Monday, April 18, 2011

सिविल सुसटय मुसटय


पहले टीवी में जनता आती-जाती थी। वी द पीपुल लोग हुआ करते थे। अब पीपुल की जगह सिविल सुसटय उग आए हैं। परम्परागत जनता मासेज से पीपुल और पीपुल से पब्लिक बनती गई। वर्ग, जाति, धर्म, लिंग भेद आधारित समूह बनते रहे । गांधी से लेकर इंदिरा गांधी के जमाने तक यह जनता मीडिया में दिखती-छपती रही, देखी जाती रही। जेपी के आंदोलन में जनता सिंहासन खाली करने को कह रही थीिसंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता आई भी अल्पकाल के लिए पर उसके बाद जनता क्रमश: गायब होती गई
शरद जोशी होते तो सिविल 'सुसटय'कहते। बिहार के चुनाव का रिपोर्ताज लिखते। उन्होंने वहां की जनता में सोसाइटी की जगह प्रचलित शब्द 'सुसटय' लिखकर सोसाइटी का एक और पर्याय दे दिया। तबसे सोसाइटी नहीं बोल पाता। सोसाइटी बोलता हूं तो सुसटय निकलता है। सोसाइटी शब्द को सुसटय ने बेदखल कर दिया है। जब से टीवी ने सिविल सुसटय के सहस्र नाम स्त्रोत का लाइव पाठ किया है, तब से सिविल सुसटय का मतलब ढूंढ़ रहा हूं। अर्थ नहीं मिल रहा है। एक्शन मिल रहा है। एक्शन का अपना अर्थ करता हूं तो यह सुसटय कहेगा कि गलत समझते हो। हम वो नहीं जो तुम समझ रहे हो। इसके बावजूद मन अड़ा है कि इस शब्द का मर्म समझूं। हिन्दी का अध्यापक हूं। ठीक-ठीक शब्दार्थ जाने बिना अपना काम नहीं चलता। अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश देखे तो पुराने लगे। फादर के पास गया तो उनके शब्दकोश में सिविल अलग मिला, सोसाइटी अलग पड़ा मिला। सिविल के सामने हिंदी में लिखा था-नागरिक, नागर, शिष्ट, सभ्य! सिविल के आगे कई शब्द लगे हुए दिखे। सिविल सर्विस का मतलब लोकसेवा बताया। सिविलवार का गृहयुद्ध। सिविल में इतनी भी शिष्टता नहीं दिखी कि अपने पीछे वाले शब्द की पूंछ पकड़कर ही ठहर जाता। वह ऐसा शब्द नजर आया जो अपने पीछे वाले शब्द से जुड़कर अर्थ बदलता रहता है। सिविल- सर्विस में लोकसेवा हुआ, सिविलवार में गृहयुद्ध। लगा कि बेसिक लफड़ा सिविल में ही है। शायद सोसाइटी के साथ चिपकाएं तो इससे कु छ सुसटय, मुसटय न बने। फादर बुल्के ने अपने शब्दकोश में 'सोसाइटी' के अर्थ इस तरह बताए-समाज, उच्चवर्ग, संगति, साथ, साहर्चय, संग-साथ, संघ, सभ्य सोसाइटी, संस्था, संसद, सोसाइटी ऑफ जीसस यानी येसु संघ, उच्च्वर्गीय, फै शनेबुल! गल्ले के पास छोटा टीवी देखते हुए एक दुकानदार ने पूछा-सर जी ये सिविल सोसाइटी क्या है? टीवी दिन-रात सिविल सोसाइटी का राग अलाप रहा है? क्या किसी सोप की कोई नई ब्रांड है या निरमा पाउडर का ही नया लांच है? क्या यह कोई नई पार्टी है? क्या संगठन है? नया सीरियल है? रीयलिटी शो है?हमने कहा-सिविल सोसाइटी का मतलब तुम न समझोगे। पहले सिविल बनो फिर सुसटय बनाओ। देखते रहो। मजा लो। ये सिविल बंदों का काम है। तुम्हारे जैसे बीए फेल का नहीं। शब्दकोश के अर्थ उसकी समझ से बाहर थे। सवाल अटका रह गया। सिविल सोसाइटी का माहात्म्य ज्यों-ज्यों लाइव प्रसारण में टीवी के जरिए बढ़ा, त्यों-त्यों यह शब्द परिभाषा मांगने लगा। ऐसा हिट पद और कौन सा रहा जिसने पांच दिन में ही अपनी जरूरत समझा दी। टीवी ने इसकी पदावली अमर कर दी। एक शब्द की महिमा से आकर्षित होकर बयासी लाख रुपये जमा हो गए जिनमें से बत्तीस लाख खर्च भी हो गए। बत्तीस लाख में दरी, पंडाल, पानी, मोमबत्ती, आई होंगी!
