टीवी चैनलों के प्रसारकों ने बहुत पहले आत्मानुशासन लागू करने के लिए एक घोषणा पत्र प्रकाशित किया था। उसमें यह भी था कि अंधविश्वास फैलाने वाले संदेश नहीं देंगे। अब संदेश ही नहीं, अंधविश्वास के पूरे आइटम ही बेचे जा रहे हैं और उन्हीं चैनलों पर प्रसारित हो रहे हैं, बेचे जा रहे हैं। सब देख रहे हैं। कोई कुछ नहीं कर रहा। क्यों करें? इन विज्ञापनों में बड़ी कमाई है। मित्रों! आप सिर्फ एक अंगूठी नहीं बेचते। आप अंधविश्वासी मानसिकता का निर्माण करते हैं। उसे प्रामाणिक और वैध बनाते हैं। जरा अपने मीडिया-संकल्प एक बार फिर पढें़। क्या मीडिया की ऐसी परंपरा रही है?
अब ‘कुबेर की कुंजी’ खरीदें। एक मनोरंजन चैनल पर एक घंटे से सोने जैसी चमकदार कुंजी बेची जा रही है। उसके साथ चमत्कारी कुबेर पादुकाएं,कुबेर कंगन आदि भी हैं। पूरा पेकेज है। क़ीमत हजारों में है लेकिन एक बार लेने में नुकसान नहंीं। पे बैक की गारंटी भी है। यह वही चैनल है, जिस पर कुछ दिन पहले ‘नजर निवारक यंत्रा’ ,‘बाध निवारक यंत्रा’ बिका करते थे, बिकते हैं। कई चरित्रा आकर बताते हैं कि कुंजी लेने मात्र से वे मालामाल हो गए। एक स्त्री कहने लगी कि उसका ब्यूटी पार्लर का बिजनेस चौपट हो गया था, बड़ी मुसीबत थी। फिर यह कुंजी मिली और वारे न्यारे हो गए। अब हालत है कि शहर के सारे गाहक मेरे पार्लर की ओर खिंचे चले आते हैं और अब एक दर्जन ब्रांचेज हो गई हैं। टीवी पर अंधविश्वास के बाजार में पूरी सांप्रदायिक धर्मिक एकता नजर आती है। नजर नजर है वह हिंदू-मुस्लिम-सिख नहीं देखती। इस तरह नजर एक धर्मनिरपेक्ष तत्व है। इसलिए मुस्लिम दिखने वाले चरित्रा भी नजर निवारक यंत्रा बेचने लगे हैं। इन कहानियों में समानता है।उनके उपचारों में भी समानता है। सबक निकलता है कि संकट न धर्म देखता है न जाति। वह सब पर आता है। सब संकट में हैं और सबका इलाज एक ताबीज, एक मंत्रा, एक यंत्रा, एक कुंजी में है। एक मुस्लिम दंपति इन दिनों बाध निवारक यंत्रा बेच रहे हैं। बाध किसी को भी हो सकती है। यह उपरली हवा से हो सकती है। दुश्मन की नजर लगने से भी हो सकती है। इसलिए बाध रोधक यंत्रा लीजिए। इसे लेंगे तो सब ठीक होगा। मेरे साथ यही हुआ। सारा काम ठप्प हो गया था। अब सब ठीक है!
