दिल्ली में इन दिनों जितना ठंड और कुहरा है उससे कहीं ज्यादा सिनीसिज्म का उत्ताप है। एक हताशा, एक निराशा है। इस हताशा और निराशा के बीच धीरे-धीरे लोग आदी हो चले हैं। भ्रष्टाचार हमारे मीडिया की अब उसी तरह की नित्य फीचर कथा है जिस तरह वह सुबह-सुबह ज्योतिष सितारे और टेरोकार्ड के फीचर देता है। इस तरह भ्रष्टाचार अब मीडिया का वैसा ही नित्य आइटम है जिस तरह फिल्म हैं, स्वास्थ्य है। यह भ्रष्टाचार का उपभोग है
मीडिया की खबरनवीसी को देख लगता है कि हम एक बेहद चिढ़चिढ़े, बदहवास, गुर्राते और कटखने समय में रह रहे हैं। एंकरों के पास सत्ता तंत्र के बरक्स एक्सपेजर की खबरें रहती हैं। उनके पीछे पूरा सत्तात्मक विमर्श उसके संजाल सक्रिय रहते हैं और खबर के सदुपयोग और दुरुपयोग सब जानते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं होता, कोई प्रमुख समय ऐसा नहीं होता जब कोई ब्रेकिंग न्यूज किसी घोटाले की खबर न देती हो। एंकरिग करता या रिपोर्ट देता पत्रकार अपने हाथ में एक कागज लेकर दिखाता कहता है- ये रिपोर्ट, ये कागज, ये खुफिया दस्तावेज हमारे पास हैं। कैसे दिन आ गए हैं कि उसकी खबर पर उसे ही विास नहीं होता, उसे विसनीय बनाना पड़ रहा है। हर घोटाले की खबर, हर भ्रष्टाचार की खबर पहले सीन से आखिरी सीन तक, पहली बाइट से आखिरी बाइट तक इन दिनों सरकार और तंत्र की ओर इशारा करती है। इस तरह की खबर निर्माण का अनिवार्य हिस्सा है। टीवी खबर चैनलों पर पक्षिवपक्ष की एक मिनी-संसदीय बहस, झड़प और तूतू-मैंमैं, जिसमें हर पक्ष अपने को निष्कलंक बताता है और दूसरे को पापी। इस तरह आप हर दिन ‘पापी टू पापी’ के दर्शन करते रहते हैं। पत्रकार कागज दिखाता अकड़ता है कि सच उसके पास है। पक्षिवपक्ष एक-दूसरे को पापी बताकर जताते हैं कि जो सच बनाया जा रहा है वह पाप की ही पैदाइश है। इसके आगे हम तर्क-कुतर्क का मजा लेने लगते हैं और पटाबनैती के खेल का मजा लेने लगते हैं। इस पत्रकारिता का एक फलागम यह हुआ है कि समाज में सिनीसिज्म बरपा हुआ है। कोई विकल्प नहीं है, कोई रास्ता नहीं है, ऐसा अहसास बढ़ा है। पिछले दिनों जब आदर्श हाउसिंग के घोटाले की बात सामने आई तो टीवी चर्चा हुई। चर्चा में एक पत्रकार ने बताया कि आप जांच की बात करते हैं, जांच करने वाले कौन दूध के धुले हैं, आप अदालत की बात करते हैं लेकिन उस पर भी आरोप हैं और सेना की बात करते हैं, उस पर भी आरोप हैं और आप मीडिया की बात करते हैं तो उस पर भी आरोप हैं। सभी तो लिप्त हैं। आप न्याय पाने कहां जा सकते हैं? यह उस सनकपने की हद रही जिसे मीडिया ने और उसके पहेली सड़े-गले तंत्र ने बनाया है। दिल्ली में इन दिनों जितना ठंड और कुहरा है उससे कहीं ज्यादा सिनीसिज्म का उत्ताप है। एक हताशा, एक निराशा है। इस हताशा और निराशा के बीच धीरे-धीरे लोग आदी हो चले हैं। भ्रष्टाचार हमारे मीडिया की अब उसी तरह की नित्य फीचर कथा है जिस तरह वह सुबह-सुबह ज्योतिष सितारे और टेरोकार्ड के फीचर देता है। इस