मीडिया के लिए अन्ना से लेकर केजरीवाल तक सब एक या संयुक्त ब्रांड भर रहे। ब्रांड का चरित्र साक्षात जीवन के व्यक्तित्व से अलग होता है। ब्रांड एक चिह्न भर होता है। कु छ दिन के लॉन्च के बाद, बढ़िया पोजीशनिंग के बाद उसे बदलना होता है। स्लोगन, कै च लाइन बदलनी होती है। जो ब्रांड अपनी कै च लाइन में फंस गया वह काम से गया!
मीडिया के लिए जंतर मंतर का अनशनकारी सिविल समाज महज एक बिकने योग्य बाइट-संजाल था। उसके बाद सिविल समाज को लेकर तरह-तरह के नाजुक सवालों को बराबर की जगह देना भी बिकने वाली खबर थी। यही मीडिया का अपना बनाया जनतंत्र है। जो सवाल पहले सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे, भ्रष्टाचार और उससे लड़ाई की कहानी दिन-रात बेचते रहे वही भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध की कहानी भी बताने लगे। यह मीडिया की सतत अति रही और रहनी है
टीवी का समाज मूलत: छवि-समाज है। छवियां अपने विषय के बारे में बहुत कुछ कहती रहती हैं। तो भी वे उसकी सच्ची और स्थायी प्रतिनिधि नहीं होतीं। इसलिए कि वे अपने अर्थ लगातार बदलती रहती हैं। चूंकि एक छवि एक शब्द भर नहीं होती। उनकी अनंत शब्दावली होती हैं, अनंत-अर्थावली होती हैं, इसलिए वे जल्दी पकड़ में नहीं आती हैं। फिसल-फिसल जाती हैं। यही टीवी का वह हाइपर-रीयल तत्व है जो छवि को साक्षात जमीन से डेढ़ इंच ऊपर उठाकर आभासी ताकत दे देता है कि आप उसको पकड़ नहीं सकते लेकिन उसके घोर कंदनकारी और चिह्नशास्त्रीय प्रभाव से बच भी नहीं सकते। मीडिया तटस्थ की जगह नहीं छोड़ता। यह स्तुतिपरकता या निंदकता स्थायी नहीं होती। वह भी छवियों की तरह अस्थिर होती है। छवियों में सक्रिय शब्दिमशण्रसे लेकर अर्थ-मिशण्रउन्हें नित्य नवीन करते रहते हैं। यह जादुई नवीनता का छल यह है कि जितनी चमक होगी उतनी ही दर्शक से आजिजी होगी और जितनी आजिजी होगी उतनी ही शिकायत या प्यार होगा। मुहब्बत भी पंद्रह सेकिंडी तो घृणा भी पंद्रह सेकिंडी! इस छवि प्रपंच का परम प्रकट छल यह है कि आप छवि को एक सेकिंड ठहराकर उसका अर्थ पक्का नहीं कर सकते। इसलिए छवि के जितने अर्थ लगाए जाते हैं वे सब मिलकर भी छवि को पकड़ नहीं पाते बल्कि उसे अधिक नेतिनेति, अधिक आवारा, अधिक दु:साध्य और फिर भी अधिक दुर्निवार बनाते रहते हैं। टीवी ने जिस सिविल समाज को पिछले दिनों अनंत बार रचा, सिविल समाज के नाम से जिसे पॉपूलर बनाया वह पॉपूलर कल्चर की एक संरचनामात्र रही। इस टीवी जनतंत्र के उपभोग का मारा उसमें जीता- मरता शाम को खबर देखता सुबह को उसकी चरचा करता उसके जरिए अपना दृष्टिकोण बनाता दर्शक समाज में तो समाज की तरह रहता है। वह किसी खबर को सीधे अपने हिताहित से जोड़कर देखता है और अहितकारी महसूस होने पर सीधे आक्थू कहता है या हंस देता है। छवि की लीला पर उसका वश नहीं चलता। टीवी छवि की द्वंद्वात्मकता यह भी है कि जिस समाज से खास टीवी-छवि अपना उपजीव्य ग्रहण करती है, जिस समाज को अपना उपभोक्ता बनाती है, वही छवि टीवी पर एक बार खर्च होने; प्रसारित होने के बाद अपने उपजीव्य समाज से बेगानी या अजनबी हो उठती है। छवि दूसरा बड़ा छल यह करती है कि वह व्यक्ति जिसकी वह छवि है वह अपनी छवि को अपनी मानने की गलतफहमी में रहता है जबकि वह छवि