टीवी चैनलों के प्रसारकों ने बहुत पहले आत्मानुशासन लागू करने के लिए एक घोषणा पत्र प्रकाशित किया था। उसमें यह भी था कि अंधविश्वास फैलाने वाले संदेश नहंीं देंगे। अब संदेश ही नहीं, अंधविश्वास के पूरे आइटम ही बेचे जा रहे हैं और उन्हीं चैनलों पर प्रसारित हो रहे हैं। बेचे जा रहे हैं। सब देख रहे हैं। कर कोई कुछ नहीं रहा क्यों करें? इन विज्ञापनों में बड़ी कमाई है। बढ़िया आत्मानुशासन है भाई! लगे रहो चैनल भाई! बिजनेस इज बिजनेस! मंदी है। यह बिजेनेस देता है। आदमी को निराशा से आशा की ओर लाता है और आदमी अच्छी बात करता है। इस तरह इकानॉमी बेहतर होती है। पिछले दिनों एक सत्यकथा पायनियर में देखी थी। एक बिजनेसमैन का बिजनेस ठप हो गया। उसने शेयर मारकेट में पैसा लगाया, डूब गया। उसने एक नामी गिरामी ज्योतिषी जी को पकड़ा। उनका बड़ा नाम था, बड़ा काम था। संकटाये बिजनेसमैन ने विनती की-महाराज मेरा संकट दूर करो। ज्योतिष जी ने माया फैलाई। संकटमोचन के लिए सोने की इकतीस तोले की गाय बनवाई और दान में स्वयं ग्रहण की लेकिन बिजनेसमैन का संकट न टला। बिजनेसमैन और परेशान हुआ। इकतीस तोले की गाय के दान ने उसे और अधिक कर्ज में डुबा दिया। उसके सवाल बढ़ रहे थे। उससे बचने के लिए ज्योतिष जी मौके से गायब हो चुके थे। उसने जाना कि यह ज्योतिषी उसको ठग कर चंपत हो गया है। बेवकूफ बना चुका है। ज्योतिषी के झटके से निपटने के लिए उसने सड़क छाप देसी उपाय सोचा। ज्योतिषी संबंधी सूचना इकठ्ठी की। पाया गया कि उसका एक बेटा है। सोचा उसे अगवा करवा लिया जाए और नौ लाख की फिरौती वसूली जाए तो हिसाब बराबर हो। बिजनेसमैन ने कुछ गुंडों की सहायता से ऐसा ही किया। ढोंगी ज्योतिषी सामने आ गया। अगवा करने वाले बिजनेसमैन को पुलिस ने धर लिया। सारा किस्सा साफ हुआ। कहानी के अंत में बिजनेसमैन पुलिस के चंगुल से बचता हुआ गायब हो गया था। केस चलेगा। दोनों एक दूसरे पर केस करेंगे। संकट टला नहीं बढ़ा। सारे संकट सच होते हैं। सारे ताबीज अंगूठी अंध भरोसा होते हैं। भरोसा आदमी को पाजिटिव रखता है। अगर उसे यह भरोसा न हो कि संकट कट जाएगा तो आदमी निराशा से मर जाएगा। इसी एक कमजोरी का फायदा कई तत्व उठाते हैं। मंदिरों और कचहरियों के रास्तों के आसपास ऐसे ज्योतिषी ओझे अधिक नजर आते हैं। गुजरते परेशान लोग वे सवा रुपए से पांच रुपए से सवा सौ रुपए में आपका भविष्य बताते हैं। आप वहीं ईंट पर बैठ जाइए और हस्तसामुद्रिक के आधार पर अपनी हस्त रेखाओं का रहस्य जानिए!
मेलों में फलित ज्योतिष टाइप किताबें मिलती रहती हैं। ठेले पर ताबीज मिला करते हैं। देखते-देखते शनिदेवता सबके लिए अनिवार्य देवता बन गए हैं। इतने खतरे हैं कि ‘खतरनाक’ की महिमा बढ़ चली है। केरल में पिछले दिनों मकर किरण को देखने लाखों लोग उमड़े और भगदड़ में सैकड़ों मर गए। पिछले पांच साल में ऐसी दुर्घटनाओं में हजारों लेग मरे हैं। मरते रहेंगे। संकट है न! सरकार संकट में है। अर्थव्यवस्था संकट में है। लोग संकट में है। सब गड़बड़ है। संकट शब्द मीडिया का स्थायी भाव बन चला है। इसने अंधविश्वास का मारकेट बढ़ाया है। संकटग्रस्त का आत्मविश्वास कमजोर होता है। मन कमजोर होता है। आदमी दीन होता है। ऐसे में उसे गारंटी वाला एकमुश्त संकट निवारक चाहिए। वह है गारंटी देने वाला ताबीज, अंगूठी, पादुका, यंत्रा, कुबेर की कुंजी। वह सस्ते में मिल जाती है। कुछ अच्छा होगा! अब तेरे ही चमत्कार का भरोसा है प्रभु। आदमी के कुछ दिन बेहतर गुजरते हैं और आशा में जीता रहता है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छे का मंत्रा जटिल है। समाज में गहरी निराशाएं हैं। इस सारी चमक-दमक के नीचे लोग अधिक अकेले और हताश महसूस करते हैं। कोई सव्रे उस इबारत को नहीं पढ़ता जो इन दिनों आम आदमी के चेहरे पर लिखा है। मीडिया इसी मानसिकता का लाभ उठाता है। मित्रों! आप सिर्फ एक अंगूठी नहीं बेचते। आप अंधविश्वासी मानसिकता का निर्माण करते हैं। उसे प्रामाणिक और वैध बनाते हैं। जरा अपने मीडिया-संकल्प एक बार फिर पढें़। क्या मीडिया की ऐसी परंपरा रही है?
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