Wednesday, June 29, 2011

अखबारों की आजादी पर आघात


लेखक वेज बोर्ड की सिफारिशों को अव्यावहारिक और प्रेस की आर्थिक आजादी पर आघात मान रहे हैं
देश की आजादी के लिए लोकमान्य तिलक और गांधीजी ने भी अखबार निकाला था। देश तो आजाद हो गया, लेकिन सत्ता तंत्र अखबारों की आजादी नहीं पचा पा रहा। आजादी में सक्रिय योगदान देने वाले अखबारों की आजादी सत्ता प्रतिष्ठान को सबसे ज्यादा डरा रही है। वेतन आयोग के जरिये अखबारों की गर्दन कसने की उसकी मंशा और कृत्य नए नहीं हैं। समाचार पत्र उद्योग के लिए एक के बाद एक वेज बोर्ड लाना और फिर जमीनी सच्चाई की अनदेखी कर उनकी मनमानी अनुशंसाएं स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने का एकमात्र उद्देश्य प्रेस को सरकार पर निर्भर बनाए रखना ही जान पड़ता है, लेकिन अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है। प्रेस को नियंत्रित करने के लिए पत्रकारों का वेतनमान निर्धारित करने का जो अधिकार सरकार ने अपने हाथ में ले रखा है, अब वह उसका विनाशकारी इस्तेमाल करने के मूड में नजर आ रही है। लगता है कि सरकार ने अखबारों की आजादी के साथ-साथ उनके वजूद को ही नेस्तनाबूद करने की ठान ली है, अन्यथा मजीठिया वेज बोर्ड की 80 से 100 फीसदी तक वेतन वृद्धि की अव्यावहारिक सिफारिशों का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। इन सिफारिशों के लागू होने का मतलब है कई छोटे क्षेत्रीय अखबारों में तालाबंदी। अन्य अखबारों के लिए भी इनका बोझ वहन कर पाना असंभव है। यह नहीं माना जा सकता कि बाजार का सीधा-सा अर्थशास्त्र सत्ता प्रतिष्ठान नहीं समझता। उसकी नीयत पत्रकारों या दूसरे प्रेस कर्मचारियों का भला करना तो नहीं हो सकती। निशाना तो समाचार पत्र उद्योग की आर्थिक आजादी और ताकत है। इस बेजा हस्तक्षेप का नुकसान उन कर्मचारियों को ही होगा, जिनकी सरकार खैरख्वाह बनने की कोशिश कर रही है। आखिर अखबार कैसे प्रकाशित हो पाएंगे, जब उनके कर्मचारियों के वेतन असंतुलित ढंग से आकाश छूने लगेंगे? सरकार उस रिपोर्ट को भी भुला रही है जो राष्ट्रीय श्रम आयोग के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री रवींद्र वर्मा ने 2002 में दी थी। इसमें किसी भी उद्योग में किसी भी प्रकार के वेतन आयोग की जरूरत नहीं मानी गई थी। देश में चीनी उद्योग को छोड़ दें तो किसी भी उद्योग में 1966 के बाद वेतन आयोग का गठन ही नहीं हुआ। इसके चलते कोई असंतोष नहीं दिखता तो इसकी सीधी वजह यह है कि हर जगह लोग अपने सेवायोजक से सीधा संबंध रखते हैं और हर जगह बाजार की जरूरतों के हिसाब से काम हो रहा है और बाजार ही वेतन तय करने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। जब कहीं और वेज बोर्ड नहीं है तो फिर केवल अखबार में क्यों? क्या ऐसा नहीं लगता कि सरकार वेज बोर्ड के बहाने अखबारों पर परोक्ष नियंत्रण रखना चाहती है? इससे इंकार नहीं कि अखबार कर्मियों को बेहतर वेतन मिलना चाहिए, लेकिन आखिर किस कीमत पर? मीडिया अब कई रूपों में पांव पसार रहा है, लेकिन सरकार टीवी, इंटरनेट आधारित मीडिया समूहों के लिए वेजबोर्ड की बात नहीं करती। जब इनके लिए वेतन बोर्ड नहीं है तो फिर अकेले प्रिंट