल में शमा जलाने आ जाना की र्थडरेट गजल गाते हुए एक मोमबत्ती जरूर जला डालूंगा। आप बता दें-कहां? दिल्ली गेट पर या इंडिया गेट पर? कश्मीरी गेट पर या लाहौरी गेट पर? अजमेरी गेट या टू जी स्कैम गेट पर! 'आदर्श' दहलीज पर। अब तो आए दिन ऐसे 'स्मारक' बनते ही जा रहे हैं।



Sunday, April 10, 2011

सिविल सोसाइटी


यह एक परम नैतिक विमर्श था जो इस नये पूंजीवाद में ग्लोबल लाभ-लोभ की होड़ा-होड़ी में किसी को अंतर्विरोधरहित नहीं रहने दे सकता। ऐसे में पिछले उदारीकरण के दौर में विकसित सिविल सोसाइटी का क्या हर चेहरा इतना स्वस्थ प्रसन्न और पांच रुपये का मोमबत्तीवादी हो सका है कि उसमें उसकी निर्मिति परम नैतिक बनी रहे? भई, सिविल सोसाइटी सवालों से तो ऊपर नहीं हो सकती। जितने सवाल सरकार से किए गए उतने न सही लेकिन कुछ सवाल को सिविल सोसाइटी से करने ही चाहिए
अंतत: भ्रष्टाचार के खिलाफ दृश्यमान आंदोलन की प्रस्थापनाएं कानूनी से ज्यादा नैतिक ही रहीं। यही नहीं परम नैतिक रहने की हिफाजत के लिए कानूनी सहारे ही लेने पड़े। इसका अर्थ हुआ कि नैतिकता भी कानूनी ही रहनी है। यह उस आंदोलन की अपनी प्रस्थापना-निहित समस्या है जिसे सिविल सोसाइटी ने बनाया है। यह सिविल सोसाइटी पद मीडिया का नया अर्थपूर्ण कंटेक्स्ट है जिसे पढ़ना-समझना दिलचस्प है। यह उत्तर आधुनिक दशाओं में बनता नया समाजशास्त्रीय पद, जो अंतर्विरोध रहित नहीं है, जो शायद अंतर्विरोधों को समारोहित ही करता है। सिविल सोसाइटी नए समय के ग्लोबल एलीट की निर्मिति है। इसके अपने नाज-नखरे हैं। इसका अपना ग्लैमर है। यह एक रूपंकारी- अहंकारी निर्मिति है। यह परम्परागत राजनीतिक एलीट का स्पर्धी होना चाहता है। यों 'सिविल सोसाइटी पद' अक्सर फेसबुक, ट्विटर और मीडिया के हल्कों में पिछले अरसे से अक्सर सुनाई देता रहा है लेकिन जंतर मंतर से अन्ना हजारे के आमरण अनशन के लाइव प्रसारण में यह शब्द सर्वाधिक उपयोग में लाया गया। यह जिनके लिए उपयोग में लाया गया वे दृश्य में अक्सर आते रहे या कि उन्हें यह पद नवाजा गया। इस तरह यह लाइव पद बना जो शब्दकोश से बाहर आ गया और रूपंकरता में ढल गया। 'जनता' की जगह 'सिविल सोसाइटी' ने टेक ओवर कर लिया। मीडिया ने इसे 'अनक्रिटीकली' आसानी से सम्भव किया। वह इस पर लगभग लपक पड़ा। हम इसे क्रमश: बनते और एक तरलार्थ लेते देख सकते हैं लेकिन यह नहंीं भूलना है कि इस पद का और उसके अर्थ का उपयोग और निर्माण सर्वाधिक मीडिया ने किया। मीडिया का निर्माण कौन करता है, यह बताने की जरूरत नहीं! जब कोई पद मीडिया में लगातार दोहराया जाता है तो उसमें अर्थ की उच्छलता पैदा हो जाती है। वह अपनी हदें पार कर जाता है। अनुशासन से बाहर हो जाता है, स्थिर नहीं हो पाता और लगातार 'अंतर्पाठीयता'
में, एक प्रकार के घूर्णन में रहता है। जो इस पद को लगातार अस्थिर करती है। इसीलिए इस सिविल सोसाइटी और उसकी लीला के अनंत अर्थ हैं जो एकदू सरे से टकराते हैं। इस मानी में यह 'मुक्त पद' है और 'मुफ्त पद' भी है। जब अनशन खत्म हुआ और आखिरी घंटों का कवरेज आया तो उसमें किंचित अराजकता-सी दिखी। जो कुछ सामने था उसका कोई एक कमांडर नहीं था। लगता था लोग अभी दृश्य में रहने से ऊबे नहीं हैं। इसीलिए आखिरी वक्त में कुछ ऐसी बातें बार-बार कही गईं कि यह अंत नहीं हैं। यह भी कहा गया कि आगे के लिए संगठन चाहिए लेकिन संगठन और सिविल सोसाइटी! बेर-केर का संग कैसे निभेगा? शायद यह सोचकर चतुर सुजानों ने संगठन चरचा को आगे नहीं