Sunday, April 10, 2011

सिविल सोसाइटी


यह एक परम नैतिक विमर्श था जो इस नये पूंजीवाद में ग्लोबल लाभ-लोभ की होड़ा-होड़ी में किसी को अंतर्विरोधरहित नहीं रहने दे सकता। ऐसे में पिछले उदारीकरण के दौर में विकसित सिविल सोसाइटी का क्या हर चेहरा इतना स्वस्थ प्रसन्न और पांच रुपये का मोमबत्तीवादी हो सका है कि उसमें उसकी निर्मिति परम नैतिक बनी रहे? भई, सिविल सोसाइटी सवालों से तो ऊपर नहीं हो सकती। जितने सवाल सरकार से किए गए उतने न सही लेकिन कुछ सवाल को सिविल सोसाइटी से करने ही चाहिए
अंतत: भ्रष्टाचार के खिलाफ दृश्यमान आंदोलन की प्रस्थापनाएं कानूनी से ज्यादा नैतिक ही रहीं। यही नहीं परम नैतिक रहने की हिफाजत के लिए कानूनी सहारे ही लेने पड़े। इसका अर्थ हुआ कि नैतिकता भी कानूनी ही रहनी है। यह उस आंदोलन की अपनी प्रस्थापना-निहित समस्या है जिसे सिविल सोसाइटी ने बनाया है। यह सिविल सोसाइटी पद मीडिया का नया अर्थपूर्ण कंटेक्स्ट है जिसे पढ़ना-समझना दिलचस्प है। यह उत्तर आधुनिक दशाओं में बनता नया समाजशास्त्रीय पद, जो अंतर्विरोध रहित नहीं है, जो शायद अंतर्विरोधों को समारोहित ही करता है। सिविल सोसाइटी नए समय के ग्लोबल एलीट की निर्मिति है। इसके अपने नाज-नखरे हैं। इसका अपना ग्लैमर है। यह एक रूपंकारी- अहंकारी निर्मिति है। यह परम्परागत राजनीतिक एलीट का स्पर्धी होना चाहता है। यों 'सिविल सोसाइटी पद' अक्सर फेसबुक, ट्विटर और मीडिया के हल्कों में पिछले अरसे से अक्सर सुनाई देता रहा है लेकिन जंतर मंतर से अन्ना हजारे के आमरण अनशन के लाइव प्रसारण में यह शब्द सर्वाधिक उपयोग में लाया गया। यह जिनके लिए उपयोग में लाया गया वे दृश्य में अक्सर आते रहे या कि उन्हें यह पद नवाजा गया। इस तरह यह लाइव पद बना जो शब्दकोश से बाहर आ गया और रूपंकरता में ढल गया। 'जनता' की जगह 'सिविल सोसाइटी' ने टेक ओवर कर लिया। मीडिया ने इसे 'अनक्रिटीकली' आसानी से सम्भव किया। वह इस पर लगभग लपक पड़ा। हम इसे क्रमश: बनते और एक तरलार्थ लेते देख सकते हैं लेकिन यह नहंीं भूलना है कि इस पद का और उसके अर्थ का उपयोग और निर्माण सर्वाधिक मीडिया ने किया। मीडिया का निर्माण कौन करता है, यह बताने की जरूरत नहीं! जब कोई पद मीडिया में लगातार दोहराया जाता है तो उसमें अर्थ की उच्छलता पैदा हो जाती है। वह अपनी हदें पार कर जाता है। अनुशासन से बाहर हो जाता है, स्थिर नहीं हो पाता और लगातार 'अंतर्पाठीयता'
में, एक प्रकार के घूर्णन में रहता है। जो इस पद को लगातार अस्थिर करती है। इसीलिए इस सिविल सोसाइटी और उसकी लीला के अनंत अर्थ हैं जो एकदू सरे से टकराते हैं। इस मानी में यह 'मुक्त पद' है और 'मुफ्त पद' भी है। जब अनशन खत्म हुआ और आखिरी घंटों का कवरेज आया तो उसमें किंचित अराजकता-सी दिखी। जो कुछ सामने था उसका कोई एक कमांडर नहीं था। लगता था लोग अभी दृश्य में रहने से ऊबे नहीं हैं। इसीलिए आखिरी वक्त में कुछ ऐसी बातें बार-बार कही गईं कि यह अंत नहीं हैं। यह भी कहा गया कि आगे के लिए संगठन चाहिए लेकिन संगठन और सिविल सोसाइटी! बेर-केर का संग कैसे निभेगा? शायद यह सोचकर चतुर सुजानों ने संगठन चरचा को आगे नहीं बढ़ाया। इससे यह भी साफ हुआ कि सिविल सोसाइटी के लोग किसी के नुमाइंदे नहीं थे या पक्के नुमाइंदे नहीं थे तो भी आखिरी दृश्य में सब अतिप्रसन्न थे। इस प्रसन्नता