बाजार का डर है, डर का बाजार है। सत्ता का डर है, डर की सत्ता है। डर की सांस्कृतिक निर्मितियां अनंत हैं! डर का मनोविज्ञान फैला है। वह मौजूदा आर्थिक संकट का सांस्कृतिक विस्तार है। वह बेरोजगारी का तनाव है, वह महंगाई का क्लेश है। वह आसन्न अभाव और असुरक्षा का ‘स्ट्रेस’ है। आदमी के चित्त में धीरे-धीरे घर करता ‘जन-अवसाद’; मासडिप््रोसन है। यह आज के आम आदमी का हर ओर से बेसहारा और डरा हुआ चित्त है। जो असुरक्षित है इसलिए बदहवास है और अशांत और हिंसक है। इसका संबंध समकालीन आर्थिक तनाव से है जिसके निवारण के उपाय दूर-दूर नजर नहीं आते। उनकी जगह नजर निवारक यंत्र ज्यादा नजर आते हैं। इस डर के वातावरण के कई बयान हैं। उनका मीडिया से सीधा संबंध है। वे मीडिया की निर्मितियां हैं। लोग इन डरों को और इन डरों से ज्यादा उनके निवारण के उपादानों के बाजार में रमते हैं। यह डर का नया बड़ा बाजार है जो जगह-जगह बन रहा है। यह डर की नई मारकेटिंग है। यह डर इन दिनों की ‘जनवार्ताओं’ का मुख्य विषय है। डर हमारे उपभोग का एक बड़ा आइटम बन चला है। हर विज्ञापन डर के शिल्प को पुष्ट करता चलता है। पूरे दिन में आपके लिए क्या अशुभ है? क्या शुभ है? इसकी मारकेटिंग भी है। आज का दिन कैसा गुजरेगा और अगर कोई परेशानी है तो उसका उपाय क्या है? ये सब डर के नए शिल्प हैं। इन दिनों इस शिल्प की भाषा कुछ पर्सनल और प्रामाणिक-सी बनाई जा रही है। इस अखिल सृष्टि में एक आम आदमी के डरों की निर्मितियां क्या गजब ढा रही हैं यह देखते ही बनता है। जरा देखें- ‘क्या वाकई यह धरती दो हजार बारह में खत्म हो जाएगी? क्या अमेरिका भी खत्म हो जाएगा? क्या हिमालय भी खत्म हो जाएगा? किस तरह खत्म होगा?’
यह एक ‘जनवार्ता’ की चिंता थी। एक बस यात्रा में एक उक्त भविष्य-जिज्ञासु से भेंट हुई। उनकी नौकरी छूट गई थी। नई की तलाश में निकले थे। यों ठीक-ठाक थे, हाथ की चार उंगलियों में पांच अगूंठियां थीं। उनमें नग जड़े थे, हाथ में एक मोटा कलावा बंधा था। उनकी चिंता का विषय था कि क्या दो हजार बारह में सचमुच धरती खत्म हो जाएगी? उन्होंने अपने आप बता दिया कि एक चैनल ने ऐसी भविष्यवाणी की है। वे पल्रयके बारे में अध्कि ज्ञानी होकर उसका मुकाबला करना चाहते थे!
फिर किसी ने पल्रय से पहले समकालीन महंगाई को पल्रय की संज्ञा दी और बातचीत महंगाई की ओर मुड़ गई। फिर ‘आदमी की कीमत कम हो गई जान की कीमत कुछ नहंी हैं’ आदि से होते देश की सरकार पर आ गई। पहले सब नेताओं को जिम्मेदार बताया गया। टहलती हुई यह ‘चल-जनवार्ता’ कुछ देर पाकिस्तान-चीन के खतरे को छूती हुई प्राचीन भारत के सतयुग का भ्रमण भी कर आई और फिर हर आदमी मानने लगा कि आज भी भले लोग हैं। देवता आज भी रहते हैं, सब कुछ है- तंत्र-मंत्र हैं, उनकी वही ताकत है। शर्त यह है कि आपको असली गुरु मिलें, असली की किल्लत है। फिर यह जनवार्ता अचानक एक असली बाबा के जिक्र और महिमामंडन के साथ तांत्रिकों की ओर मुड़ गई। तांत्रिकों के बीच से होकर यह बातचीत टीवी पर आते तंत्र-मंत्रों के ‘यंत्रों’ की ओर मुड़ गई। इस तरह डर आधे घ्ांटे में चारो धाम की यात्रा कर आया। फिर अपने स्टाप पर जन-वार्ताकार उतर गए!