बढ़ाया। इससे यह भी साफ हुआ कि सिविल सोसाइटी के लोग किसी के नुमाइंदे नहीं थे या पक्के नुमाइंदे नहीं थे तो भी आखिरी दृश्य में सब अतिप्रसन्न थे। इस प्रसन्नता को बार-बार बताना पड़ रहा था। यह दृश्य की जरूरत थी। सरकार ने मागें मान ली थी। चार सौ दिन न मानने वाली सरकार चार-पांच दिन में झुक गई थी! यह सिविल सोसाइटी के उन नायकों की एक बड़ी विजय की समस्यापूर्ण घड़ी थी जिसे अनुशासित करने के अपने डर थे। यह देखना जरूरी था कि इन आखिरी क्षणों में क्या होता है। ये जो अचानकता लिए, आनंदातिरेक से भरे 'यूफोरिक' पल हैं, वे कैसे गुजरते हैं। यह आनंदातिरेक वह तत्व था जो वक्ताओं को विचलित-सा किए था। मीडिया, उसके चैनल स्वयं इसको कवर करते हुए इस पल को सम्भालने में असमर्थ नजर आते थे क्योंकि इसकी पटकथा पहले से तैयार नहीं की गई थी। इससे साफ है सिविल सोसाइटी और मीडिया द्वारा कल्पित एवं लक्षित समाज के बीच लगभग एक सूत्रता-सी थी। मीडिया को अपना समाज मिल गया था। लाइव और धड़कता, न्याय मांगता और नारे लगाता हुआ। सुंदर मिडिलक्लासी दृश्य बनाता हुआ, जिसमें मैली-कुचैली जनता नहीं थी। जनता अनसिविल हो सकती है। सिविल सोसाइटी सिविल ही होगी! यह एक नई विराट 'निर्मिति' थी जिसे मीडिया शायद पहली बार बना रहा था। जिसके पीछे ट्विटर, फेसबुक के नेटवर्क संजालों की आवाजें सक्रिय थीं। जो मीडिया को अति प्रिय थी। जो मिस्र के तहरीर चौक को जंतर मंतर पर बिना किसी रिस्क के कल्पित करके रोमांचित होती दिखती थी। लाइव मीडिया कवरेज, लाइव इतिहास-सा बनाता लगता है। वे लोग जो मीडिया की इतनी खुली उपस्थिति को लेकर सक्रिय होते हैं वहां मीडिया अधिक लोगों को आकर्षित करता है। वे दृश्य में स्वयं को लाकर इतिहास में आ जाने को लालायित रहते हैं और वे मीडिया की सुरक्षा में रहते हैं कि अगर उनके साथ कुछ हुआ तो वे अकेले नहीं होंगे। स्वयं दृश्य बनना या सबको दृश्य में आ सकने का न्योता जब मीडिया देता है तो कई और बातें भी होती हैं जो इस बार भी देखने को मिलीं। यह सिविल सोसाइटी के अर्थ की व्याप्ति से ताल्लुक रखती हैं। हम यहां न तो अन्ना हजारे की तुलना गांधी से करना चाहेंगे, न जेपी से। यद्यपि अन्ना को जिस तरह मीडिया ने प्रस्तुत किया वह स्वयं तुलनात्मक अध्ययन के लिए मजबूर करता है लेकिन यहां अवकाश नहीं है। हमारा मकसद मीडिया के सकल कवरेज में बने सिविल सोसाइटी पद के अर्थो को समेटना भर है। अनशन टूटने के बाद के पलों में सिविल सोसाइटी ने बताया कि यह जनता की जीत है! इस सोसाइटी में जब कुछ नेताओं ने घुसपैठ बनाने की कोशिश की तो उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया क्योंकि सबके लिए एक नैतिक शर्त थी कि वही आ सकता है, जो बेदाग है। जबकि यह नहीं जाना गया कि शामिल लोगों में से सचमुच कौन-कौन ऐसा है जो सौ टका ईमानदार-बेदाग हो! दाग जब तक छिपा रहता है, आदमी बेदाग होता है। जब खुल जाता है तब दागदार हो जाता है। यह एक परम नैतिक विमर्श था जो इस नये पूंजीवाद में ग्लोबल लाभ-लोभ की होड़ा-होड़ी में किसी को अंतर्विरोधरहित नहीं रहने दे सकता। ऐसे में पिछले उदारीकरण के दौर में विकसित सिविल सोसाइटी का क्या हर चेहरा इतना स्वस्थ प्रसन्न और पांच रुपये का मोमबत्तीवादी हो सका है कि उसमें उसकी निर्मिति परम नैतिक बनी रहे? भई, सिविल सोसाइटी सवालों से तो ऊपर नहीं हो सकती। जितने सवाल सरकार से किए गए उतने न सही लेकिन कुछ सवाल को सिविल सोसाइटी से करने ही चाहिए!

