मीडिया का ऐसा ग्लोबल प्रभाव किसी अन्य घटना की कवरेज में देखने को नहीं मिला। प्रख्यात पत्रकार जान रीड की प्रसिद्ध रिपोर्ट ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ की तर्ज पर कहा जा सकता है ‘तेरह दिन जब अरब दुनिया हिल उठी!’ इतनी बड़ी जन घटना कहीं हुई भी नहीं जिसे मीडिया ने इस कदर कवर किया हो। जिन समाजों को धर्म तत्ववाद की गिरफ्त में ‘बंद’ समझा गया वहां अचानक जन उभार फूट निकला!
जो समाज अलकायदा के रहमोकरम पर छोड़ दिए गए थे वे जनतंत्र की मांग करने लगे! नए मीडिया का यह गजब का फलागम है
अरब दुनिया को अलकायदा या इसलामी तत्ववादी उतना नहीं बदल पाए जितना पिछले तेरह दिन में मीडिया और सूचना पण्रालियों ने बदल दिया है। बदलाव की यह जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रक्रिया है जो अब तक की परिचित राजनीतिक परिघटनाओं से अलग है और जबर्दस्त है। यह बताती है कि समकालीन सूचना-युग में परंपरागत तानाशाहियां संभव नहीं। नई जनताएं; पब्लिक्स सामने हैं। उनके नए माध्यम सामने हैं और उनकी आवाजें दब नहीं रही हैं। वे अपना स्पेस मांग रही हैं और जब नहीं दिया जाता है तो लेने के लिए मैदान में सज जाती हैं। दसियों लाख लोग एक जगह जमे हैं। पड़ोसी, दुकानदार पानी-खाना, दवाई दे रहे हैं। लोग किस्तों में मूवमेंट कर रहे हैं। टुकड़ियों की तरह आगे-पीछे मोरचे लगाते हैं। घायलों को मोरचे से पीछे हटाया जाता है और उनकी जगह नए मोरचा संभालते हैं। एक अजीब हलचल भरा असहयोग आंदोलन है। अजीब-सी एकता है जिसमें तरह-तरह के तत्व सक्रिय हैं। कोई एकमेव नेता नहीं दिखता है लेकिन सब एक-दूसरे से संवाद में हैं। इस विद्रोह की सफलता-असफलता इसमें सक्रिय लोगों के जीवन की तल्खियों, अभावों, शासकों की नित्य छलनाओं, हताशाओं और विक्षोभों के बीच साइबर सूचनाओं और साइबर साइटों पर बनते ‘साइबर नागरिकों’ की एकता की कुछ कर गुजरने की भावनाओं के अनंत तनावग्रस्त धागों से बंधी है। काहिरा के तहरीर चौक और लिबरेशन चौक के दृश्यों को देखते-देखते अपने आप से सवाल पूछते हैं- क्या आज की ट्विटर-साइबर पीढ़ी भी कोई सत्तात्मक बदलाव कर सकती है? इस सवाल का जवाब नए राजनीतिक जनक्षेत्र के अध्ययन में ही मिल सकता है। राजनीतिक सिद्धांतवेत्ताओं के लिए इसका अध्ययन चुनौतीपूर्ण है। एक बेहद विचल, हाइपर और तरल किस्म का उत्तर-आधुनिक जन उभार नजर आता है। जन-लहर पर जन-लहर है। चैनलों के रिपोर्टर ऊंची बिल्डिंगों की छतों से लाइव कवरेज दिखाते रहते हैं। नीचे रेले पर रेले हैं, नारे हैं। गुस्से भरे नारों, अलाहू अकबर के लयात्मक नारों के बीच अचानक नमाज का वक्त होता है तो वहीं नमाज अता कर ली जाती है और उसके बाद वहीं तहरीर चौराहे की सड़कों के पत्थर उखाड़ कर फेंके जाने लगते हैं। फौज की गोली चलने लगती है। लोग गोली खाकर गिरते हैं, पत्थरों से माथे फूटते है, चेहरे लहूलुहान नजर आते हैं। अचानक सीन में कोई गिर पड़ता है, उसे उठाया जाता है, सुरक्षित बाहर लाया जाता है। किसी को कोई दबोच लेता है और उसे पीटा जाने लगता है। युवा लड़के-लड़कियों के हुजूम हैं। बहुत से वयस्क आ जुटे हैं जो मुबारक को विदा करने पर आमादा हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड के अलावा किसी संगठन का नाम इससे अब तक नहीं जुड़ा। किसी का कोई भाषण नहीं नजर आता। न कोई नेता है न कोई लाइन है, न कोई कार्यक्रम हैं। बस एक लाइन है- जाओ मुबारक जाओ!
