प्रजातांत्रिक संस्थाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि एक काल विशेष में उस समाज की चेतना कैसी रही है। अगर इन संस्थाओं और सामाजिक चेतना के बीच तादात्म्य नहीं है तो संस्थाओं की उपादेयता कम होती जाती है। भारतीय प्रजातंत्र पर यह सबसे बड़ा आरोप है कि यहां राष्ट्रीय स्तर पर संस्थाएं खड़ी तो कर दी गयीं पर उनको समझने और उनके साथ सार्थक संबंध बनाने के लिए जो चेतना चाहिए थी, वह गायब रही है। महात्मा गांधी ने लगातार इस बात पर जोर दिया कि प्रजातांत्रिक ढांचा इस तरह खड़ा किया जाए कि निचली संस्थाओं पर लोगों की सहभागिता बने और उसकी बुनियाद पर राष्ट्रीय संस्थाएं खड़ी की जाएं। लेकिन हमारे यहां इसके उल्टा हुआ। राष्ट्रीय संस्थाएं जैसे संसद, विधानसभाएं पहले खड़ी कर दी गयीं और निचली संस्थाएं जैसे पंचायत को कुछ दशकों बाद संविधान संशोधन के मार्फत लाने का उपक्रम किया गया। नतीजा यह हुआ कि जनता और संस्थाओं के बीच एक संवादशून्यता बनी रही। देश के एक बड़े वर्ग को आज भी नही मालूम कि उसके प्रतिनिधि सांसद या संसद की भूमिका क्या होती है? पत्रकार भर्ती करने की प्रक्रिया के दौरान लिए गए इंटरव्यू में मैंने पाया कि 90 प्रतिशत अभ्यर्थियों को, जो पत्रकारिता का कोर्स किए हैं, यह नहीं मालूम था कि डॉ. राधाकृष्णन कौन थे। कहना ना होगा कि ये सभी अभ्यर्थी कम से कम ग्रेजुएट थे। अपने देश के मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को यह नहीं पता कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कैसे चुना जाता है। और विडम्बना यह है कि हम इसी मतदाता के मत के आधार पर पूरे प्रजातांत्रिक ढांचे को पिछले 64 सालों से ढोते आ रहे हैं। किसी भी प्रजातंत्र को मजबूत करने और उपादेय बनाने में दो वर्गों की सबसे बड़ी भूमिका होती है। एक है राजनीतिक वर्ग और दूसरा मीडिया। ये दोनों ही जनता के सामने मुद्दे लाते हैं, उन मुद्दों पर जनता को जागरूक बनाते हैं और तब प्रजातंत्र समाज के लिए उपादेय होता है। राजनीतिक वर्ग ने अपनी भूमिका जान-बूझकर छोड़ दी क्योंकि अगर जनता जागरूक होती है तो राजनीतिक वर्ग से सार्थक अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और ए.राजाओं और कलमाड़ियों को दिक्कत होने लगती है। उधर मीडिया में धन के प्रभाव और मंहगी टेक्नोलॉजी ने एक बड़ी भूमिका निभायी और खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिल्ली केन्द्रित हो गया। यानी जो चैनल दिल्ली से निकला वह राष्ट्रीय चैनल और राष्ट्रीय चैनल जो कहे और करे, वही सत्य। अगर राष्ट्रीय चैनल सलमान खान का जन्मदिन दिन भर दिखाता रहे तो वह उस दिन का सत्य। भले ही क्षेत्रीय चैनल दिन भर चिल्ला-चिल्ला कर अपने प्रदेश में खाद और बीज के संकट या किसानों की आत्महत्या की खबर देते रहें। यहां तक कि आदिवासी क्षेत्र से आया हुआ सांसद तक देश के अंग्रेजी चैनलों या तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों में बाइट देने या स्टूडियो जाने की ललक रखने लगा है। भारतीय प्रजातंत्र को अगर मजबूत करना है तो क्षेत्रीय चैनलों के माध्यम से जनता से संवाद करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन बाजारी ताकतों की प्रजातंत्र को मजबूत करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनकी दिलचस्पी है कि टूथपेस्ट, पेप्सी, फ्रिज व कार खरीदने का माद्दा समाज के जिस तबके में है, वही उनका टारगेट व्यूअर होता है। यही वजह है कि व्यूअरशिप नापने वाली कंपनी जो मूल रूप से दुनिया की कुछ बड़ी विज्ञापन एजेंसियों द्वारा बनायी गयी है ने आज भारत