Sunday, April 3, 2011

नया देहवाद


सिर्फ तुरंता ही नहीं, हर वक्त तुरंत होते रहना, हर समय 'कंटीन्यूंइग' मल्टी हाइपर रीयल। अनंत चंचलताएं एक साथ। व्यक्ति को मीडिया की मिक्सी में हर समय मिक्स होते रहना है तब कही जाकर उसे 'होना' है। समय की चंचल क्षणता का ऐसा उत्कट अनुभव इस टीवी युग से, साइबर युग से पहले कभी नहीं था। यह नया देह- वाद है। देह इस समय की सबसे बड़ी 'समस्या' है
पूनम पांडे नामक मॉडल ने ऐलान किया है कि अगर टीम इंडिया मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में र्वल्ड कप जीतती है तो वह नंगी होंगी। उनका परिवार इस 'पवित्र कार्य' में बेटी के साथ है। वह टीम के कमरे में प्राइवेटली कपड़े उतार सकती हैं या उसकी खातिर पब्लिक में ऐसा कर सकती हैं। वह कोई लॉ-आर्डर प्राब्लम नहीं चाहतीं। इस सुपर बोल्ड ऐलान के बाद पूनम पांडे मीडिया पर छा गई हैं। क्या टाइमिंग है और कैसी पोजीशनिंग है? स्पांसर उसके लाइव होने के लिए मुहमांगी रकम दे सकते हैं। मीडिया के 'मेल-गेज' मर्दों द्वारा फिल्मों में दिखती औरतों को कामुकता से घूरने की क्रिया के लिए खास प्रयुक्त तकनीकी केलिए वे एक सुपर सेक्सी आइटम हैं। वो होंगी तो उस समय में मीडिया 'होगा', 'हो रहे' को लाइव दिखाएगा- बताएगा। उनके ऐलान ने र्वल्ड कप को चीयर लीडर्स के सेक्सवादी अभाव से भर दिया है। वे जीत की खुशी में 'नंगी होना' चाहती हैं। वे ऐसा 'होने' के लिए बजिद हैं। शर्त इतनी है कि भारत जीते। भारत में निहित 'मर्द तत्व' को रिझाने के लिए एक मॉडल नंगी हो रही है। लंपट मर्द तत्व उतना ही चकित है। उसके मुंह में पानी आ गया होगा। इस खबर में एक चीत्कार पढ़ा जा सकता है। आश्र्चय है कि यह अभी तक आपत्तिजनक नहीं माना गया!
यहां नंगत्व पर जितना जोर है उतना ही होने पर है। यह 'होना' आज के मीडिया के मर्दवादी मारकेट की 'निर्मिति' है। रीयलिटी शोज के इस लाइव समय में ऐसा लाइव होना ही 'होना' है। इस होने की अपनी सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं। मीडिया ने अपनी लीला से हर क्षण को ऐसा 'उत्तप्त' बना डाला है कि हर व्यक्ति 'तप्त' होते रहना चाहता है। तप्त होने से तृप्ति नहीं होती तो भी तप्त होते रहना चाहता है। यह निजता का नहीं, आत्म का नहीं, सीधे बॉडी का ही 'मीडिया' बन जाना है। देह का 'मीडिया' हो जाना नई बात है। क्रिकेट के लाइव प्रसारण ने इसे चलन बनाया है। गालों पर, माथे पर, सिर पर, झंडा पेंट कराके टीवी कैमरों को अपनी लॉयल्टी और खुशी दिखाने को मचलता है तो वह देह को एक 'माध्यम' में बदल रहा होता है। यह मीडिया का होना नहीं मीडिया-समय में देह का स्वयं मीडियामय होते रहना है। उसे निंरतर होते रहना है। इतना निंरतर कि अंतर-निरंतर का भेद न रहे। मामला मारकेट की दार्शनिक हद को छूता है जिस पर यहां विस्तृत र्चचा संभव नहीं। इस तरह यह 'हो रहा' मीडिया-समय है। हर चीज 'होना' चाहती है। वह 'होने' से पहले भी है लेकिन फिर बार-बार 'होते रहना' चाहती है। यह अस्तित्ववाद से बहुत आगे का मामला है। एकदम पोस्टमॉडर्न क्षण है कि हर हुई चीज भी हर वक्त होते रहना चाहती है। यहां 'होने' में नया कर्ता-भाव है। अपने होने को कोई 'करना' चाहता है और इस तरह सिर्फ 'होना' चाहता है। हिंदी में 'होना' अनुपूरक क्रिया पद है। अब यही 'कर्म' बनी जा रही है। यही विशेषण बनी जा रही है। 