पिछले पच्चीस-छब्बीस साल से इस लेखक ने मीडिया, खासकर टीवी देखने-दिखाने का रोग पाल रखा है। उसके हर दिन के बदलते मिजाज को उसके इतिहास को जानता है। उसकी लीला, उसकी ताकत, उसके धंधे को भी पहचानता है। मानता है कि इस युग का निर्णायक तत्व टीवी है। वह जिंदगी को अतिचंचल भाव से भाषित-परिभाषित-आभासित करता है। मारकेट बनाता है। प्ॉापुलर पोस्टमॉडर्न टीवी में जिंदगी आइटम बनती है, ब्रांड बनती है, उपभोग बनती है। बड़े पैसे का हाइपर रीयल है। इलेक्ट्रानिकी पीढ़ी का खेल है। मोबाइल है, फे सबुक है, ट्विटर है। सब मिलकर अलग साइबर कम्युनिटी बना रहे हैं। साइबर में साइबर होते हैं। जमीन पर उतरकर सिविल सुसटय हो जाते हैं। टीवी ने इस सुसटय तत्व को गोद ले लिया है। पुरानी जनता को खारिज कर दिया है। पहले टीवी में जनता आती-जाती थी। 'वी द पीपुल' लोग हुआ करते थे। अब पीपुल की जगह सिविल सुसटय उग आए हैं। परम्परागत जनता मासेज से पीपुल और पीपुल से पब्लिक बनती गई। वर्ग, जाति, धर्म, लिंग भेद आधारित समूह बनते रहे। गांधी से लेकर इंदिरा गांधी के जमाने तक यह जनता मीडिया में दिखती-छपती रही, देखी जाती रही। जेपी के आंदोलन में जनता सिंहासन खाली करने को कह रही थीिसंहासन खाली करो कि जनता आती है। वह आई भी पर अल्पकाल के लिए। उसके बाद जनता क्रमश: गायब होती गई। समाज सुसटय हो गया है। सुसटय मुसटय हो रहा है। सिविल सुसटय समाज की पोस्टमॉडर्न अदा है। थियरी में वह रोबर्ट पुटनम से काम पाती है। जनतंत्र और पूंजीवादी विकास उसके पालने हैं। सिविल सुसटय राज्यसत्ता और बाजार दोनों के बरक्स एनजीओ या समानविश्वासी समूह के रूप में समाज का तीसरा पाया है। यह आजकल के समाज में ज्यादा मजबूत होता जा रहा है। इतिहास कहता है कि सिविल सुसटय की वर्तमान अवधारणा और संस्करण नवें दशक की वाशिंगटन सर्वानुमति से निकले हैं जिसके पीछे र्वल्ड बैंक और आईएमएफ खड़े थे। तभी से जनतंत्र में दलेतर सरकारेतर प्रतिनिधिन; रिप्रेजेंटेशन की पवित्रता उभरी। इस संस्थान को वैधेतर वैधता मिली। एक विचारक जय सेन कहते हैं कि ये संस्थान नव उपनिवेशवादी योजना वाले हैं जिन्हें ग्लोबल शक्तियां चलाती हैं। हमें यकीन नहीं होता। ये मधुर-मधुर मेरी मोमबत्ती जलाने वाले जन खुद ग्लोबल स्वयंसेवक हैं, स्वयंचालित हैं। खुद चले हुए हैं। इन्हें कौन चलाएगा!
देखिए ना! चले थे सिविल सुसटय ढूढ़ने। मिले ये मुसटय! खोदा समाज और निकला मुसटय! इस मुसटय लेखक का संकल्प है कि अगली बार तुम मुझसे मिलने ताजमहल में शमा जलाने आ जाना की र्थडरेट गजल गाते हुए एक मोमबत्ती जरूर जला डालूंगा। आप बता दें-कहां? दिल्ली गेट पर या इंडिया गेट पर? कश्मीरी गेट पर या लाहौरी गेट पर? अजमेरी गेट या टू जी स्कैम गेट पर! 'आदर्श' दहलीज पर। अब तो आए दिन ऐसे 'स्मारक' बनते ही जा रहे हैं।



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