Wednesday, February 2, 2011

यह बीबीसी लंदन है...(थी)


बीबीसी प्रबंधन अप्रैल से हिंदी रेडियो सेवा बंद कर रहा है...

सत्तर वर्ष तक भारत के करोड़ों श्रोताओं की मार्गदर्शक बनी बीबीसी हिंदी सेवा का 31 मार्च 2011 को शॉर्टवेव पर अंतिम प्रसारण होगा। बीबीसी के श्रोताओं को शायद पहली बार बीबीसी का कोई समाचार अविश्वसनीय लगा है। अविश्वसनीय इसलिए, क्योंकि बीबीसी हिंदी बीमार नहीं थी। बीबीसी में कुछ वर्षों से एक के बाद एक हो रही कई कटौतियों और परिवर्तनों के बावजूद, हिंदी जैसी महत्वपूर्ण सेवा का प्रसारण पूरी तरह बंद होने की आशंका शायद किसी को भी नहीं थी। पिछले दिनों जब यह घोषणा हुई कि बीबीसी विश्व सेवा का खर्च अब ब्रिटेन के फॉरेन ऐंड कॉमेनवेल्थ ऑफिस से आने के बजाय उस लाइसेंस शुल्क से आएगा, जिससे बीबीसी की घरेलू सेवाएं चलती हैं, तो शायद कुछ लोगों को यह खुशफहमी हुई कि इससे विश्व सेवा के कामकाज में सरकार का दखल भी कम होगा। मगर भूलने की बात नहीं कि ब्रिटेन की वर्तमान टोरी सरकार और बीबीसी विश्व सेवा के रिश्ते प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर के जमाने से ही तनावपूर्ण रहे हैं। अफसोस कि बीबीसी विश्व सेवा के लिए एक समय उसकी राजनीतिक समर्थक रही लेबर पार्टी का सत्ता में आना भी अनुकूल साबित नहीं हुआ। टोनी ब्लेयर के प्रधानमंत्री बनने के बाद मीडिया मुगल रूपर्ट मरडॉक के साथ बढ़ती उनकी नजदीकियों का नतीजा यह हुआ कि बीबीसी को मिलने वाले लाइसेंस शुल्क पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। रही-सही कसर इराक युद्ध के दौरान बीबीसी की विश्वसनीयता पर उठे सवालों ने पूरी कर दी। आज बीबीसी राजनीतिक दबावों और बाजारवादी शक्तियों के बीच घिरी दिखाई देती है
मगर यहां सवाल यह है कि कटौतियों का आधार क्या है? एक जमाने से बीबीसी विश्व सेवा में यह फैसला फॉरेन ऐंड कॉमेनवेल्थ ऑफिस की मरजी से होता आया है कि कौन-सी भाषाओं में प्रसारण शुरू करने की और किन-भाषाओं के प्रसारण बंद किए जाने की जरूरत है। जब दस यूरोपीय भाषाओं को बंद किया गया, तो सब जानते थे कि बर्लिन की दीवार के गिरने और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रितानी सरकार के लिए अब पूर्वी यूरोप में प्रसारण करना राजनीतिक दृष्टि से महत्व नहीं रखता। हाल में अरबी और फारसी भाषाओं में टेलीविजन शुरू करने के कारण साफ हैं। वहां दर्शकों की संख्या महत्वपूर्ण नहीं रही, बल्कि क्षेत्रीय संकट महत्वपूर्ण था। चलिए, मान लिया कि आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मुहिम की खातिर यह जरूरी था। यह भी मान लिया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हालात को देखते हुए उर्दू और पश्तो आवश्यक हैं। लेकिन करोड़ों श्रोताओं की जीवन-रेखा बनी एक मजबूत प्रसारण सेवा का गला घोंटने का औचित्य समझ नहीं आता
बेशक, भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यह भी सच है कि सैकड़ों टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो चैनलों की भीड़ में बीबीसी हिंदी की आवाज सुनने वालों की संख्या कुछ कम हो गई है, मगर मीडिया के दिनोंदिन बढ़ते शोर में बीबीसी हिंदी आज भी अपने श्रोताओं को एक अलग परिप्रेक्ष्य मुहैया करती है और यह सुदूर क्षेत्रों के लाखों-करोड़ों लोगों के लिए समाचारों का एकमात्र स्रोत है। वर्ष 2004 में भी ऐसे संकेत थे कि हिंदी के श्रोताओं की संख्या घटकर सिर्फ सवा करोड़ के आसपास रह गई है। लेकिन उसके बाद नई रणनीति बनी। वर्ष 2008 तक बीबीसी हिंदी के श्रोताओं की संख्या दो करोड़ के पास पहुंच गई
