Wednesday, June 29, 2011

अभिव्यक्ति की आजादी का सच


अंडरव‌र्ल्ड की दुनिया की गहरी समझ रखने वाले पत्रकार ज्योतिर्मय डे की निर्मम हत्या की घटना से पूरा देश स्तब्ध है। सिर्फ इसलिए नहीं कि एक खोजी पत्रकार की हत्या हो गई, बल्कि इसलिए भी कि हत्या एक ऐसे पत्रकार की हुई है, जिसके लिए अपने पेशे के मूल्य और समाज के प्रति जिम्मेदारी अपनी जान से भी बढ़कर थी। मीडिया जगत और अभिव्यक्ति की आजादी को जरूरी समझने वाले आम नागरिकों के लिए इससे भी ज्यादा सदमे वाली बात यह है कि देश की आजादी के छह दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद पत्रकारों की सुरक्षा के लिए हमारे पास कोई मजबूत कानून नहीं है। शर्मनाक यह है कि जब भी ऐसा कोई कानून बनने की बात आती है तो उसे किसी न किसी बहाने टाल दिया जाता है और टलवाने का प्रयास करने वालों में कुछ राजनेता भी शामिल होते हैं। अगर वे जाहिर तौर पर इसमें शामिल न हों तो भी इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसा उनकी इच्छा के बगैर नहीं हो सकता। चाहे यह मदद सिर्फ उदासीनता के रूप में ही क्यों न हो। सोचा जाना जरूरी हो गया है कि वे कौन से सच हैं, जिनके उजागर होने से हमारे राजनेता इतने ज्यादा घबराए हुए हैं और जिनके कारण वे पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित होने नहीं देना चाहते। इस नृशंस हत्याकांड के सिलसिले में छोटा शकील गिरोह के तीन गुर्गे हिरासत में लिए जा चुके हैं। पूछताछ भी काफी कुछ हो चुकी है। कई तरह की बातें सामने आ चुकी हैं। इसी सिलसिले में एक पुलिस अधिकारी से भी पूछताछ हो चुकी है। हालांकि सामने आई किसी बात पर अभी न तो पुलिस यकीन कर पा रही है, मीडियाकर्मी और न आमजन ही। जांच की दिशा भी सुनिश्चित नहीं हो सकी है। कभी इसके पीछे चंदन तस्करों का हाथ माना जा रहा है और कभी महाराष्ट्र के तेल माफियाओं का। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये दोनों ही देश के बेहद खतरनाक गिरोहों में शामिल हैं। चंदन तस्करी के काले धंधे के तहत क्या-क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। तेल माफियाओं का बेहद वीभत्स कारनामा कुछ ही महीने पहले सामने आया था, जब एक अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने को जलगांव में दिनदहाड़े जलाकर मार डाला गया था। तब महाराष्ट्र सरकार ने यह भरोसा दिलाया था कि वह तेल माफिया को जड़ से उखाड़ फेंकेगी, लेकिन अब? अगर इस पूरे प्रकरण पर नजर डालें तो पता यह चलता है कि नतीजा अंतत: शून्य ही रहा। आखिर क्यों? डे को तेल माफियाओं व उनके धंधे की गहरी जानकारी थी। इन पर वह कई महत्वपूर्ण खबरें लिख चुके थे। यह बात भी सामने आई है कि वह इधर चंदन तस्कर कासिम के बारे में कोई स्टोरी लिखना चाह रहे थे। दुबई में रह चुका कासिम छोटा शकील का व्यावसायिक साझेदार है। यह बात कासिम को पता चल गई थी। इसके बाद कासिम ने पहले उन्हें किसी मध्यस्थ के जरिये बड़ी रकम देने की पेशकश की और फुसलाना चाहा, लेकिन डे ने इससे इनकार कर दिया और नतीजा यह हुआ कि उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा। माफियाओं और अराजक तत्वों की शर्तो को मानने और उनके फुसलाने में न आने वाले पत्रकारों का हमारे देश में क्या हश्र होता है, यह अलग से लिखने की जरूरत नहीं है। ऐसा कोई अकारण नहीं है कि पत्रकारों की सुरक्षा की निगरानी रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था की सूची में भारत को दागदार सातवीं जगह दी गई है। इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि