Saturday, December 18, 2010

मीडिया की पड़ताल

खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है, लेकिन गंभीर प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आइना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आइने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्र्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिंतन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है। पुस्तक में लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिए मंच भी प्रदान करते हैं। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है। पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिंदी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अंदाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों और मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार है। लेखों में एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी है। मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी जताई गई है। पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केंद्र खोले हैं। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है, लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं। अब समय बदल रहा है इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हिंदी बाजार में मीडिया वार की बात की गई है। पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य मुसाफिर हूं यारों के माध्यम से संजय उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वह अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है।

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