Sunday, March 27, 2011

नया मध्यवर्ग और नया टीवी


धन और हैसियत के दिखावे के मामले में नए मध्य वर्ग में व्यापक एका नजर आती है। यहां धर्म-भेद, जाति-भेद नहीं नजर आते। सीरियलित और विज्ञापित दृश्य में और साक्षात जिंदगी के दृश्य में कोई फर्क नहंीं रह गया है। आप ही नायक! आप ही गाहक!! आप ही भोग! आप ही उपभोग!! इस तरह 'मध्यवर्ग ही मध्यवर्ग का भोजन' हो रहा है. इसे अंग्रेजी में 'सेल्फ कंजप्शन' कहा जा सकता है। हिंदी में इस पद का अनुवाद 'आत्मोपभोग' हो सकता है। हमारा मीडिया मध्यवर्ग के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है! मीडिया को अगर आगे विकास करना है तो इस 'आत्मोपभोग' के कुचक्र से बाहर निकलना होगा
उच्च मध्यवर्ग ने टीवी का 'सम्पूर्ण टेक ओवर' कर लिया है! यह एक सरल- सहज सी घटना है जिसको अलग से या फिर से कहना 'सत्य का दुहराव' कहा जा सकता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि नए टीवी ने नए मध्यवर्ग का पूरा अधिग्रहण कर लिया है। हड़प-गड़प लिया है। यह बात इन दिनों जितनी महसूस होती है पहले नहीं हुई। यह लेखक पिछले पच्चीस से अधिक बरसों से टीवी की नियमित समीक्षा करते हुए अचानक पाता है कि इन दिनों दृश्यमान मध्य वर्ग एक दम बदल गया है। उसकी जितने भी प्रकार की छवियों दिखलाई पड़ती हैं उनमें वह बुरी तरह आत्मकेंद्रित, लालची, पैसाखोर, चमकीला और हर दम दनदनाता हुआ दिखता है। पिछली सदी के सन नब्बे से पहले के मध्यवर्ग में एक प्रकार का 'ब्लेक व्हाइटपना' था। कुछ मटमैला सा कुछ काम करता, नौकर ढूंढता, भागता-दौड़ता नजर आता था। पूरी तरह भाग्याधीन न रहकर मेहनत से अपनी हैसियत में सुधार,परिवार की जिम्मेदारी और न्याय-अन्याय के कुछ परम्परागत मानकों की परवाह कुछ लाज लिहाज नजर आता था। निर्लज्जता, जिददीपन और बदलाखोरी खलनायक के खाते में जाती थी। नायक-खलनायक के बीच एक लक्ष्मण रेखा बनी रहती थी। अब वह रेखा मिट चली है। नायकत्व या खलनायकत्व का भेद मिट गया है। जिस तरह की छवियां इन दिनों अरबों-खरबों के स्कैमों-स्केंडलों की कहानियों के बीच नजर आती हैं वे अति स्वस्थ, अति ताकतवर और किसी भी किस्म के पश्चाताप से मुक्त नजर आती हैं। खबरों में हर जगह ताकतवर आकर बैठे रहते हैं। वे ही खबर के उत्स होते हैं। उसके स्वामी होते हैं। उसके व्याख्याकार होते हैं और वे ही उस खबर में जताई गई समस्याओं का समाधान भी सुझाते हैं। दिया हुआ रोग उनका। निदान उनका और दवाई भी उनकी! गजब का चक्र है। उदाहरणों की कमी नहीं है। एक शाम नहीं, दूसरी शाम तक प्रमुख समय में दुनिया के दो बड़े धन्ना सेठ इस देश के दर्शकों को बताने लगे कि दान का महत्त्व समझिए। वे स्वयं महादानी हैं। अकूत कमाई की है और अब आपको बताने आए हैं कि दान करना चाहिए। यहां के सेठों को दान भाव सीखना चाहिए। दान करना चाहिए तो दान का तरीका आना चाहिए। दान का तरीका हमारा है। दान में भी हमारी प्राथमिकताएं हैं। हमने दान किया है तो दान का एजेंडा पहले ही बना दिया है। हम सरकारों को दान देते