विदेशी मीडिया हांकेगा देश को? सिद्धार्थ शंकर गौतम एक समय विदेशी मीडिया की आंख का तारा रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब उसकी आंखों में चुभने लगे हैं। तभी तो घरेलू मोर्चे पर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी संप्रग सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की फजीहत करने में वह भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने संप्रग सरकार पर तीखी टिप्पणी करने में सबको पीछे छोड़ दिया है। इसकी रिपोर्ट में मनमोहन सिंह के मौजूदा कार्यकाल पर तीथी टिप्पणी की गई है, लेकिन साथ ही उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था का वास्तुकार, अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को आगे बढ़ाने वाला और दुनिया में सम्मानित व्यक्ति भी बताया गया है। यह रिपोर्ट लिखने वाले पत्रकार डेनयर की हिम्मत तो देखिए कि उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व पर करार व्यंग तो किया ही, माफी मांगने से भी साफ इन्कार कर दिया। हां, इतना जरूर कहा गया है कि यदि प्रधानमंत्री का बयान आता है तो वे अखबार में इसे भी प्रकाशित करें। इससे पहले मशहूर पत्रिका टाइम ने अपने एशियाई संस्करण (10-17 जुलाई) की कवर स्टोरी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर बताया था। वहीं जानी-मानी पत्रिका द इकोनॉमिस्ट ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को असहाय बताते हुए लिखा था कि निर्णय लेने के लिए इन्हें सोनिया गांधी की ओर ताकना पड़ता है। विश्व की जानी-मानी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज भी मनमोहन सिंह के वर्तमान आर्थिक सुधारों पर सवाल उठा चुकी है। मूडीज ने पिछले दिनों कहा था कि मनमोहन सिंह के पास अपनी विरासत संभालने का अंतिम मौका है और यदि वह भारत की आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिशा में कदम नहीं उठाते हैं तो वह जल्द ही लेमडक पीएम हो जाएंगे। ब्रिटिश अखबार द इंडिपेंडेंट के ऑनलाइन संस्करण ने भी 16 जुलाई को पूरे दिन कई शीर्षकों को बदल-बदलकर मनमोहन सिंह की छीछालेदार की। इसमें उन्हें सोनिया गांधी का पालतू (पूडल), पपेट से लेकर अंडरअचीवर तक कहा गया। कहा गया कि प्रधानमंत्री की प्रमुख समस्याओं में से एक यह है कि उनके पास वास्तविक राजनीतिक शक्ति नहीं है, जिसकी वजह से वह कभी-कभी कैबिनेट को भी नियंत्रित करने में असफल रहते हैं। बहरहाल, यह सच है कि मौजूदा सरकार को इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकार और मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री का तमगा मिल चुका है। सवाल यह है कि क्या विदेशी मीडिया को यह हक है कि वह हमारे देश की राजनीतिक अस्थिरता को रेखांकित कर वैश्विक परिदृश्य में उपहास का पात्र बनाए? इतिहास गवाह है कि 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री रहते मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों की के लिए जो कदम उठाए थे, वे अर्थव्यवस्था को आज तक मजबूती दे रहे हैं। यह बात और है कि वर्तमान परिपेक्ष्य में उनकी प्रासंगिकता कम हुई है, लेकिन उन्हें नकारा भी तो नहीं जा सकता। आखिर हम विदेशी मीडिया के हांके ही क्यों चलते हैं? क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था इतनी कमजोर या अक्षम है कि उसके प्रमाण के लिए विदेशी मीडिया की उल-जुलूल बातों को अकाट्य सत्य मान लिया जाए? यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि विदेशी तारीफ से राजनेता फूले नहीं समाते, लेकिन जब वे आलोचना का केंद्र बनते हैं तो उसी विदेशी मीडिया पर भड़ास निकाली जाती है। जब विदेशी मीडिया का दोगला चरित्र सार्वजनिक रूप से उजागर हो चुका है तब उसकी टिप्पणियों पर इतना बबाल क्यों? क्या विदेशी मीडिया हमारे देश के भविष्य की नीतियों का निर्धारण करने में महती भूमिका का निभाता है? कभी नहीं। फिर प्रधानमंत्री कमजोर हो या लाचार, वह एक संवैधानिक पद का मुखिया होता है और यदि मीडिया; खास तौर पर विदेशी मीडिया देश के प्रधानमंत्री के विषय में आपत्तिजनक बयानबाजी करे तो इसे किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। इस मुद्दे पर तो सभी दलों को एकमत होकर संबंधित पक्ष के विरुद्ध आवाज बुलंद करनी चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह की अशोभनीय बयानबाजी पर लगाम लगे। विदेशी मीडिया को कोई हक नहीं कि वह हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेपवादी रवैया अख्तियार करे। देखा जाए तो विदेशी मीडिया द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर हाल ही में की गई टिप्पणियां भारत में विदेशी निवेश को लेकर चल रही राजनीतिक खींचतान का नतीजा भी हो सकती हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री से लेकर सरकार और राजनीतिक अस्थिरता को बार-बार उठा कर अमेरिकी मीडिया सरकार पर दबाव की रणनीति बना रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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