में आठ हजार टैम मीटर्स स्थापित किए हैं जिनमें लगभग 2700 देश के पांच बड़े शहरों में हैं और जिनकी कुल जनसंख्या लगभग चार करोड़ है। बाकी 117 करोड़ के लिए केवल 5300 टैम मीटर्स। मीटर्स को सिर्फ शहरी क्षेत्रों में रखने का नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय चैनल टीआरपी की दौड़ से पहले ही दिन से बाहर हो गए, क्योंकि अगर कोई क्षेत्रीय चैनल बिहार के छपरा या मुंगेर या उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर या देविरया या उड़ीसा के कालाहांडी में देखा जाता है तो न तो उस व्यूअर का कोई मतलब है और न ही उस चैनल का। क्योंकि बाजारी ताकतों को उन्ही व्यूअर्स से मतलब है जिनकी जेब में पैसा है। चूंकि विज्ञापन टीआरपी के आधार पर ही आता है और गरीब छपरा, मुंगेर, कालाहांडी, बुलंदशहर या देविरया अभी भी आजीविका की लड़ाई से ऊपर नहीं उठे हैं, इसलिए ये टीआरपी के मानचित्र से बाहर हैं। बाजारी ताकतों की पूरी कोशिश है कि कमजोर क्षेत्रीय चैनलों को आर्थिक रूप से कमजोर करके खत्म कर दिया जाए। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक वर्ग को क्षेत्रीय चैनलों का महत्व समझ में नहीं आता। मुझे याद है कि 2009 के चुनाव में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खबरिया चैनल के केवल दो लोगों को ही इंटरव्यू दिया था। उसमें एक अंग्रेजी चैनल के संपादक थे और दूसरा जो एक बड़े क्षेत्रीय चैनल समूह का प्रतिनिधित्व करता था। देश के नेताओं को क्षेत्रीय चैनल की महत्ता केवल चुनाव के समय नजर आती है। अच्छे प्रजातंत्र के लिए क्षेत्रीय चैनलों का महत्व अब सत्ता पक्ष को भी समझ में आने लगा है। सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने इस दिशा में दो बहुत ही कारगर कदम उठाए हैं। पहला- उद्योग पर यह दबाव डालकर कि वो टैम मीटर्स की संख्या अगले तीन सालों में कम से कम 30 हजार तक करें ताकि देश के छोटे जिलों के दशर्कों की पसंद और नापसंद का भी आकलन हो सके। दूसरा सार्थक प्रयास है- डिजिटलाइजेशन का, जिसके तहत काफी हद तक केबल ऑपरेटरों का वर्चस्व खत्म हो जाएगा और तब क्षेत्रीय चैनल भी उसी तरह देखे जा सकेंगे, जिस तरह बड़े राष्ट्रीय चैनल। आज जरूरत है कि सरकार भी क्षेत्रीय चैनलों को पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करे ताकि वो बाजारी ताकतों के हाथों अकाल मृत्यु का शिकार न बन पाएं और दूसरी तरफ प्रजातंत्र के प्रति जन-उपेक्षा इतनी प्रबल न हो जाए कि लोग दूसरा रास्ता तलाशने लगें। क्षेत्रीय चैनल बड़ी संस्थाओं व अशिक्षित जनता के बीच एक बड़ी कड़ी बन सकते हैं। उधर क्षेत्रीय चैनलों को भी अपनी एक संस्था बनाकर सरकार पर इस बात का दबाव डालना चाहिए कि बाजारी ताकतों के षडयंत्र को विफल करने में वह अपनी भूमिका निभाए। सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आने वाली गतिविधियों को छोड़कर समुचित अधिकार हैं, जिससे बाजारी ताकतों पर नकेल डाली जा सके। खासकर संविधान के अनुच्छेद 19 (6) के तहत, जिसमें आम जनहित को परिभाषित करने की शक्ति इसे दी गयी है। सुप्रीम कोर्ट के 1995 में बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन केस के फैसले ने भी सरकार को एयरवेव्स को नियंत्रित करने की शक्तियां प्रदान की हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि चूंकि एयरवेव्स जन संपत्ति है इसलिए इसे समाज के प्रति ज्यादा से ज्यादा उपादेय बनाना सरकार की जिम्मेदारी है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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