हैं। एनजीओ को दान देते हैं। इसके लिए हम अपने एजेंडे को संग देते हैं। इसके फॉलोअप में मीडिया में सर्वत्र समझाया जाने लगा कि हिंदुस्तान के सेठों को दानशील होना चाहिए। दो अमेरिकन धन्ना सेठों की दानलीला की पुण्यकथा का श्रवण-कीर्तन अर्चन दो नामी अंग्रेजी पत्रकारों ने किया। एक ऐसा सवाल न हुआ जो पूछ सकता कि हे दानवीर महोदय ! ई मनी कइसे और कहां से कमाई? एक ने स्टाक मारकेट से कमाई। एक ने साइबरी क्रांति से कमाई। इनके रहते अमेरिकन इकनामी डूबी तो डूबी क्यों?आप अपना दान अपने देश की गरीबी को दूर करने के लिए क्यों नहीं लगाते? यह संसार का सबसे धनाढ्य तबका था, जो नए धनाढ्य तबके से ही मुखातिब था। सीधे टीवी पर आकर बैठ गया था और खुश था कि देखो इस मुल्क को भी उपदेश देने आना पड़ा है। इसकी चरचा में एड्स की चपेट में आए लोग ज्यादा थे। टीवी की चपेट में आ रहे लोग कम थे! यह मध्यवर्ग नया बिजनेस मध्यवर्ग था जो बिजनेस घरानों को नसीहत दे रहा था जबकि ओबामा कुछ दिन पहले ही कटोरा लेकर साठ हजार नौकरी का दान इसी 'गरीब सरकार' से लेकर गए थे!
बहरहाल, मध्यवर्ग के बाजार में अगले दिन ही उछाल आ गया था। यह नए मध्यवर्ग द्वारा दी गई दानवीरों की खुशखबरी का असर था या क्या कि मारकेट उछाल पर आ गया था। इधर उवाचा, उधर जापान के सुनामी संकट के बाद डूबा बाजार उछला! आत्मोपभोग की इससे बेहतर मिसाल क्या हो सकती है। नया मध्य वर्ग बड़े लोगों का मध्य वर्ग है। इसकी मिसाल संसदीय कवरेज में नजर आती है। हर दल हर सांसद सिर्फ अपनी कंस्ट्ट्वेिंसी को सम्बोधित करता नजर आता है। अपने संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं देखता। यह राजनीति का आत्मोपभोग है। मनोरंजन के क्षेत्र में आत्मोपभोग की अखंड लीला चल रही है। इन दिनों टीवी पर मध्य वर्ग समग्रत: बिराज गया है। एक सीरियल याद करें जो तीन करोड़ की शादी कराता है। शादी दिखाता है। लोग उसे देख शादी सीधे प्रसारित करने पर आमादा हैं। 10-15 साल पहले रिसेप्शन पर बड़ी स्क्रीन लगाकर कवरेज का तरीका अपनाया गया। फिर स्थानीय केबल के जरिए स्थानीय शादी का कवरेज कराया जाने लगा और अब कुछ चैनल मनोरंजन के नाम पर किसी नए धनपति की शादी को लाइव कवर करने को लालायित रहते हैं। धन और हैसियत के दिखावे के मामले में नए मध्य वर्ग में व्यापक एका नजर आती है। यहां धर्म-भेद,जाति-भेद नहंीं नजर आते। एक नेता ने दिल्ली में अपनी संतान की शादी में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर दिए। इसकी खबर अंग्रेजी के अखबारों और कुछ चैनलों ने दी। नए हिंदू धनपति की विनम्रता तो देखिए कि उसने शादी में मीडिया की घुसपैठ की 'शिकायत' भी मीडिया से की! अब तक पश्चिमी यूपी के किसान परिवारों के दूल्हे हेलीकॉप्टर पर शादी करने पहुंचते थ।े दिल्ली वाली शादी में दूल्हे को हेलीकॉप्टर दहेज में दिया गया! मेरठ जनपद से एक खबर आई है कि एक मुस्लिम परिवार की शादी में हर बराती को एक-एक मोटरसाइकिल दी गई और वर पक्ष को पांच किलो सोना दहेज में दिया गया!
