Wednesday, February 2, 2011

अलविदा बीबीसी हिंदी सेवा


बीबीसी को बीबीसी के पुराणवाद ने मारा। नए जमाने ने मारा। उसके पुराने चेहरे ने नया मेकअप नहीं होने दिया। वह अभी तक एक आधिकारिक, सुव्यवस्थित, इंपीरियल, गोरे गर्व से निकलती, यूरोपीय हितों की ओर मुड़ी हुई सत्तामूलक खबरें देने वाला रहा। वह अपनी जड़ ता में दफन हुआ। अपने स्तर के गर्व में अकेला रहा। उसी तरह किनारे हुआ जिस तरह ऑल इंडिया रेडियो हो गया है। हां, इस चक्कर में हिंदी सेवा पहले पहल बलि चढ़ी
बीबीसी हिंदी सेवा अरसे से बीमार चल रही थी। उसका जाना तय था। कई साल से इसके लक्षण दिखने लगे थे। अनुभवी लोग बताने लगे थे कि अब वातावरण बदल गया है। हिंदी सेवा से प्रबंधन अपना पिंड छुड़ाना चाहता है, इत्यादि। हमारा मानना है बीबीसी को बीबीसी के पुराणवाद ने मारा नए। जमाने ने मारा। उसके पुराने चेहरे ने नया मेकअप नहीं होने दिया। वह अभी तक एक आधिकारिक, सुव्यवस्थित, इंपीरियल, गोरे गर्व से निकलती, यूरोपीय हितों की ओर मुड़ी हुई सत्तामूलक खबरें देने वाला रहा। वह अपनी जड़ता में दफन हुआ। अपने स्तर के गर्व में अकेला रहा। उसी तरह किनारे हुआ जिस तरह ऑल इंडिया रेडियो हो गया है। हां, इस चक्कर में हिंदी सेवा पहले पहल बलि चढ़ी। हिंदी की इस बलि पर रोने की जरूरत नहीं। बीबीसी की हिंदी सेवा खैराती हिंदी सेवा थी। कोई खैरात अहेतुकी नहीं होती। यह भी नहीं थी। उसके पीछे साम्राजी ब्रिटेन की ऐतिहासिक नीतियां रहीं। बीबीसी की सबसे प्रबल भूमिका शीतयुद्धीय दौर में रही जब उसके कंटेट में समाजवादी विचार को निशाना बनाया जाता था। फ्री र्वल्ड और व्यक्ति की आजादी मुख्य संदेश होते। क्यों होते? आखिर विंस्टन चर्चिल ही उस शीतयुद्ध के आविष्कर्ता थे जिनकी फु ल्टन स्पीच में दुनिया के दिमागों को जीतने की लड़ाई को दूसरे विश्वयुद्ध के उपरांत चलने वाली नई लड़ाई बताया गया था। 1945 पैंतालीस के बाद सारे जनसंचार, सूचना माध्यम, सारा साहित्य इस दिशा की ओर लाया गया था। उधर, सोवियत संघ फ्री र्वल्ड के मुकाबले समाजवाद के लाभ बताते हुए उसके विचार और पैम्पलेट लोगों तक फेंका करता था। सन् पैंतालीस से नब्बे तक का मीडिया इस शीतयुद्धीय वातावरण का उसी तरह निर्माता था जिस तरह राजनीति थी और साहित्य संस्कृति थे। वॉयस ऑफ अमेरिका की हिंदी सेवा और अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषा सेवा इसी दिशा में काम करते थे। उस वक्त के बहुत-से सोवियत प्रकाशन प्रमाण सहित बताया करते थे कि किस अखबार में, किस रेडियो में, कहां-कहां सूचना पर साम्राजी कंट्रोल हो रहा है? कौन सी प्रेस एजेंसी, न्यूज एजेंसी किस-किस दुरभिसंधि में लगी रहती है? कितना झूठा प्रचार करती है? कहां, कौन न्यूज प्लांट करता रहता है? सीआईए की क्या भूमिका है? उसका कितना पैसा लगा है? कौन पत्रकार उसके पे-रोल्स पर हैं? किस फाउंडेशन का कितना पैसा कहां लगा है? उधर, ऐसे ही प्रत्यारोप सोवियत संजालों के बारे में लगाए जाते। कम्युनिस्ट विचार शत्रु की तरह देखे जाते, संपादित किए जाते। कम्युनिस्ट उधर अपने मीडिया में अपनी कट्टरताओं में मरे जाते। तब के रेडियो सीलोन की हिंदी सेवा इसी युद्ध का हिस्सा थी! मीडिया का नया इतिहास लिखने वाले अब इन बातों को कम लिखते हैं। सच यही है कि शीतयुद्ध के दौर में मीडिया में बहुत कुछ अजीबोगरीब होता रहा है! प्रमाण उपलब्ध हैं!