'होना' का व्याकरण 'हो रहा' है। एक क्रिया सब क्रियाओं का पर्याय बन रही है। हिंदी का 'होना' अंग्रेजी के 'हेप्पिनिंग' के हिंदी अनुवाद की तरह समझा जा सकता है। अंग्रेजी में इससे जुड़ा 'हैप' शब्द भी चलता है। जिसका मतलब 'तमाशा होने या फैशन में होने या चर्चित होने' से लिया जाता है। वह बड़ा 'हैप' है का मतलब है कि वह वैसा 'होता' रहता है। 'हैप' एक डांस स्टायल भी है जो रैप का छोटा भाई है। जो कल तक 'रैप' था वह अब 'हैप' है। 'होना' क्रिया हिंदी में इस तरह विचारी नहीं गई। इन दिनों में 'होने' में बड़ी सांस्कृतिक अनुगूजें सुनाई-दिखाई पड़ती हैं। यह टीवी की 'संचार-क्रिया' है। आभासी यथार्थ की सकर्मकता है। वर्चुअल माध्यम की क्रिया है कि उसमें 'होना'
होना है। उसमें होते रहना होना है। जब तक आप किसी माध्यम में 'हो रहे'
हैं, आप हो रहे हैं यानी आप जीवित हैं। जब आप उसमें नहीं होते तो आप जहान में नहीं होते। यह दृश्यचाद और दृश्यमान का जबर्दस्त प्रपंच है। 'आंख ओझल तो पहाड़ ओझल'
कहा जाता था। अब आभास से ओझल, टीवी से ओझल तो दुनिया से ओझल माना जाता है। और इस सतत दृश्यात्मकता के सुपर कंपटीशन के समय में व्यक्ति 'न हुए' नहीं रह सकता। उसकी नियति है कि उसे 'होते रहना' है। अगर वह न होता रहा तो निर्जीव है। उदाहरणों की कमी नहीं है। अति दृश्यमान शाहरुख खान की 'माई नेम इज खान'
पिटी तो वे रीयलिटी शो लेकर टीवी पर आ विराजे। कल की सुपर हीरोइन माधुरी दीक्षित को भी टीवी का ताजा दृश्य होना जरूरी हो गया। हाय! यहां नहीं थे तो जीवित नहीं थे। टीवी अब 'हैप' माध्यम है। हीरो, हीरोइन, मॉडल, डिजाइनर, सेलीब्रिटी, नेता, बड़े लोग और आम पब्लिक टीवी को हैप माध्यम मानती है। वहां हैं तो हैं वरना नहीं हैं। स्पेस की लड़ाई है। उसके लिए मारा-मारी है। टीवी वह चिर भुक्खड़ दैत्य है जिसे 'होते रहना'
है। उसमें आपको 'होते रहना' है। यह निरंतरता मारे डाल रही है। इस निंरतरता में अपने को 'होता हुआ' बनाना कठिन काम है। हर व्यक्ति होने की बात करेगा तो एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा लोग, एक सौ इक्कीस करोड़ से कई गुना ज्यादा दृश्य बनेंगे। सब नहीं 'हो सकते'। कुछ ही 'होते' रह सकते हैं। 'होते रहने' का खेल महंगा है। अंग्रेजी में 'हैप' है तो 'हाइप' है। 'हैप' है तो 'होप' है। हैप है तो हेप्पीनेस है। हैप है तो सब कुछ है। एकदम इंस्टैंट और सिर्फ तुरंता ही नहीं, हर वक्त तुरंत होते रहना, हर समय 'कंटीन्यूंइग'! मल्टी हाइपर रीयल। अनंत चंचलताएं एक साथ। व्यक्ति को मीडिया की मिक्सी में हर समय मिक्स होते रहना है तब कही जाकर उसे 'होना'
है। समय की चंचल क्षणता का ऐसा उत्कट अनुभव इस टीवी युग से, साइबर युग से पहले कभी नहीं था। यह नया देहवाद है। देह इस समय की सबसे बड़ी 'समस्या' है। ऐसे समय में सूरदास का एक पद याद आता है -'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल'! यहां देहवाद का 'संपूर्ण रूपक' है! पठनीय है!


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