को बार-बार बताना पड़ रहा था। यह दृश्य की जरूरत थी। सरकार ने मागें मान ली थी। चार सौ दिन न मानने वाली सरकार चार-पांच दिन में झुक गई थी! यह सिविल सोसाइटी के उन नायकों की एक बड़ी विजय की समस्यापूर्ण घड़ी थी जिसे अनुशासित करने के अपने डर थे। यह देखना जरूरी था कि इन आखिरी क्षणों में क्या होता है। ये जो अचानकता लिए, आनंदातिरेक से भरे 'यूफोरिक' पल हैं, वे कैसे गुजरते हैं। यह आनंदातिरेक वह तत्व था जो वक्ताओं को विचलित-सा किए था। मीडिया, उसके चैनल स्वयं इसको कवर करते हुए इस पल को सम्भालने में असमर्थ नजर आते थे क्योंकि इसकी पटकथा पहले से तैयार नहीं की गई थी। इससे साफ है सिविल सोसाइटी और मीडिया द्वारा कल्पित एवं लक्षित समाज के बीच लगभग एक सूत्रता-सी थी। मीडिया को अपना समाज मिल गया था। लाइव और धड़कता, न्याय मांगता और नारे लगाता हुआ। सुंदर मिडिलक्लासी दृश्य बनाता हुआ, जिसमें मैली-कुचैली जनता नहीं थी। जनता अनसिविल हो सकती है। सिविल सोसाइटी सिविल ही होगी! यह एक नई विराट 'निर्मिति' थी जिसे मीडिया शायद पहली बार बना रहा था। जिसके पीछे ट्विटर, फेसबुक के नेटवर्क संजालों की आवाजें सक्रिय थीं। जो मीडिया को अति प्रिय थी। जो मिस्र के तहरीर चौक को जंतर मंतर पर बिना किसी रिस्क के कल्पित करके रोमांचित होती दिखती थी। लाइव मीडिया कवरेज, लाइव इतिहास-सा बनाता लगता है। वे लोग जो मीडिया की इतनी खुली उपस्थिति को लेकर सक्रिय होते हैं वहां मीडिया अधिक लोगों को आकर्षित करता है। वे दृश्य में स्वयं को लाकर इतिहास में आ जाने को लालायित रहते हैं और वे मीडिया की सुरक्षा में रहते हैं कि अगर उनके साथ कुछ हुआ तो वे अकेले नहीं होंगे। स्वयं दृश्य बनना या सबको दृश्य में आ सकने का न्योता जब मीडिया देता है तो कई और बातें भी होती हैं जो इस बार भी देखने को मिलीं। यह सिविल सोसाइटी के अर्थ की व्याप्ति से ताल्लुक रखती हैं। हम यहां न तो अन्ना हजारे की तुलना गांधी से करना चाहेंगे, न जेपी से। यद्यपि अन्ना को जिस तरह मीडिया ने प्रस्तुत किया वह स्वयं तुलनात्मक अध्ययन के लिए मजबूर करता है लेकिन यहां अवकाश नहीं है। हमारा मकसद मीडिया के सकल कवरेज में बने सिविल सोसाइटी पद के अर्थो को समेटना भर है। अनशन टूटने के बाद के पलों में सिविल सोसाइटी ने बताया कि यह जनता की जीत है! इस सोसाइटी में जब कुछ नेताओं ने घुसपैठ बनाने की कोशिश की तो उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया क्योंकि सबके लिए एक नैतिक शर्त थी कि वही आ सकता है, जो बेदाग है। जबकि यह नहीं जाना गया कि शामिल लोगों में से सचमुच कौन-कौन ऐसा है जो सौ टका ईमानदार-बेदाग हो! दाग जब तक छिपा रहता है, आदमी बेदाग होता है। जब खुल जाता है तब दागदार हो जाता है। यह एक परम नैतिक विमर्श था जो इस नये पूंजीवाद में ग्लोबल लाभ-लोभ की होड़ा-होड़ी में किसी को अंतर्विरोधरहित नहीं रहने दे सकता। ऐसे में पिछले उदारीकरण के दौर में विकसित सिविल सोसाइटी का क्या हर चेहरा इतना स्वस्थ प्रसन्न और पांच रुपये का मोमबत्तीवादी हो सका है कि उसमें उसकी निर्मिति परम नैतिक बनी रहे? भई, सिविल सोसाइटी सवालों से तो ऊपर नहीं हो सकती। जितने सवाल सरकार से किए गए उतने न सही लेकिन कुछ सवाल को सिविल सोसाइटी से करने ही चाहिए!

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