सोवियत संघ के गिरने के बाद और चीनी कम्युनिस्टों के पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को भरपेट अपनाने के बाद जो विचार शैथिल्य; जिसे उदारवाद कहा जाता है, आया उसने मीडिया के भीतर-बाहर बहुत कुछ बदल डाला है। बीबीसी इस बदले जमाने में अपनी हिंदी सेवा की पुनर्परिभाषा करने में असमर्थ रहती थी क्योंकि अब किसी सुनिश्चित वैचारिक शत्रु से नित्य लड़ना नहीं है। और अब उपनिवेशक तक नहीं बचे थे। उत्तर शीतयुद्धकाल में अब मुक्त पूंजी ही सबकी मित्र है, हर तरफ है। ग्लोबलाइजेशन के नए नियम, नई शत्रे नित्य बन रही हैं। खैरातिया बजटों की जगह हर दान दाता जितना देता उससे ज्यादा उगाहने में लगता है। इस उगाहू दानलीला को टपकने के लिए एनजीओ विराजे हैं। जो इस परम आजादी में किसका एजेंडा किसके लिए, कहां कब चलाएं, नहीं जानते होते? हित और प्रक्रियाएं बेहद उलझीं और गुठ्ठल हैं। मीडिया ने अपना वैचारिक चोला उतार कर सेक्सी-स्टाक मारकेटी का चोला पहन लिया है। बताइए इस दौर में अपना बुलेटिन देने की जगह अगर बीबीसीमुन्नी बदनाम हुईसुनाने लगती तो उसके सुनने वालों को कैसा लगता? वॉयस आफ अमेरिकाशीला की जवानीसुनाने लगता तो कैसा लगता? हम जानते हैं कि आप अंग्रेज बनकरमुन्नी बदनामहुई गाते किसी को भाते। हार्ड न्यूज तुरत मुकदमे लाती है, कौन लड़े? कहते हैं कि मीडिया का मिजाज उसी की कैद होता है!
सवाल होगा कि बीबीसी ने हिंदी को ही क्यों त्यागा? अंग्रेजी को क्यों त्यागा? अरे भाई हिंदी अंग्रेज का आपदधर्म थी। कभी यह सेवा आपको सभ्य करने आई थी। सभ्य बनाती रही, आप सभ्य बन गए। और इतने बन गए कि अब अंग्रेज भी आपसे अंग्रेजी सीखते हैं। वे क्या करें? ग्लेबलाइजेशन का एक पर्याय जब अंग्रेजी बताया जा रहा हो तो अंग्रेजी क्यों छोड़ी जाए? अंग्रेज बहादुर सोचता है। हिंदी भी इस ग्लोबलाइजेशन में बदल गई है। वह एफएम की हिंदी की तरह हो चली है जिसे बीबीसी नहीं दे सकती। हिंदी अब अंग्रेज बहादुर की व्हाइट मेंन्स र्बडन उठाने वाली भाषा नहीं रही है। उसने लंदन में जाकर अंग्रेजी के नटबोल्ट ढीले कर दिए हैं। डिक्शनरी में घुस गई है। जहां तक इकोनामी की बात है सो अमेरिका जब नौकरियों के लिए भारत में कटोरा लिए घूम रहा है तो ब्रिटेन की क्या बिसात! मारकेट किस तरह की लीला करेगा? यह मारकेट के मालिकों को भी नहीं मालूम है। मारकेट से मीडिया नाभिनाल बद्ध है। वहां मंदी होती है तो इधर संकट बढ़ता है। बीबीसी को फंड इसी प्रक्रिया में मिलता है। फंड हर स्तर पर सिकुड़ रहे हैं। सबसे पहले हिंदी की इल्लत से पल्ला झाड़ा! नए जमाने में हिंदी जेब पर भारी पड़ गई है!
एक मानी में यह अच्छा ही है। हिंदी खैरात पर क्यों पले? उत्तर औपनिवेशिक काल में हिंदी अपने स्वत्व पर पले तो बेहतर। वह पल रही है। वह इस ग्लोबलाजेशन में हिंदी-उपभोक्ता बना रही है और मीडिया को बूम दे रही है। यह स्थिति जटिल है। हिंदी अगर अंग्रेजी की तरह उपभोक्ता की भाषा बन रही है तो एक भाषा की तरह अपने स्वत्व में लौट रही है। इसके आगे का गणित क्या बन रहा है? उसके बारे में सीमित जगह में यहां नहीं बताया जा सकता।


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