मुंबई के एक अंग्रेजी दैनिक ने संपादकीय पृष्ठ को अलविदा कह दिया है। इसके संचालकों का कहना है कि यह पृष्ठ सबसे कम पढ़ा जाता है इसलिए इसे जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। इस अंग्रेजी दैनिक ने तय किया है कि वह प्रत्येक समाचार के साथ उसका विश्लेषण भी दिया करेगा। संचालकों को उम्मीद है कि इससे संपादकीय पृष्ठ के लोप हो जाने की पर्याप्त भरपाई हो सकेगी। यह प्रयोग नया नहीं है। इसके पहले दिल्ली से प्रकाशित एक प्रमुख दैनिक ने भी यही राह पकड़ी थी। उसके संचालकों को भी लगता था कि संपादकीय पृष्ठ पर पैसा खर्च करना फिजूलखर्ची है। क्यों न इस एक पन्ने का उपयोग मसालेदार चटपटी सामग्री छापने में किया जाए, लेकिन यह प्रयोग अधिक दिनों तक नहीं चल सका। संचालकों को संपादकीय पृष्ठ फिर शुरू करना पड़ा। इसी समूह का प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक कुछ वर्षो से संपादकीय पृष्ठ के साथ आंखमिचौली खेल रहा है। जहां तक मुझे याद पड़ता है, उसने भी कुछ दिनों के लिए संपादकीय पृष्ठ को गायब कर पाठकों की प्रतिक्रिया जानना चाहा था। यह प्रतिक्रिया अत्यंत प्रतिकूल रही होगी, तभी इस अंग्रेजी दैनिक को संपादकीय पृष्ठ वापस लाना पड़ा, लेकिन उसने इसे पहले वाला सम्मान नहीं दिया। संपादकीय पृष्ठ को कई तरह से अवहेलित करने की कोशिश की गई। उस पर प्रकाशित होने वाले लेखों का स्तर गिराया गया। संपादकीय पृष्ठ को पीछे धकेल दिया गया। फिलहाल वह कायम तो है पर पहले वाली गरिमा के साथ नहीं। कोई कह सकता है, जब संपादक ही नहीं रहा तब संपादकीय का क्या काम, लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं है। संपादक के पद पर किसी प्रोफेशनल पत्रकार को रखने की परंपरा भले ही कमजोर या अदृश्य हो रही हो पर कोई न कोई व्यक्ति संपादक का काम करता जरूर है। जब तक अखबार है तब तक संपादक रहेगा। भले ही वह अखबार का स्वामी खुद हो या उसके द्वारा नियुक्त कोई अन्य व्यक्ति, जिसे भले ही संपादक की संज्ञा न दी जाए या इस रूप में उसका नाम प्रकाशित न किया जाए। जहां तक संपादकीय टिप्पणियों का सवाल है तो हो सकता है वे कल न रहें पर यह फैसला भी किसी संपादक का ही होगा। यदि दो अखबार संपादकीय टिप्पणियों को खत्म करने का प्रयोग कर चुके हैं और अब फिर एक अखबार ने ऐसा ही कदम उठाया है तो यह सोचने की गुंजाइश बनती है कि भविष्य के दैनिक सिर्फ समाचार और समाचार विश्लेषण छापें। जिस दिन ऐसा होगा वह विचार की विदाई का दिन होगा अर्थात अभी तक समाचारपत्र को जिस रूप में जानते आए हैं उसकी समाप्ति का दिन। मेरी नजर में वह अखबार की मृत्यु का दिन होगा। अखबार का विकास पश्चिम में हुआ। वहीं से विचारधारा के अंत का मुहावरा उछाला गया है। व्यवहार में हम यही पाते हैं कि एक खास तरह की विचारधारा को जैसे अमेरिकी व्यवस्था का दर्शन यानी पूंजी, उपभोग और मुक्त बाजार को दुनिया भर में फैलाने की कोशिश की जा रही है। इस विचार से कमोबेश सहमत होने के बावजूद पश्चिम में विचार खत्म नहीं हुआ है बल्कि उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई है। आज भी दुनिया के सभी बड़े और प्रतिष्ठित दैनिकों में संपादकीय पृष्ठ की गरिमा को बचा कर रखा गया है। इन पत्रों में जो संपादकीय प्रकाशित होते हैं उन्हें बहुत गौर से पढ़ा जाता है और उद्धृत भी किया जाता है। हां, इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाले टैबलॉयड दैनिकों में विचार के लिए कोई जगह नहीं होती। दरअसल ये दैनिक निकाले ही इसलिए जाते हैं ताकि पाठकों को नग्न या अर्धनग्न तसवीरें और सनसनीखेज समाचार परोसे जा सकें, लेकिन इन चटपटे पत्रों ने मुख्य धारा की पत्रकारिता को प्रभावित नहीं किया है। मयखाने अपनी जगह हैं और मंदिर पुस्तकालय तथा नाट्य गृह अपनी जगह। तो फिर भारत के अखबारों में पत्रकारिता के इस महत्वपूर्ण अंग से पीछा छुड़ाने का लालच क्यों दिखाई पड़ रहा है? इस सवाल के जवाब में भारत के नए मध्य वर्ग की कई प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। इस वर्ग की जीवन शैली को शिश्नोदरवाद की संज्ञा दी जा सकती है यानी कमाओ, खाओ और मौज करो। जीवन में किन्हीं मूल्यों को स्थान देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे नैतिक दुविधाएं पैदा करते हैं। एक ऐसे देश में जहां आर्थिक विषमता का स्तर एवरेस्ट जितना ऊंचा है, विचार-विवेक और मूल्य निरंकुश उपभोग में मानसिक खलल पैदा करते हैं। इसलिए यथार्थ के इन रूपों से आंखें मूंद लेना ही ठीक है। यही विचार पत्रकारिता या मीडिया के एक वर्ग को संचालित कर रहा है। यह ठीक है कि संपादकीय पृष्ठ अखबार का सबसे कम पढ़ा जाने वाला पन्ना होता है। दूसरी तरफ इस पन्ने का स्तर बनाए रखने पर खर्च भी ज्यादा आता है। इसलिए इस पन्ने को ही सजा-ए-मौत दे देनी चाहिए यह तर्क किसी स्वस्थ चित्त से पैदा नहीं हो सकता। किसी भी शहर में नाटक देखने वालों की संख्या सिनेमा देखने वालों से कम होती है। पुस्तकालय से किताबें लाकर पढ़ने वालों की तादाद मॉल में घूमने वाले लोगों की संख्या बहुत कम होती है। किसी वैचारिक मुद्दे पर आयोजित सभा-संगोष्ठी में कम लोग जाते हैं, होटलों में लड़कियों का नाच देखने ज्यादा लोग जाते हैं। क्या इसलिए ये सारी अच्छी संस्थाएं और गतिविधियां बंद कर देनी चाहिए। यह सभ्यता और संस्कृति के विकास को ठोकर मारने जैसी कार्रवाई होगी।
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