Sunday, April 3, 2011

नया देहवाद


सिर्फ तुरंता ही नहीं, हर वक्त तुरंत होते रहना, हर समय 'कंटीन्यूंइग' मल्टी हाइपर रीयल। अनंत चंचलताएं एक साथ। व्यक्ति को मीडिया की मिक्सी में हर समय मिक्स होते रहना है तब कही जाकर उसे 'होना' है। समय की चंचल क्षणता का ऐसा उत्कट अनुभव इस टीवी युग से, साइबर युग से पहले कभी नहीं था। यह नया देह- वाद है। देह इस समय की सबसे बड़ी 'समस्या' है
पूनम पांडे नामक मॉडल ने ऐलान किया है कि अगर टीम इंडिया मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में र्वल्ड कप जीतती है तो वह नंगी होंगी। उनका परिवार इस 'पवित्र कार्य' में बेटी के साथ है। वह टीम के कमरे में प्राइवेटली कपड़े उतार सकती हैं या उसकी खातिर पब्लिक में ऐसा कर सकती हैं। वह कोई लॉ-आर्डर प्राब्लम नहीं चाहतीं। इस सुपर बोल्ड ऐलान के बाद पूनम पांडे मीडिया पर छा गई हैं। क्या टाइमिंग है और कैसी पोजीशनिंग है? स्पांसर उसके लाइव होने के लिए मुहमांगी रकम दे सकते हैं। मीडिया के 'मेल-गेज' मर्दों द्वारा फिल्मों में दिखती औरतों को कामुकता से घूरने की क्रिया के लिए खास प्रयुक्त तकनीकी केलिए वे एक सुपर सेक्सी आइटम हैं। वो होंगी तो उस समय में मीडिया 'होगा', 'हो रहे' को लाइव दिखाएगा- बताएगा। उनके ऐलान ने र्वल्ड कप को चीयर लीडर्स के सेक्सवादी अभाव से भर दिया है। वे जीत की खुशी में 'नंगी होना' चाहती हैं। वे ऐसा 'होने' के लिए बजिद हैं। शर्त इतनी है कि भारत जीते। भारत में निहित 'मर्द तत्व' को रिझाने के लिए एक मॉडल नंगी हो रही है। लंपट मर्द तत्व उतना ही चकित है। उसके मुंह में पानी आ गया होगा। इस खबर में एक चीत्कार पढ़ा जा सकता है। आश्र्चय है कि यह अभी तक आपत्तिजनक नहीं माना गया!
यहां नंगत्व पर जितना जोर है उतना ही होने पर है। यह 'होना' आज के मीडिया के मर्दवादी मारकेट की 'निर्मिति' है। रीयलिटी शोज के इस लाइव समय में ऐसा लाइव होना ही 'होना' है। इस होने की अपनी सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं। मीडिया ने अपनी लीला से हर क्षण को ऐसा 'उत्तप्त' बना डाला है कि हर व्यक्ति 'तप्त' होते रहना चाहता है। तप्त होने से तृप्ति नहीं होती तो भी तप्त होते रहना चाहता है। यह निजता का नहीं, आत्म का नहीं, सीधे बॉडी का ही 'मीडिया' बन जाना है। देह का 'मीडिया' हो जाना नई बात है। क्रिकेट के लाइव प्रसारण ने इसे चलन बनाया है। गालों पर, माथे पर, सिर पर, झंडा पेंट कराके टीवी कैमरों को अपनी लॉयल्टी और खुशी दिखाने को मचलता है तो वह देह को एक 'माध्यम' में बदल रहा होता है। यह मीडिया का होना नहीं मीडिया-समय में देह का स्वयं मीडियामय होते रहना है। उसे निंरतर होते रहना है। इतना निंरतर कि अंतर-निरंतर का भेद न रहे। मामला मारकेट की दार्शनिक हद को छूता है जिस पर यहां विस्तृत र्चचा संभव नहीं। इस तरह यह 'हो रहा' मीडिया-समय है। हर चीज 'होना' चाहती है। वह 'होने' से पहले भी है लेकिन फिर बार-बार 'होते रहना' चाहती है। यह अस्तित्ववाद से बहुत आगे का मामला है। एकदम पोस्टमॉडर्न क्षण है कि हर हुई चीज भी हर वक्त होते रहना चाहती है। यहां 'होने' में नया कर्ता-भाव है। अपने होने को कोई 'करना' चाहता है और इस तरह सिर्फ 'होना' चाहता है। हिंदी में 'होना' अनुपूरक क्रिया पद है। अब यही 'कर्म' बनी जा रही है। यही विशेषण बनी जा रही है। 