मिस्र के इस उभार को देख अपने देश के एक न्यूज एंकर अर्णव गोस्वामी अपने संपन्न विक्षोभ में यहां तक कह डालते हैं कि इससे अपने देश के दल भी सबक लें। जनता से छल न करें। एक काहिरा यहां भी हो सकता है। मिस्र का कवरेज; देखने वाले के खाए-पिए निराश मन में ऐसी ही प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है! ऐसी टिप्पणियां इन दिनों आम सुनी जा सकती हैं। मीडिया का ऐसा ग्लोबल प्रभाव किसी अन्य घटना की कवरेज में देखने को नहीं मिला। प्रख्यात पत्रकार जान रीड की प्रसिद्ध रिपोर्ट ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ की तर्ज पर कहा जा सकता है ‘तेरह दिन जब अरब दुनिया हिल उठी!’ इतनी बड़ी जन घटना कहीं हुई भी नहीं जिसे मीडिया ने इस कदर कवर किया हो। जिन समाजों को धर्म तत्ववाद की गिरफ्त में ‘बंद’ समझा गया वहां अचानक जन उभार फूट निकला! जो समाज अलकायदा के रहमोकरम पर छोड़ दिए गए थे वे जनतंत्र की मांग करने लगे! नए मीडिया का यह गजब का फलागम है! नया मीडिया न होता तो शायद यह इस तरह संभव न होता। नया मीडिया तत्ववाद की हवा किस तरह से निकाल रहा है इसे मिस्र की घटनाओं और मीडिया की अंतक्र्रियाओं में पढ़ा जा सकता है!
सूडान, यमन में मिस्र की अनुगूंजें सुनी जा रही हैं। वहां की सडकों पर मिस्र के जन उभार के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। ईरान, अज्रेटीना, वेनेजुएला तक में मुबारक विरोधियें के पक्ष में प्रदर्शन जारी हैं। मिस्र देखते-देखते एक वि घटना बन उठा है। जिस उत्तर-आधुनिक मीडिया को अक्सर उपभोक्तावादी और प्रतिक्रियावादी माना जाता है वही इसका वाहक है। एक उभार नए तरह से उपभोगात्मक और अंतक्र्रियात्मक है कि हर जुबान पर इसका नाम है। मोबाइल न होते, एसएमएस, ट्विटर संदेश न होते, फेसबुक इत्यादि सामाजिक साइबर स्पेस न होते तो तानाशाहों के बूटों के नीचे दबी जनताएं अपनी आवाजें बुलंद नहीं कर सकती थीं। अमरीका-इस्रइल के कूटनीतिक दबावों में बैठे सुरक्षित स्वनिर्धारित, स्वनिर्वाचित अमर तानाशाहों को अपने अपने देशों की पब्लिक के क्रोध का पात्र बनना पड़ रहा है और पब्लिक का साहस इतना बढ़ा लगता है कि सत्ताओं के घुड़सवार, उनकी बटालियनें, उनके टैंक और बख्तरबंद गाड़ियां लोगों को डरा नहीं पा रहीं। जनविक्षोभों की एक श्रृंखला-सी बन रही है। ये जन बदलाव एक श्रंखला में लगातार प्रसारित होकर क्रमिक बन रहे हैं, बनाए जा रहे हैं। इनमें एक नए किस्म की साइबर स्वत: स्फूर्तता है। लंदन में बैठा एक विशेषज्ञ जब एक मिस्री एक्सपर्ट से बात करता है तो वह बताता है कि यह मुख्यतया मिस्री मध्य वर्ग का जन विद्रोह है। अरब देशों में एक बड़ा युवा वर्ग पैदा हो गया है जो अपनी जगह मांग रहा है। मिस्र में उन्तीस फीसद, सउदी अरब में तीस फीसद, सूडान में उन्तीस फीसद, लीबिया में तीस फीसद युवा आबादी की औसत उम्र तीस से कम है। यह नए अंगारे हैं, यही भभक उठे हैं। ट्विटर, फेसबुक पर अपनी टिप्पणियों से अपने आसपास के यथार्थ से नाना संवाद और हस्तक्षेप करते ये युवजन नई अपरिभाषित ‘ग्लोबल’ कामनाएं हैं जो अचानक एक शून्य को भरने के लिए प्रज्वलित हो उठी हैं। आंदोलन के केंद्र तहरीर चौक पर सुबह के अखबार पटरी पर रखे हैं। आंदोलनकारी उनमें अपनी तस्वीरें देख रहे हैं। मुबारक के पहरेदार विदेशी पत्रकारों को पीट रहे हैं। हवाई अड्डे पर उनके कै मरे छीन रहे हैं। न्यूयार्क टाइम्स कह रहा है कि अगर आप भागने में तेज हों तभी कवर करने जाएं!
सूचनाएं समाजों को कई बार तेजी से बदलती हैं। मिस्र एक बड़ा उदाहरण है। बहुत से समाज धीरे-धीरे बदलते रहते हैं। मिस्र बता रहा है कि सूचना युग में परंपरागत जनतंत्र और साइबर जनतंत्र की अंतक्र्रिया बढ़ रही है जिसके फलागम अनिर्वचनीय हैं। एक बात तय है- जो नहीं बदलेगा वही बदल दिया जाएगा!
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