लगता है कि सीरियलित और विज्ञापित दृश्य में और साक्षात जिंदगी के दृश्य में कोई फर्क नहंीं रह गया है। आप ही नायक! आप ही गाहक!! आप ही भोग! आप ही उपभोग!! इस तरह 'मध्यवर्ग ही मध्यवर्ग का भोजन' हो रहा है. इसे अंग्रेजी में 'सेल्फ कंजप्शन' कहा जा सकता है। हिंदी में इस पद का अनुवाद 'आत्मोपभोग' हो सकता है। हमारा मीडिया मध्यवर्ग के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है! अब 'आम आदमी' या 'आम जनता' शब्द कम सुनाई पड़ते हैं!
मीडिया को अगर आगे विकास करना है तो इस 'आत्मोपभोग' के कुचक्र से बाहर निकलना होगा!

हिंदी पत्रकारिता का वृहद इतिहास


आज के युवा पाठकों से दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, नीहारिका, माया, राष्ट्रवाणी, अणिमा, अमिता, कंचनप्रभा और रविवार के बारे में पूछा जाए तो उनमें से बहुतों ने तो शायद इनका नाम तक न सुना हो। एक समय था जब इन पत्र-पत्रिकाओं की धूम थी। इनमें किसी पाठक-लेखक का पत्र भी छप जाता, तो वह चर्चा का विषय बन जाया करता था। तब पत्रिकाएं इसी तरह लेखकों को जन्म भी दे दिया करती थीं, लेकिन अब उनमें से ज्यादातर अपनी भूमिका निभाकर विदा हो चुकी हैं। समय की जरूरत पूरी करने वाली इन पत्र-पत्रिकाओं के ऐतिहासिक अवदान को सहेजने-संभालने का बीड़ा उठाया वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने। उन्होंने चार खंडों में हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं पुस्तक के माध्यम से यह काम बखूबी पूरा किया है। हिंदी भाषा की साप्ताहिक और दैनिक पत्रकारिता का अध्ययन करती इस शोध परियोजना की कड़ी में नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, नई दुनिया, स्वतंत्र भारत तथा अमर उजाला पर आधारित शोधपत्र अमरेंद्रकुमार राय, शिवअनुराग पटैरिया, रजनीकांत वशिष्ठ, बच्चन सिंह तथा अभय प्रताप ने तैयार किए हैं। किताब के चौथे खंड में राजस्थान पत्रिका, युगधर्म, दैनिक भास्कर, देशबंधु, स्वदेश तथा प्रभात खबर का अध्ययन अचला मिश्र, अंजनीकुमार झा, सोमदत्त शास्त्री, डॉ. देवेशदत्त मिश्र, रामभुवन सिंह कुशवाह और जेब अख्तर ने आलेख लिखे हैं। 21 सितंबर, 1947 को कानपुर से दैनिक जागरण का प्रकाशन शुरू हुआ। इसके संस्थापक-संपादक पूर्णचंद्र गुप्त थे। बाद में उनके पुत्र नरेंद्र मोहन ने इसका संपादन भार संभाला और इसका बहुमुखी विकास किया। उनके बाद संजय गुप्त दैनिक जागरण के संपादक हैं। आज यह देश का सबसे बड़ा अखबार है। दैनिक जागरण शुरू होने के कुछ दिन बाद 18 अप्रैल, 1948 को अमर उजाला का प्रकाशन शुरू हुआ था। इस किताब के चौथे खंड में राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, देशबंधु, स्वदेश और प्रभात खबर के इतिहास के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है जो नई पीढ़ी के लिए प्रेरक जानकारियों से भरा है। इस शोध परियोजना में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और रविवार जैसी पत्रिकाओं का चुनाव ठीक ही किया गया है, क्योंकि स्वातं˜योत्तर भारत की लगभग आधी सदी तक इन्हीं पत्रिकाओं के जरिये हिंदी पाठकों