'होना' का व्याकरण 'हो रहा' है। एक क्रिया सब क्रियाओं का पर्याय बन रही है। हिंदी का 'होना' अंग्रेजी के 'हेप्पिनिंग' के हिंदी अनुवाद की तरह समझा जा सकता है। अंग्रेजी में इससे जुड़ा 'हैप' शब्द भी चलता है। जिसका मतलब 'तमाशा होने या फैशन में होने या चर्चित होने' से लिया जाता है। वह बड़ा 'हैप' है का मतलब है कि वह वैसा 'होता' रहता है। 'हैप' एक डांस स्टायल भी है जो रैप का छोटा भाई है। जो कल तक 'रैप' था वह अब 'हैप' है। 'होना' क्रिया हिंदी में इस तरह विचारी नहीं गई। इन दिनों में 'होने' में बड़ी सांस्कृतिक अनुगूजें सुनाई-दिखाई पड़ती हैं। यह टीवी की 'संचार-क्रिया' है। आभासी यथार्थ की सकर्मकता है। वर्चुअल माध्यम की क्रिया है कि उसमें 'होना'
होना है। उसमें होते रहना होना है। जब तक आप किसी माध्यम में 'हो रहे'
हैं, आप हो रहे हैं यानी आप जीवित हैं। जब आप उसमें नहीं होते तो आप जहान में नहीं होते। यह दृश्यचाद और दृश्यमान का जबर्दस्त प्रपंच है। 'आंख ओझल तो पहाड़ ओझल'
कहा जाता था। अब आभास से ओझल, टीवी से ओझल तो दुनिया से ओझल माना जाता है। और इस सतत दृश्यात्मकता के सुपर कंपटीशन के समय में व्यक्ति 'न हुए' नहीं रह सकता। उसकी नियति है कि उसे 'होते रहना' है। अगर वह न होता रहा तो निर्जीव है। उदाहरणों की कमी नहीं है। अति दृश्यमान शाहरुख खान की 'माई नेम इज खान'
पिटी तो वे रीयलिटी शो लेकर टीवी पर आ विराजे। कल की सुपर हीरोइन माधुरी दीक्षित को भी टीवी का ताजा दृश्य होना जरूरी हो गया। हाय! यहां नहीं थे तो जीवित नहीं थे। टीवी अब 'हैप' माध्यम है। हीरो, हीरोइन, मॉडल, डिजाइनर, सेलीब्रिटी, नेता, बड़े लोग और आम पब्लिक टीवी को हैप माध्यम मानती है। वहां हैं तो हैं वरना नहीं हैं। स्पेस की लड़ाई है। उसके लिए मारा-मारी है। टीवी वह चिर भुक्खड़ दैत्य है जिसे 'होते रहना'
है। उसमें आपको 'होते रहना' है। यह निरंतरता मारे डाल रही है। इस निंरतरता में अपने को 'होता हुआ' बनाना कठिन काम है। हर व्यक्ति होने की बात करेगा तो एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा लोग, एक सौ इक्कीस करोड़ से कई गुना ज्यादा दृश्य बनेंगे। सब नहीं 'हो सकते'। कुछ ही 'होते' रह सकते हैं। 'होते रहने' का खेल महंगा है। अंग्रेजी में 'हैप' है तो 'हाइप' है। 'हैप' है तो 'होप' है। हैप है तो हेप्पीनेस है। हैप है तो सब कुछ है। एकदम इंस्टैंट और सिर्फ तुरंता ही नहीं, हर वक्त तुरंत होते रहना, हर समय 'कंटीन्यूंइग'! मल्टी हाइपर रीयल। अनंत चंचलताएं एक साथ। व्यक्ति को मीडिया की मिक्सी में हर समय मिक्स होते रहना है तब कही जाकर उसे 'होना'
है। समय की चंचल क्षणता का ऐसा उत्कट अनुभव इस टीवी युग से, साइबर युग से पहले कभी नहीं था। यह नया देहवाद है। देह इस समय की सबसे बड़ी 'समस्या' है। ऐसे समय में सूरदास का एक पद याद आता है -'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल'! यहां देहवाद का 'संपूर्ण रूपक' है! पठनीय है!