इस वार्ता में जब बात टीवी पर आकर टिक गई तब एक अन्य व्यक्ति ने बताया कि उसने ये नजर रक्षाकवच पहना हुआ है, इसे टीवी पर देखा था। उसने स्वेटर के अंदर हाथ डालकर यंत्र दिखाया, वह काली धातु का बना था। वह एक दुकानदार था पिछले दिनों से उसका बिजनेस चौपट है। शेयर बाजार में पैसा डूब गया है। उधारी पर गये माल की वसूली नहीं हो रही है लेकिन जबसे नजर रक्षा कवच पहना है बेहतर फील करता हूं। अब ज्यादा डर नहीं लगता है, इसकी ताकत बताई है। साल भर मे कमाल दिखाएगा! वह आदमी नहीं था। ‘रक्षा कवच’ का चलता-फिरता विज्ञापन था! विज्ञापन टीवी से बाहर निकल पड़ा था। टीवी के कई चैनलों पर इन दिनों तरह-तरह के ‘नजर रक्षा कवच यंत्र’, ‘श्री यंत्र’, ‘लक्ष्मी यंत्र’ और ‘बाधा मुक्ति यंत्र’
आदि बिकते रहते हैं। देखते-देखते रक्षा कवचों के बीच भी ‘टफ कंपटीशन’ पैदा हो चला है। नए ब्रांड ‘बाधा मुक्ति यंत्र’ के विज्ञापन में एक नई दुल्हन कहती है- ‘मेरे बच्चा नहीं ठहरता था, मिस केरिज हो जाता था, मैं मां न बन पाई तो क्या होगा? मैं परेशान रहती थी फिर मैं अपनी मां के घर गई और वहां उसने बाध मुक्ति यंत्र की बात बताई। उसके बाद मेरी गोद हरी हुई।’ आगे, एक काले चोगे वाला बाबा गरज-तरज कर बताता है- ‘आपके दुश्मन आपके ऊपर काला जादू कर देते हैं, उपरी हवा लग जाती है, टोना-टोटका करा देते हैं। हाथ-पांव-दिमाग बांध दिए जाते हैं। आदमी लगातार सोचता रहता है, कलेजे में ऐंठन होती है। शरीर में नीले दाग पड़ जाते हैं, आपके घर में घुाटन रहती है, परिवार से दूर भागने की इच्छा होती है। किसी आसमानी शक्ति के वश में होते हैं- इस सबसे बचाने के लिए हम लाए हैं इस अभिमंत्रित यंत्र को!’ इस तरह के रक्षा कवच आदमी के भौतिक डरों को जादू-टोने के जरिए उड़ाने का अंध्विास बेचते हैं। उक्त जनवार्ता में मौजूद असुरक्षा के असली कारण बेरोजगारी, मंदी और महंगाई इत्यादि हैं। उनमें उभरे डरों की निर्मितियों के असल उपाय अर्थ- राजनीतिक ही हैं। महंगाई, बेरोजगारी और मंदी के उपाय अर्थ-राजनीतिक ही हैं। डर और आपदा निवारण करने का दावा करने वाले नए कवच ब्रांड और विज्ञापनों का उभार समकालीन आर्थिक संकट से जुड़ा है। संकट के दिनों में आपदा निवारक तत्वों का बाजार बढ़ता है। समस्या भौतिक सच है, निदान हवाई है। अंधविास फैलाने वाले कार्यक्रम प्रसारित न करने का संकल्प लेने वाला मीडिया इन दिनों ऐसे विज्ञापन खूब देता है। उनका असर होता है। क्या ऐसे चैनल सेचेंगे कि वे ऐसे कवचों का विज्ञापन देकर डर का निवारण नहीं कर रहे उल्टे डरावने अंधविस को फैला रहे हैं!
मीडिया की अपनी भाषा इन दिनों डर के शिल्प की भाषा है।
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