बीबीसी हिंदी का शॉर्टवेव प्रसारण बंद करने की घोषणा के साथ प्रबंधकों ने आश्वासन दिया कि एफएम प्रसारण जारी रहेंगे, बीबीसी हिंदी की वेबसाइट का अस्तित्व बरकरार रहेगा, और कटौतियों से जो पैसा बचेगा, उसे हिंदी और उर्दू के टेलीविजन कार्यक्रम बनाने में लगाया जाए
भारत अगर बड़े शहरों का ही नाम होता या इस चमकते-दमकते भारत की कुछ रोशनी सुदूर गांवों-कसबों तक भी पहुंच रही होती, तो मुझे शॉर्टवेव पर बीबीसी हिंदी के प्रसारण बंद करने के फैसले का ज्यादा अफसोस होता। मैं यह तर्क मान लेती कि जब भारत में टेलीविजन के सौ से अधिक समाचार चैनल हैं, और लगभग दो सौ एफएम चैनल हैं, जिनकी संख्या और बढ़ने वाली है, तब बीबीसी हिंदी शॉर्टवेव प्रसारण पर पैसा जाया क्यों करे। मैं यह भी मान लेती कि युवा भारत की महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक एफएम है, शॉर्टवेव नहीं और यह भी कि इंटरनेट ही भविष्य का भगवान है। हकीकत में आज तक भारत में एफएम चैनलों पर समाचारों की अनुमति नहीं है। बीबीसी कुछ एफएम चैनलों के लिए दो-चार प्रोग्राम बनाकर खुद को बहला रही है। पिछले दो साल में क्या बीबीसी एफएम पर अपनी पहचान बनाने में सफल हुई है? सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत का युवा सिर्फ शहरों में बसता है? वह आज भी सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझ रहा है और कहीं-कहीं शिक्षा से भी वंचित है। बीबीसी हिंदी का शॉर्टवेव प्रसारण वह पुल है, जो उसे दुनिया से जोड़ता आया है और जिसके ध्वंस की तारीख घोषित की जा चुकी है
रहा सवाल हिंदी टेलीविजन का, तो 1996-97 में एक छोटे मगर सफल प्रयोग के बाद से, हिंदी में टेलीविजन शुरू करने की कुछ आधी-अधूरी कोशिशें गाहे-बगाहे हुई हैं। लेकिन भारत में टेलीविजन के मौजूदा किले में सेंध लगाने में बीबीसी ने बहुत देर लगा दी है। यह प्रलोभन निष्ठावान श्रोताओं के आंसू नहीं पोंछ सकता। ये वे श्रोता हैं, जो बीबीसी की टीम से मिलने के लिए पैदल या साइकल पर मीलों का सफर तय करके आते हैं। कई श्रोता लिखते रहे हैं कि बीबीसी का उनकी सफलता में महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें बहुत से आज प्रशासनिक पदों पर बैठे हैं, पुलिस अधिकारी और जेल अधीक्षक बन गए हैं, सफल पत्रकार हैं, शिक्षक और कलाकार हैं। पिछले सत्तर वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे करोड़ों श्रोता भारत और शेष दुनिया के घटनाचक्र की निष्पक्ष और संतुलित तसवीर बीबीसी हिंदी के माध्यम से देखते आए हैं। पहली अप्रैल को जब लोग एक दूसरे को एप्रिल फूल बनाकर खुश होते हैं, उसी दिन बीबीसी हिंदी के लगभग तीस प्रसारक और अन्य स्टाफ अपनी नौकरी से हाथ धो बैठेंगे और श्रोता प्रसारण से वंचित रह जाएंगे। बीबीसी हिंदी के साथ होनेवाले इस क्रूर मजाक की कल्पना मात्र से मैं शोकसंतप्त हूं। (लेखिका बीबीसी हिंदी की पूर्वप्रमुख है)


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