मीडिया पर मेहरबानी क्यों? जरा वेतन सिफारिशों पर गौर करें। इनके अनुसार कुछ बड़े अखबारों में काम करने वाले चपरासियों और ड्राइवरों का वेतन भी 45-50 हजार रुपये महीने तक हो सकता है। क्या सरकारी प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों को इतना वेतन मिलता है? क्या सिपाहियों, दरोगाओं और सीमा पर जान जोखिम में डालने वाले सैनिकों को भी सरकार इतना वेतन दे रही है? आखिर जब सरकार अपने इन कर्मचारियों को इतना वेतन नहीं दे रही तो फिर यह उम्मीद कैसे करती है कि अखबार अपने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को इतना वेतन दे सकते हैं? क्या इसे ही दोहरा मानदंड नहीं कहते? न्यायमूर्ति मजीठिया की रिपोर्ट में अखबारों के कर्मचारियों का वेतन 80 से सौ फीसदी तक करने की सिफारिश है। इसके साथ ही सरकार के निर्देश पर अखबारों को जनवरी 2008 से 30 प्रतिशत की अंतरिम राहत देनी पड़ी है। इससे समाचार पत्र उद्योग में हाहाकार मचा है और वह असामान्य वेतन सिफारिशों के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुआ है। प्रेस को कथित चौथे स्तंभ का दर्जा देने वाले सत्ता तंत्र का यह प्रयास क्या लोकतंत्र को कमजोर करने वाला नहीं माना जाना चाहिए? सबसे विचित्र यह है कि जिस वेतन भुगतान का सरकार इतने जोरदार ढंग से निर्देश देती है, उसका एक भी पैसा उसे नहीं देना होता। यदि बढ़े खचरें की वजह से कोई अखबार घाटे में जाने लगे तो वह उसे बचाने भी नहीं आती। समाचार पत्र समूहों को अपने चंगुल में रखने की कोशिश के चलते सरकारों ने अपने विज्ञापनों का भी राजनीतिकरण कर दिया है। एक ओर मजीठिया वेज बोर्ड की अनाप-शनाप सिफारिशों के जरिये अखबारों की अर्थव्यवस्था पर चोट की जा रही है और दूसरी ओर डीएवीपी विज्ञापन की दरें इतनी कम रखी गई हैं कि अखबार आर्थिक रूप से कमजोर बने रहें। आखिर इन दरों को बाजार दर के बराबर क्यों नहीं किया जा रहा? यह भी किसी से छिपा नहीं कि सत्ता में बैठे लोग किस तरह पाठकों को नजर न आने वाले उन अखबारों को भी अपने यहां से विज्ञापन जारी कराते हैं, जिनकी प्रसार संख्या मात्र उनके कार्यालयों तक ही सीमित रहती है। ऐसे गुमनाम से अखबार निकालने वालों और उन्हें प्रश्रय देने वालों में सबसे आगे ये राजनीतिज्ञ हैं। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सत्ता में बैठे लोग एक ओर प्रेस की आजादी का दम भरते हैं और दूसरी ओर पत्रकारों के जेबी संगठनों को बढ़ावा भी देते हैं। यही नहीं वे ऐसे संगठनों के पत्रकारों को तरह-तरह से उपकृत भी करते हैं ताकि उनके काले कारनामों पर पर्दा पड़ा रहे। अब तो सत्ता प्रतिष्ठान के स्वाथरें की पूर्ति में सहायक बनने वाले पत्रकारों को सरकारी स्तर पर भी उपकृत करने का सिलसिला चल निकला है। खतरनाक यह है कि इस सिलसिले को वैधानिकता भी प्रदान की जा रही है। इस सबको देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय रह ही नहीं जाता कि सरकार वेतन आयोग की मनमानी और अव्यावहारिक सिफारिशों के जरिये चौथे स्तंभ को कमजोर करने का प्रयास कर रही है? (लेखक दैनिक जागरण के कार्यकारी अध्यक्ष हैं)

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