उससे दगा कर चुकी होती है। वह समझता है कि वह प्रसारित होकर अधिक बड़ा, अधिक सामाजिक हो गया और ताकतवर हो गया लेकिन यथार्थ में वह और अधिक नाजुक और शीशे की तरह आसानी से टूटने योग्य या विखंड्य हो उठता है। हजारों-लाखों के बीच जाकर आप बदल जाते हैं। आपकी छवि आपको पब्लिक डोमेन में पटक देती है। सबसे जोखिमभरी जगह यही होती है। पब्लिक के होकर आप पब्लिक से दगा कर नहीं सकते जबकि आपकी छवि आप से दगा कर चुकी होती है और वह छवि जनता को आकर्षित कर आपको उसकी मुहब्बत या घृणा का, आलोचना का आकर्षक पात्र भी बना चुकी होती है। नया लोकप्रिय सिविल समाज मीडिया निर्मित इसी पब्लिक डोमेन की चपेट में इन दिनों फंसा है। उसकी तुरंता प्रतिक्रियाओं से; जो इतनी तुरंता न होती तो उसके लिए कहीं बेहतर होता, नहीं लगता कि उसे मालूम है कि वह छवि की लोकप्रियता के तिर्यक बेगानेपन का शिकार हो रहा है और उसकी रक्षात्मक छवि उसके प्रति विकर्षण पैदा करने लगी है। तुरत आकर्षण और तुरत विकर्षण तीसरा छवि छल है जिसे मीडिया बनाता है। जिससे अपना पेट भरता यानी कार्य-व्यापार करता है। जो इस प्रपंच में फंसा वह काम से गया। यह लेखक अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी संकल्प से या उनके सिविल समाज के पुण्य संकल्प से किसी भांति असहमत नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार उन्मूलन समाजोपकारी संकल्पना है और नागरिक जीवन के निर्माण में इस विचार की महती भूमिका है और रहेगी। इस लेखक के मन में इनके साहस के प्रति आदर भाव है। सभी नागरिकों की तरह यह लेखक उम्मीद करता है कि इस सामयिक छेड़छाड़ से वे अपना धीरज नहीं खोएंगे और अपने ऐतिहासिक कर्त्तव्य पूरे करेंगे। इस सिविल समाज की मीडिया निर्मित छवि की उम्र कुल दो-चार दिन की है। सिविल समाज के नायकों की उम्र, समाज के हित में उनकी सक्रियता की उम्र लंबी है। समाजहित में उनकी अनेक स्तरीय भूमिकाएं रहीं हैं लेकिन जंतर मंतर के कवरेज की उम्र चार दो चार दिन की ही है। इसी अवधि में इस समाज को नए अर्थ और नई ऐतिहासिक भूमिकाएं मिली हैं। इस सबके पीछे मीडिया की भूमिका है। उनके मुद्दों की दिनानुदिन स्वीकृति बढ़ाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। उनका आभामंडल अपूर्व हुआ है। उसमें गुणात्मक इजाफा हुआ है। बस यहीं सारे पेच पैदा हुए। मीडिया के लिए जंतर मंतर का अनशनकारी सिविल समाज महज एक बिकने योग्य बाइट-संजाल था। उसके बाद सिविल समाज को लेकर तरह-तरह के नाजुक सवालों को बराबर की जगह देना भी बिकने वाली खबर थी। यही मीडिया का अपना बनाया जनतंत्र है। जो सवाल पहले सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे, भ्रष्टाचार और उससे लड़ाई की कहानी दिन-रात बेचते रहे, वही भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध की कहानी भी बताने लगे। यह मीडिया की सतत अति रही और रहनी है। मीडिया किसी का सगा नहीं होता। मालिक का सगा भले हो जाए लेकिन छवियां तो अपने बाप की भी सगी नहीं होतीं। छवि माया के संजाल की तरह है जो लुभाती है, फंसाती है और उपभोग के बाद चिथड़े बनाकर बाहर उगल देती है। यह किसी ब्रांड की निर्मिति की तरह चलता है।
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