Tuesday, January 4, 2011
मीडिया की नारदीय थियरी
दो हजार ग्यारह में पत्रकारिता के मिजाज पर विचार करने वालों को, मीडिया विशेषज्ञों को इस बुनियादी सवाल पर विचार करना होगा कि क्या लॉबिंग अपनी परंपरा में पुराने जमाने से नहीं चला आ रहा है? हमें लगता है कि यह सब तो परंपरा में है, पुराणों में है। आज जब हम इसे देख-देख चकित हो रहे हैं तो लगता है हमने अपनी परंपरा में पत्रकारिता में निहित लॉबिंग का और लॉबिंग में निहित पत्रकारिता का अध्ययन नहीं किया है दो हजार ग्यारह के साल में मीडिया कुछ नए संकल्प कर सकता है। पहला संकल्प यह कि अब मीडियार्कमी न बनें, अच्छे लॉबिस्ट बनें। वे र्शमिदा हरगिज न हों, जरूरत पड़ने पर वे दूसरों को र्शमिदा करें। उन्हें आत्मरक्षा की कतई जरूरत नहंीं हैं। आपकी हिफाजत तो आपकी लॉबी करेगी। इस साल किसी के चमचे न बनें। वे खुद लॉबिस्ट बनें और इस तरह लॉबी पत्रकारिता की शुरूआत करें। इसका बड़ा मार्केट है, इसे दो हजार दस ने बनाया है। यह हर शहर, हर गलीनुक्कड़, हर सरकारी-गैर सरकारी दफ्तर में है। इसे ठीकठाक ढंग से होना चाहिए। ये क्या कि खाया और मुंह पे लगा रह गया। अब मुंह पोंछने के लिए पत्रकारों-नेताओं-कॉरपोरेटों का मुंह जोहने की जरूरत नहीं, लगा है तो लगा रहने दीजिए। दो हजार ग्यारह में आप प्रेस क्लब को त्यागें और हाई लेवल लॉबिंग क्लब किसी पांच सितारा होटल में परमानेंटली खोलें। अब वही शोभा देता है। प्रेस क्लब का बंद धुआं पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहा है। इधर खबर दारू की खुशबू और सिगेरट के धुएं की तरह उड़ती रहती है। यह पत्रकारिता का ढाबा लगता है। यह साइबर युग है, आप साइबर स्पेस में क्लब बनाइए। प्रेस परिषद के सामने सन ग्यारह में एक और मुद्दा आएगा। उसे तैयार रहना चाहिए। इसे आज के पिछड़ी पत्रकारिता वाले बनाएंगे, मुद्दा लॉबिंग का होगा। लोग कहेंगे कि लॉबिंग को रोकिए, यह पत्रकारिता नहीं है। विचार करना होगा कि पत्रकरिता और लॉबिंग में क्या र्फक है? इससे भी पहले पता करना होगा कि पत्रकारिता और लॉबिंग में र्फक करना क्या जरूरी है? जब कोई र्फक न हो तब भी क्या र्फक किया जा सकता है? पत्रकारिता और जनसंर्पक में क्या र्फक हैं? क्या हमें पत्रकारिता की जगह जनसंर्पक शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहिए? मीडिया पाठ्यक्रमों में लॉबिंग को कोर्स में रखकर बाकायदे पढ़ाया जाना चाहिए। इसका गुर सिखाने कुछ विशेषज्ञों को बुलाया जा सकता है। दो हजार ग्यारह में पत्रकारिता के मिजाज पर विचार करने वालों को, मीडिया विशेषज्ञों को इस बुनियादी सवाल पर विचार करना होगा कि क्या लॉबिंग अपनी परंपरा में पुराने जमाने से नहीं चला आ रहा है? हमें लगता है कि यह सब तो परंपरा में है, पुराणों में है। आज जब हम इसे देख-देख चकित हो रहे हैं तो लगता है हमने अपनी परंपरा में पत्रकारिता में निहित लॉबिंग का और लॉबिंग में निहित पत्रकारिता का अध्ययन नहीं किया है। हमारी परंपरा में नारद