तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं, मुझे अपने भारत महान के अखबारों में काम करते हुए, लेकिन अब भी समझ नहीं पाई हूं कि हम पत्रकार लोग क्यों उन चीजों पर ध्यान नहीं देते, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं। क्यों भिनभिनाते हैं उन खबरों के आसपास, जो दो दिन में भुला दी जाती हैं? क्यों भागते-फिरते हैं नेताओं के पीछे उनके हर बयान को ऐतिहासिक मानकर? क्यों नहीं पूछते हैं उनसे ऐसे सवाल, जिनके आधार पर नई नीतियां बन सकती हैं, नई दिशाएं खुल सकती हैं? मिसाल के तौर पर, क्यों नहीं उनसे पूछते कि वे जो सुबह-शाम ‘आम आदमी’ के नाम की रट लगाते रहते हैं, उस आम आदमी के लिए हम बुनियादी सेवाएं क्यों नहीं उपलब्ध कर पाए हैं 63 वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी?
अगर किसी दूसरे देश के बारे में विश्व बैंक के सर्वेक्षण बताते कि हर वर्ष वहां के 2.4 करोड़ आम नागरिक गरीबी रेखा के नीचे गिर जाते हैं स्वास्थ्य कारणों से, तो यह खबर सुर्खियों में होती। अपने देश में ऐसा हो रहा है, लेकिन ऐसी खबरें अखबार के किसी कोने में छाप दी जाती हैं। और भी आंकड़े आए हैं विश्व बैंक की तरफ से, जो सनसनीखेज हैं, दुखदायी हैं, लेकिन हम पत्रकार इनको अहमियत नहीं देते। सुनिए जरा।
भारत देश में 1,00,000 लोगों पर अस्पतालों में 90 पलंग हैं, अन्य देशों में कम से कम 270 पलंग होते हैं, इतनी आबादी के लिए। अपने देश में 1,00,000 लोगों की सेवा के लिए 60 डॉक्टर और 130 नर्सें हैं। अन्य देशों में इतने लोगों की सेवा में अकसर 140 डॉक्टर और 280 नर्सें होती हैं।
और सुनिए। भारत देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी रद्दी, इतनी घटिया हैं कि 80 फीसदी भारतीय अपना इलाज किसी प्राइवेट अस्पताल या डॉक्टर से करवाने पर मजबूर हैं। क्यों न हो सेवाएं घटिया, जब बरसों से आम स्वास्थ्य सेवाओं पर हमारी सरकारें इतनी कंजूसी से खर्चती हैं पैसा कि देश के वार्षिक उत्पाद के कुल मूल्य (जीडीपी) में से केवल एक फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर निवेश करते आए हैं हम। आंकड़े शर्मनाक तो हैं ही, लेकिन यथार्थ और भी ज्यादा शर्मनाक है। मैं जब भी देश के देहातों में जाती हूं, मेरा पहला काम होता है गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का दौरा करना और लोगों से स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में पूछना। मैं ऐसा इसलिए करती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि देहातों में ऋण का सबसे बड़ा कारण है परिवार के किसी सदस्य का इलाज। सरकारी अस्पतालों में भी इलाज करवाना हो, तो दवाइयों पर इतना खर्च होता है कि देश का आम आदमी इनको सहने के सपने भी नहीं देख सकता। कर्ज लेना पड़ता है किसी से, फिर कर्ज चुकाना बड़ता है सूद देकर। जो लोग मुश्किल से दो वक्त की रोटी खिला पाते हैं अपने परिवारों को, उनका हाल क्या होता है, आप किसी भी गांव में जाकर किसी से पूछ कर देख सकते हैं। फिर दौरा कीजिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का, जहां यकीन के साथ मैं कह सकती हूं कि न आपको डॉक्टर मिलेंगे, न दवाइयां। उत्तर प्रदेश के अस्पतालों का मैंने कुछ वर्ष पहले दौरा किया था एक टीवी प्रोग्राम के लिए और मैंने जो चीजें देखीं, उनके बारे में बता नहीं सकती। देहातों में अस्पताल के नाम पर ऐसी इमारतें थी, जिनके कमरों में पेड़ उग रहे थे, जिनकी छतें कब की गिर चुकी थीं और जहां मरीजों का नाम-ओ-निशान न था। थोड़ी तहकीकात के बाद मालूम पड़ा कि इमारतों के निर्माण में ही पैसा बनाते हैं हमारे देश के विधायक। स्वास्थ्य सेवाओं में उनकी रुचि बस यहीं तक रहती है। इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर जगह-जगह दिखती हैं खंडहर हो चुकी इमारतें।
बेचारा आम आदमी इलाज कराने के लिए किसी प्राइवेट अस्पताल या प्राइवेट डॉक्टर के पास नहीं जाए, तो कहां जाए? मगर वहां भी इलाज के नाम पर धोखा होता है। गरीबों की सेवा में अकसर नीम हकीम होते हैं या फिर वे छू-मंतर वाले, जो देहातों की जहालत का फायदा उठाकर अपना कारोबार चलाते हैं। ये सारी बातें जानते हैं हमारे राजनेता। दशकों से जानते हैं, लेकिन करते कुछ नहीं। हम पत्रकारों का दोष भी कम नहीं। हम अगर रोज नहीं, तो हफ्ते में एक बार ही सही, स्वास्थ्य-शिक्षा सेवाओं को सुर्खियों में लाने का प्रयास करें, तो शायद हमारे राजनेताओं को शर्म महसूस हो। लेकिन हम हैं कि दौड़े-दौड़े फिरते हैं हर नई सनसनीखेज खबरों के पीछे। हमसे भी गए गुजरे हैं टीवी वाले, जिनकी नकल आजकल हम भी कर रहे हैं, क्योंकि हमको लगता है कि खबरें अगर मजेदार, चटपटी, गरमागरम न हुई, तो बात नहीं बनती। समस्या यह है कि जब तक हम पत्रकार अपना रवैया नहीं बदलेंगे, राजनीतिज्ञों को बदलने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी और जब तक वे नहीं बदलेंगे, देश की स्वास्थ्य सेवाएं बीमार ही रहेंगी। यही हाल रहा, तो भारत का विकसित देश बनने का सपना अधूरा ही रहेगा|
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