को मानसिक पोषण हासिल होता रहा। साप्ताहिक हिंदुस्तान का प्रकाशन लगभग 42 वर्ष तक हुआ, जिसका संपादन मुकुटबिहारी वर्मा, बांकेबिहारी भटनागर, रामानंद दोषी, मनोहरश्याम जोशी, शीला झुनझुनवाला, राजेंद्र अवस्थी तथा मृणाल पांडे ने किया। मनोहरश्याम जोशी ने इसे पत्रकारीय उत्कर्ष प्रदान किया था। सन 1950 में इलाचंद्र जोशी के संपादन में शुरू हुए धर्मयुग को बाद में धर्मवीर भारती जैसा यशस्वी संपादक मिला, जिसने लगभग 21 वर्ष तक इसका संपादन कर इसे हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय साप्ताहिक बना दिया। किसी लेखक की मात्र एक कहानी-कविता धर्मयुग में छप जाने पर उसे अखिल भारतीय ख्याति मिल जाया करती थी। अज्ञेय के संपादन में सन् 1965 में समाचार और विचार की पत्रिका दिनमान का प्रकाशन शुरू हुआ था। विषयवस्तु, प्रस्तुति और मानक हिंदी भाषा के प्रयोग से दिनमान ने प्रतिष्ठा का शिखर छू लिया। साहित्य, संस्कृति, कला, संगीत, आधुनिक विचार के साथ राजनीति तथा समाज में घट रही घटनाओं पर विचारपरक टिप्पणियों के कारण दिनमान ने बौद्धिक दुनिया में खुद को स्थापित कर लिया था। अज्ञेय के बाद रघुवीर सहाय और कन्हैयालाल नंदन इसके संपादक बने। आपातकाल के बाद आनंद बाजार पत्रिका ने समाचार-विचार का साप्ताहिक पत्र रविवार शुरू किया, जिसे सुरेंद्रप्रताप सिंह ने बहुत कम समय में हिंदी की अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका बना दिया। इससे हिंदी पत्रकारिता को नई दिशा और गति मिली। उदयन शर्मा, संतोष भारतीय, अरुणरंजन, संतोष तिवारी, स्वामी त्रिवेदी, नवेंदु, श्रीकांत तथा ईशमधु तलवार जैसे तमाम पत्रकारों को धार और धारा देने का काम उस समय रविवार ने ही किया था। इस किताब के दूसरे खंड से पता चलता है कि मार्च, 1920 से दैनिक आज का प्रकाशन वाराणसी से शुरू हुआ, जिसे बाबूराव विष्णु पराडकर ने अपने कुशल संपादन से प्रतिष्ठा दी। बाद में खाडिलकर, विद्या भास्कर, कमला प्रसाद त्रिपाठी, चंद्रकुमार, ईश्वरचंद्र सिन्हा, मोहन लाल गुप्ता तथा लक्ष्मीशंकर व्यास जैसे संपादकों ने इसे गति दी। इसी तरह 12 अप्रैल, 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय हिंदुस्तान का प्रकाशन शुरू हुआ। नागपुर से नवभारत का प्रकाशन सन् 1938 में अ‌र्द्धसाप्ताहिक के रूप में हुआ था, जिसे सन् 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन के समय दैनिक अखबार का रूप मिला, जो अब तक चल रहा है। राम नारायण चौधरी का नवज्योति सन् 1936 में अजमेर से मासिक पत्र के रूप में शुरू हुआ। बाद में साप्ताहिक हुआ और सन् 1948 से अब तक दैनिक के रूप में निकल रहा है। नवभारत टाइम्स का प्रकाशन सन् 1947 में शुरू हुआ था। सत्यदेव विद्यालंकार, अक्षयकुमार जैन, अज्ञेय, राजेंद्र माथुर, सुरेंद्र प्रताप सिंह, विष्णु खरे, विद्यानिवास मिश्र, सूर्यकांत बाली, रामकृपाल, विश्वनाथ सचदेव और मधुसूदन आनंद इसके संपादक हुए। 15 अगस्त, 1947 को लखनऊ से स्वतंत्र भारत का प्रकाशन शुरू हुआ। अशोक जी और योगेंद्रपति त्रिपाठी इसके संपादक रहे। एक समय अत्यंत लोकप्रिय रहा यह अखबार अब अपना तेज खो चुका है।


