सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में पृथ्वी का दायरा सिमटता-सा नजर आ रहा है। आज वि के किसी भी कोने में घटित घटना हम घर में बैठे-बैठे ही देख रहे हैं। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विचारों का विनिमय इस तरह हो रहा है जैसे हम परिवार के लोगों से करते हैं। वैीकरण की प्रक्रिया का सारा श्रेय जनसंचार माध्यम को जाता है जो सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं व रूढ़ियों की जटिलताओं को क्षीण करते हुए मिली-जुली संस्कृति एवं नए मानव मूल्यों की स्थापना कर रहा है। आज हम जिस सामाजिक परिवर्तन का दर्शन कर रहे हैं उसका सबसे अधिक श्रेय मीडिया को जाता है। लोगों की जीवनशैली में जिस तरह से परिवर्तन हुआ है उससे अमीरी और गरीबी की खाई पटती नजर आ रही है। व्यक्ति भले ही अभावों में जीवनयापन कर रहा हो लेकिन वह जीवन के अच्छे पहलू को समझ रहा है और उसको प्राप्त करने का प्रयास भी कर रहा है। दैनिक उपयोग की वस्तुओं का जिस तरह से सामान्यीकरण हुआ है उसमें महत्वपूर्ण योगदान जनसंचार माध्यमों का है। आज योग और आयुव्रेदिक उपचार से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है, अगर मीडिया इतनी प्रभावी न होती तो शायद सूचना इतनी तीव्र गति से नहीं पहुंचाई जा सकती थी। मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में समाज को मजबूत दिशा दे रहा है। लोकहित की रक्षा के लिए सरकार पर नियंतण्ररखते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करने का कार्य मीडिया के द्वारा हो रहा है। वर्तमान समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो रहा है जिससे कृषि उत्पाद दर और परिवार कल्याण को प्रोत्साहन मिल रहा है। खेल का मैदान भी मीडिया से अछूता नहीं है। इसके द्वारा खेलों की जानकारी के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय भावना का विकास हो रहा है। महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता मीडिया की ही देन है। भूमंडलीकरण के इस दौर में पिछले एक दशक से जिस उपभोक्तावादी संस्कृति ने जन्म लिया है उसका प्रभाव पूरे वि पर देखने को मिल रहा है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह सका है। न्यूज चैनल उन्हीं तथ्यों को देखने और दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं जो दर्शकों को ज्यादा लुभावने लग सकते हैं, भले ही उनके दिलो-दिमाग पर इसका कैसा भी असर पड़े। आरुषि हत्याकांड इसका एक उदाहरण भर है। जहां देश की अस्सी प्रतिशत जनता मीडिया द्वारा प्रस्तुत बात को आशीर्वचन समझती हो, ऐसे में उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना मीडिया का अपने कार्य और सिद्धांत से भटकना माना जाएगा। मीडिया समाज को दर्पण दिखाने का कार्य कर रहा है, लेकिन उस दर्पण में लोगों को अपना प्रतिरूप आदर्श लग रहा है। समाज का प्रतिबिंब देख, बदलने के स्थान पर लोग उसी में ढलते जा रहे हैं। यह मीडिया के लिए विचारणीय प्रश्न है। अगर एक दशक के सिनेमा पर विहंगम दृष्टि डालें तो बीस फीसद फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के चरित्र को दर्शाया गया है। लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के भोंडे स्वरूप को ही प्रस्तुत किया गया है। उसी की नकल स्कूल और कॉलेजों में शुरू हो गई है। इंटरनेट समाज के लिए वरदान है, लेकिन कुछ अश्लील वेबसाइट्स से युवा पीढ़ी गुमराह भी हो रही है। इस पर भी विचार की आवश्यकता है। व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खबर को मसालेदार और चटपटा बनाने के लिए सचाई को तोड़- मरोड़कर प्रस्तुत करना, अश्लीलता को परोसना, एक ही खबर को पूरे दिन या कई दिनों तक प्रस्तुत करना न्यूज चैनलों के लिए आम बात है। टीवी धारावाहिकों को इतना लंबा बनाया जा रहा है कि वे अंतहीन मालूम पड़ने लगते हैं। कुछ धारावाहिकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी पाश्चात्य चमकद मक से ओत-प्रोत हैं जिससे हमारी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास की जड़ें खोखली होती जा रही हैं जिसके कारण हम अपने आदर्श, मर्यादा, राष्ट्रप्रेम, समाज और संस्कृति से कटते जा रहे हैं। विज्ञापनों की अधिकता भी मीडिया के सकारात्मक पहलू को प्रभावित कर रही है। सच है कि विज्ञापनों के माध्यम से ही मीडिया को अर्थ की प्राप्ति होती है पर इतना ही मीडिया का उद्देश्य तो नहीं हो सकता। तीस मिनट के कार्यक्रम में सत्रह से अट्ठारह मिनट विज्ञापन में ही जाते हैं और उसी तीस मिनट के कार्यक्रम में एक ही विज्ञापन को चार से पांच बार दिखाया जाता है। इससे समय तो बर्बाद होता ही है बाजारवाद को भी बढ़ावा मिलता है। समय के साथ-साथ विज्ञापन की गुणवत्ता को भी ध्यान में रखना मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। समाचारपत्र भी इस प्रभाव से नहीं बच पाए हैं। जिस नीमहकीम को डॉक्टरों ने खारिज कर रखा है उसका भी विज्ञापन उच्च गुणवत्ता के मानक के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। लोकतंत्र में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के समुचित ढंग से कार्य न करने के कारण लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आज का सबसे बड़ा सरोकार है नकारात्मकता भूमिका से सकारात्मक भूमिका में परिवर्तन। मीडिया की भूमिका जितनी सशक्त होगी, उतना ही अधिक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन होगा।
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