जी पहले लॉबिस्ट हैं। जो सूचना को इधर- उधर करते हुए पत्रकारिता करते रहते हैं। उनके व्यक्तित्व में दोनों तत्व हैं। इस देवता से उसकी नुक्ताचीनी की, इस दुष्ट को भड़काया और उधर भगवान के हाथों उसका ‘कल्याण’ कराया। सिर्फ ‘नारायण-नारायण’ कहते अपनी वीणा बजाते निकल गए। आज के पत्रकार नारायण जाप नहीं जानते, न वीणा बजाते हैं। जिस-तिस के आगे बीन जरूर बजाते रहते हैं। नारद आर्दश लॉबिस्ट थे, सब देवताओं की लाबिंग की। ऐसा हो, वैसा न हो, यही क्यों हो? वह क्यों न हो? किसने किसका संहार किया? किसे किससे निपटवाना है? सब किया, लेकिन अपनी न कोई तिजोरी रखी न बैंक बैलेंस रखा। स्विस बैंक में कुछ हो तो पता नहंीं। नारद युग में नारद ही रहे, कोई नारदी नहीं रही। दो हजार दस ने नारदी का अवतार कर दिया। पत्रकारिता में नारदीय भक्तिसूत्र दो हजार दस में लागू हुआ। नारद जी के पास मोबाइल नहीं था। वे जो करते थे उसे रावण तक रिकार्ड नहंीं कर सका। उनके पास एक क्लासिकी वीणा थी। वही उनका मेबाइल था। उसके सुर संदेश भेजते थे। वे लॉंिबंग करते रहे, इसको उससे भिड़वाते रहे लेकिन कभी पकड में नहीं आए। नारद और आज के पत्रकारों के बीच थोड़ी-सी समानता है। नारद जी गंजे थे, सर के बाल सफाचट रखते थे। आजकल के कई पत्रकारों के सर गंजे हैं, गंजे होने का फैशन है। अपना सेमि- गंजत्व देख फुल गंजत्व की ओर चले जाते हैं। नारद गंजत्व के बीच एक लंबी चोटी रखा करते थे, आज के पत्रकार चोटी नहीं रखते। लेकिन चोटी के पत्रकार कहलाते हैं। चोटी से पकड़े जाते हैं। नारद जी की चोटी ऐसी थी जो कभी किसी के हाथ न लगी। नारद शब्द ‘ना और रद’ से बना है। इसका शब्दार्थ है ‘दांत रहित’। जिसके दांत न हों- ‘बेदांत’! नाम बताता है कि नारद के दांत नहीं थे। बेदांत में बड़ी व्यंजना है। सोचिए तो कि त्रेता और द्वापर दो-दो युगों की पत्रकारिता अकेले दम पर की और बिना दांत के। आज के पत्रकारों के दांत ही दांत हैं। कई बार खबर की जगह दांत दिखते हैं, लेकिन खबरें बेदांत होती हैं। मुंह में दांत खबर बेदांत। नारद जी बेदांती होते हुए भी दो-दो युगों के डेंचर ठीक कर गए। आज के पत्रकार एक दिन की खबर का डेंचर ठीक नहंीं कर पाते। कहंीं लिखी जाती हैं, कहंीं पढ़ी जाती है। कहंीं देखी जाती है, कहंी सुनी जाती है। और कहंीं एक्शन होता है। नए साल के लिए नए सबक हैं। पत्रकारिता का इतिहास-भूगोल बदल गया है। सूचना से धंधे के युग में चला गया है। धंधा अंधयुग में चला गया है। अंधयुग, गंदा युग में चला गया है। एक लॉबिस्ट के कारनामे से सब मुंह लटकाए हैं। निराश हैं, सनक गए लगते हैं। भ्रष्टाचार का अखंड कीर्तन चल रहा है। पत्रकारिता के इस धुंधलके में पत्रकारिता का ‘नारद भक्ति सूत्र’ ही एक मात्र सहारा है, वही थियरी है, वही प्रेक्टिस है। उसमें पत्रकारिता और लॉबिंग का दैवी मिक्स है। इस मामले में नारद की मीडिया थियरी मार्शल मक्लूहान से आगे की है। चाहे पढकर देख लें!
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