इस मामले में पाकिस्तान की हालत भी हमसे बेहतर है। लोकतंत्र और लोकतंत्र के स्तंभों की सुरक्षा के प्रति हम कितने जिम्मेदार और जवाबदेह हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद महाराष्ट्र पुलिस अभी तक इस घटना की जांच के मामले में कुछ खास तरक्की कर नहीं पाई और राज्य सरकार सीबीआइ जांच की इजाजत भी नहीं दे रही है। इसके लिए पत्रकारों ने अनशन व प्रदर्शन किया और धरना भी दिया। मुख्यमंत्री ने उनकी बातें सुनीं भी, लेकिन मांगें नहीं मानी। न केवल मुंबई या महाराष्ट्र, पूरे देश का समूचा मीडिया जगत आज भी अपनी इस मांग पर अडिग है। आखिर क्या वजह है कि राज्य सरकार मामला सीबीआइ को सौंपने से इनकार कर रही है? अगर अब तक उसकी पुलिस कुछ पता नहीं लगा सकी तो आगे कुछ कर लेगी, ऐसी उम्मीद उसे किस तरह है? बाद में जब राज्य पुलिस पूरी तरह हाथ खड़े करने की मुद्रा में आएगी, तब तक कई और मामलों की तरह इसके सबूत भी अपराधियों द्वारा पूरी तरह मिटाए जा चुके होंगे। फिर इसे सीबीआइ या किसी को भी सौंपने से क्या फायदा होगा? ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इन तथ्यों से अवगत नहीं है। सच तो यह है कि सरकार पत्रकारों और आम जनता से ज्यादा इन तथ्यों को जानती है। वह यह भी जानती है कि देश में पत्रकारों की सुरक्षा और इन पर होने वाले हमलों की जांच निष्पक्ष और तेज गति से कराया जाना सुनिश्चित करने के प्रावधान कितने जरूरी हैं। इसके बावजूद वह इस मसले पर कोई कदम आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हो रही है। आखिर क्यों? मालूम हुआ है कि जब पत्रकारों के संरक्षण के लिए कानून पर चर्चा चल रही थी, उस वक्त एक वरिष्ठ राजनेता विरोध करने वालों में सबसे आगे और सर्वाधिक मुखर थे। इससे सिर्फ यही जाहिर नहीं होता है कि हमारे देश की सरकारें पत्रकारों की सुरक्षा के प्रति कितनी इच्छुक और गंभीर हैं, यह सवाल भी उठता है कि ऐसा क्यों है? यह सवाल व्यवस्था पर अकसर उठने वाले आम सवालों जैसा नहीं है। सच तो यह है कि यह स्थिति देश में पत्रकारों की ऐसी असुरक्षा के पीछे राजनेताओं की भूमिका पर गंभीर सवाल है। सरकार को यह देखना होगा कि वे कौन से कारण हैं, जिनके नाते दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले भारत की हैसियत पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में पाकिस्तान से भी गई-गुजरी है। क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जानकारी के अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी का यही हश्र होना चाहिए? अगर वास्तव में सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कटिबद्ध है तो उसे तुरंत देश भर में पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी कानून लाना चाहिए। साथ ही जे.डे हत्याकांड की जांच तो तुरंत सीबीआइ को सौंपे ही, उन लोगों की भूमिका को भी खंगाले जो पत्रकारों की सुरक्षा के लिए प्रभावी कानून लाए जाने का विरोध कर रहे हैं। पूरा मीडिया जगत और आम जनता यह चाहती है कि डे की हत्या के दोषियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाए और उन पर यथोचित कानूनी कार्रवाई हो। साथ ही यह भी देश में पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित कराई जाए। अगर कोई इसके लिए प्रभावी कानून लाए जाने का विरोध कर रहा है तो क्यों, यह जानने का हक न केवल मीडियाकर्मियोंबल्कि पूरे देश की आम जनता को भी है। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

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