तरह भ्रष्टाचार अब मीडिया का वैसा ही नित्य आइटम है जिस तरह फिल्म हैं, स्वास्थ्य है। यह भ्रष्टाचार का उपभोग है। भ्रष्टाचार का उपभोग भ्रष्टाचार की खबरों की प्रस्तुतियों से जुड़ा है। इसकी इतनी अति की गई है कि देखते-देखते भ्रष्टाचार एक मनमोहक मूल्य बन चला है। यह भ्रष्टाचार का संस्कृतीकरण है, कल्चराइजेशन है। उसे पापूलर आइटम बना दिया गया है। मीडिया यही कर सकता है। जिस तरह से उसने ऐसा किया है उसे देख ऐसा लगता है कि वह अपराध का कल्चराइजेशन कर रहा है। अब तक वह सेक्स का कल्चराइजेशन कर चुका है, हिंसा का भी कल्चराइजेशन कर चुका है। जो कथित सच बनता दिखता है वह कल्र्चड यानी प्रसंस्कृत सच होता है लेकिन जिसे दिया इस तरह से जाता है मानो मीडिया सत्य का अधिष्ठान हो। पिछले दिनों यह अहसास बढ़ा है। उसके नित्य खबर व्यवहार को देख सवाल उठता है कि क्या मीडिया की खबर ‘सच’ है। यह किसी एक सच का कल्चरल बिजनेस है। शायद वह बिजनेस है जिसमें अब सरकार की रेटिंग, कॉरपोरेट स्टॉक की रेटिंग और मीडिया की अपनी रेटिंग मिलजुलकर रहती है। मीडिया की मासूमियत और उसके सच की पवित्रता का युग चला गया है। वह इतनी जल्दी विदा होगा, यह मीडिया के विद्यार्थियों को कतई चकित नहीं करता। तब क्या इस बात पर सोचने की जरूरत नहीं कि जिस वक्त मीडिया स्वयं संदिग्ध हो रहा हो उसका बनाया सच कैसा सच होगा? प्रस्तुत प्रसंग में इस बात को फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के हवाले समझने की कोशिश की जा सकती है! जेसिका मारी गई, प्रमाण बदल गए, गवाह मुकर गए। फिर मीडिया ने उसे हमदर्दी दी, एक अभियान चलाया। केस फिर जीवित हुआ लेकिन सारी प्रक्रिया में वह सच कितना तिर्यक तिरछा और बेमजा हो गया जो कि टेमरिंड कोर्ट के फर्श पर पड़े खून के छीटों की तरह दृश्य में बनाया गया न लगता था। जेसिका मारी गई लेकिन ताकतों ने कु छ इस तरह सच को तिरछा और गायब किया कि लगता है जेसिका को मारने वाला कोई न था। ठीक इन्हीं दिनों आरुषि हत्याकांड के केस को सीबीआई द्वारा बंद किया जाना बताता है कि सच को किस तरह से सुप्रबंधित किया जा सकता है!
आरुषि की कहानी का शीषर्क भी यही रहा- ‘नो वन किल्ड आरुषि!’
बताइए इतने दिन बाद आपको कोई कहे कि आरुषि मारी गई हेमराज मारा गया। यह खबर मात्र थी जिसका अब कोई प्रमाणन संभव नहीं है, प्रमाण बिना न्याय संभव नहीं है, न्याय बिना चैन संभव नहीं है। इतना मीडिया है और उसके सच के खोजी होने का दावा है लेकिन वह यह नही बता पाता कि जेसिका को दरअसल किसने मारा, आरुषि-हेमराज को किसने मारा? ये सारे सवाल पुलिस, सीबीआई के साथ मीडिया पर भी एक टिप्पणी हैं। वह सच बनाने की जगह उसका ध्ांधा करता है। सच जब ध्ांधा बन जाए तो वह मीडिया के ध्ांधे से बच के कहां जाएगा? बीस साल में मीडिया अपने तमाम गैरमासूम हितों के साथ सबके सामने नंगा है। खबर मर चुकी है। हम कह सकते हैं- ‘नो वन किल्ड न्यूज!’
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