Tuesday, March 22, 2011

अगले पांच साल में ऊंची उड़ान भरेगा भारतीय मीडिया उद्योग


कंपनियों के विज्ञापन खर्च में हुआ 17 प्रतिशत का इजाफा
उद्योग की औसत वार्षिक वृद्धि 14 फीसद रहने के आसार
कुल कारोबार 28 अरब डालर तक पहुंचने की उम्मीद
मीडिया क्षेत्र में बढ़ते कारोबार और विज्ञापन खर्च में तेजी से आते सुधार के बाद भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग की औसत सालाना वृद्धि 14 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। फिक्की-केपीएमजी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 तक भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग 1,27,500 करोड़ रुपए (करीब 28 अरब डालर) का हो जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2010 में मीडिया और मनोरंजन उद्योग में 2009 के मुकाबले 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई और यह 65,200 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। इस साल इसमें 13 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है। रिपोर्ट को औपचारिक तौर पर फिक्की फ्रेम्स 2011 में बुधवार को पेश किया जाएगा। फिक्की के महासचिव अमित मित्रा ने कहा 'मीडिया क्षेत्र में क्षेत्रीय बाजारों की बढ़ती संभावना, बढ़ती जागरुकता और जनजन तक बढ़ती पहुंच को देखते हुए क्षेत्र में वृद्धि की व्यापक संभावनाएं हैं।' उन्होंने कहा कि न्यू मीडिया (ऑनलाइन) का महत्व भी तेजी से बढ़ा है। वर्ष 2010 में विज्ञापन पर होने वाले खर्च में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और यह 26,600 करोड़ रुपए हो गया जो कि उद्योग के कुल कारोबार का 41 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि टीवी विज्ञापन और ग्राहकों से होने वाली आमदनी के वर्ष 2015 तक बढ़कर क्र मश: 21,400 करोड़ रुपए और 41,600 करोड़ रुपए हो जाने की उम्मीद है। केपीएमजी के मीडिया और मनोरंजन प्रमुख राजेश जैन ने कहा 'आने वाले समय में मीडिया कंपनियों को अपने कारोबार के मॉडल में सुधार करना जरूरी हो जाएगा। कंपनियों को मुनाफे के साथ साथ ग्राहकों की बदलती रूचि पर ध्यान देना होगा।'

Sunday, March 13, 2011

इस मर्ज की दवा क्या है


तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं, मुझे अपने भारत महान के अखबारों में काम करते हुए, लेकिन अब भी समझ नहीं पाई हूं कि हम पत्रकार लोग क्यों उन चीजों पर ध्यान नहीं देते, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं। क्यों भिनभिनाते हैं उन खबरों के आसपास, जो दो दिन में भुला दी जाती हैं? क्यों भागते-फिरते हैं नेताओं के पीछे उनके हर बयान को ऐतिहासिक मानकर? क्यों नहीं पूछते हैं उनसे ऐसे सवाल, जिनके आधार पर नई नीतियां बन सकती हैं, नई दिशाएं खुल सकती हैं? मिसाल के तौर पर, क्यों नहीं उनसे पूछते कि वे जो सुबह-शाम आम आदमीके नाम की रट लगाते रहते हैं, उस आम आदमी के लिए हम बुनियादी सेवाएं क्यों नहीं उपलब्ध कर पाए हैं 63 वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी?
अगर किसी दूसरे देश के बारे में विश्व बैंक के सर्वेक्षण बताते कि हर वर्ष वहां के 2.4 करोड़ आम नागरिक गरीबी रेखा के नीचे गिर जाते हैं स्वास्थ्य कारणों से, तो यह खबर सुर्खियों में होती। अपने देश में ऐसा हो रहा है, लेकिन ऐसी खबरें अखबार के किसी कोने में छाप दी जाती हैं। और भी आंकड़े आए हैं विश्व बैंक की तरफ से, जो सनसनीखेज हैं, दुखदायी हैं, लेकिन हम पत्रकार इनको अहमियत नहीं देते। सुनिए जरा।
भारत देश में 1,00,000 लोगों पर अस्पतालों में 90 पलंग हैं, अन्य देशों में कम से कम 270 पलंग होते हैं, इतनी आबादी के लिए। अपने देश में 1,00,000 लोगों की सेवा के लिए 60 डॉक्टर और 130 नर्सें हैं। अन्य देशों में इतने लोगों की सेवा में अकसर 140 डॉक्टर और 280 नर्सें होती हैं।
और सुनिए। भारत देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी रद्दी, इतनी घटिया हैं कि 80 फीसदी भारतीय अपना इलाज किसी प्राइवेट अस्पताल या डॉक्टर से करवाने पर मजबूर हैं। क्यों न हो सेवाएं घटिया, जब बरसों से आम स्वास्थ्य सेवाओं पर हमारी सरकारें इतनी कंजूसी से खर्चती हैं पैसा कि देश के वार्षिक उत्पाद के कुल मूल्य (जीडीपी) में से केवल एक फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर निवेश करते आए हैं हम। आंकड़े शर्मनाक तो हैं ही, लेकिन यथार्थ और भी ज्यादा शर्मनाक है। मैं जब भी देश के देहातों में जाती हूं, मेरा पहला काम होता है गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का दौरा करना और लोगों से स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में पूछना। मैं ऐसा इसलिए करती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि देहातों में ऋण का सबसे बड़ा कारण है परिवार के किसी सदस्य का इलाज। सरकारी अस्पतालों में भी इलाज करवाना हो, तो दवाइयों पर इतना खर्च होता है कि देश का आम आदमी इनको सहने के सपने भी नहीं देख सकता। कर्ज लेना पड़ता है किसी से, फिर कर्ज चुकाना बड़ता है सूद देकर। जो लोग मुश्किल से दो वक्त की रोटी खिला पाते हैं अपने परिवारों को, उनका हाल क्या होता है, आप किसी भी गांव में जाकर किसी से पूछ कर देख सकते हैं। फिर दौरा कीजिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का, जहां यकीन के साथ मैं कह सकती हूं कि न आपको डॉक्टर मिलेंगे, न दवाइयां। उत्तर प्रदेश के अस्पतालों का मैंने कुछ वर्ष पहले दौरा किया था एक टीवी प्रोग्राम के लिए और मैंने जो चीजें देखीं, उनके बारे में बता नहीं सकती। देहातों में अस्पताल के नाम पर ऐसी इमारतें थी, जिनके कमरों में पेड़ उग रहे थे, जिनकी छतें कब की गिर चुकी थीं और जहां मरीजों का नाम-ओ-निशान न था। थोड़ी तहकीकात के बाद मालूम पड़ा कि इमारतों के निर्माण में ही पैसा बनाते हैं हमारे देश के विधायक। स्वास्थ्य सेवाओं में उनकी रुचि बस यहीं तक रहती है। इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर जगह-जगह दिखती हैं खंडहर हो चुकी इमारतें।
बेचारा आम आदमी इलाज कराने के लिए किसी प्राइवेट अस्पताल या प्राइवेट डॉक्टर के पास नहीं जाए, तो कहां जाए? मगर वहां भी इलाज के नाम पर धोखा होता है। गरीबों की सेवा में अकसर नीम हकीम होते हैं या फिर वे छू-मंतर वाले, जो देहातों की जहालत का फायदा उठाकर अपना कारोबार चलाते हैं। ये सारी बातें जानते हैं हमारे राजनेता। दशकों से जानते हैं, लेकिन करते कुछ नहीं। हम पत्रकारों का दोष भी कम नहीं। हम अगर रोज नहीं, तो हफ्ते में एक बार ही सही, स्वास्थ्य-शिक्षा सेवाओं को सुर्खियों में लाने का प्रयास करें, तो शायद हमारे राजनेताओं को शर्म महसूस हो। लेकिन हम हैं कि दौड़े-दौड़े फिरते हैं हर नई सनसनीखेज खबरों के पीछे। हमसे भी गए गुजरे हैं टीवी वाले, जिनकी नकल आजकल हम भी कर रहे हैं, क्योंकि हमको लगता है कि खबरें अगर मजेदार, चटपटी, गरमागरम न हुई, तो बात नहीं बनती। समस्या यह है कि जब तक हम पत्रकार अपना रवैया नहीं बदलेंगे, राजनीतिज्ञों को बदलने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी और जब तक वे नहीं बदलेंगे, देश की स्वास्थ्य सेवाएं बीमार ही रहेंगी। यही हाल रहा, तो भारत का विकसित देश बनने का सपना अधूरा ही रहेगा|