Saturday, September 15, 2012

क्या असीम ने वाकई लांघी सीमा


क्या असीम ने वाकई लांघी सीमा
अभिजीत मोहन किसी भी शख्स को चाहे वह कितना ही महान, गुणवान और ऊंचे पद पर आसीन क्यों न हो, उसे राष्ट्रीय संप्रभुता, प्रतीक चिह्नों और संविधान की मर्यादा से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। राष्ट्र संप्रभु है और उसकी सर्वोच्चता का आदर होना चाहिए। बावजूद इसके कोई स्वार्थ से वशीभूत होकर राष्ट्र की शान से गुस्ताखी करता है या अपने कुत्सित आचरण से देश की आबोहवा को जहरीला बनाता है तो उसे सख्त दंड मिलना ही चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान के बहाने देश की सरकारें अपने भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दहन कर डालें। जैसा कि हो भी रहा है। अभिव्यक्ति का अधिकार संविधान प्रदत्त है और उस पर सरकारें पहरा नहीं लगा सकतीं। देश में प्रत्येक नागरिक को किसी विषय पर अपना विचार रखने, असहमति जताने या उसका लोकतांत्रिक विरोध करने का संवैधानिक अधिकार है। वह माध्यम कविता, लेख और कार्टून-व्यंग्य कुछ भी हो सकता है। आजादी की लड़ाई के दौरान भी गीतों, कविताओं, लेखों और कार्टूनों के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनमत तैयार किया गया। फिर आज आजाद भारत में निर्वाचित सरकारों के जनविरोधी कृत्यों के खिलाफ कार्टूनों और व्यंग्यों के माध्यम से जनमत निर्माण पर पाबंदी कैसे लगाई जा सकती है? लेकिन तमाशा ही कहा जाएगा कि देश की सत्तारूढ़ सरकारें अपने भ्रष्ट कारनामों को छिपाने के लिए संवैधानिक मर्यादाओं और राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान का बहाना ढूंढ़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कर रही हैं। दमन की परिधि बढ़ाने के लिए नई-नई परिभाषाएं रच रही हैं। अन्ना आंदोलन से जुड़े कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी भी उसी दमनकारी घातक परिभाषा के नए शिकार हुए। उन पर आरोप लगा कि उन्होंने राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न का अपमान किया है और वेबसाइट पर देशद्रोही सामग्री पोस्ट की है। असीम त्रिवेदी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हालांकि बाद में उन्हें जमानत दे दी गई। असीम की खता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू का भी कहना है कि असीम त्रिवेदी ने कार्टून बनाकर कोई गुनाह नहीं किया है। उसे गिरफ्तार करने वाले ही गुनाहगार हैं। समझ से बाहर यह भी है कि किस आधार पर असीम त्रिवेदी के कार्टून समाज में उत्तेजना फैलाने वाले या सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने वाले लगे? यह भी प्रमाणित करना कठिन है कि असीम की नीयत थी कार्टूनों के जरिये राष्ट्रीय प्रतीकों और संविधान की मर्यादा का अपमान करना। हैरानी होती है कि जिस दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा राज्यों और अर्धसैनिक बलों के पुलिस महानिदेशकों को संबोधित किया जाता है कि सोशल मीडिया से सांप्रदायिकता को हवा मिल रही है, उसी दिन असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार कर लिया जाता है। क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि केंद्र और राज्य की सरकारें इस निष्कर्ष पर जा पहुंची हैं कि देश में व्याप्त अराजकता के लिए केवल सोशल मीडिया जिम्मेदार है? सरकार के हावभाव से कुछ ऐसा ही लग रहा है। असीम त्रिवेदी की खता बस इतनी भर है कि उन्होंने अन्ना हजारे के मुंबई के एमएमडीआरए ग्राउंड में अनशन के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न में सिंह के सिर के बजाय भेडि़ए के सिर बना दिए और सत्यमेव जयते की जगह भ्रष्टमेव जयते लिख दिया। सतही तौर पर उनका बनाया कार्टून राष्ट्रीय लोकभावना के खिलाफ कहा जा सकता है। कार्टून की भाव-भंगिमा को लेकर भी उनकी आलोचना हो सकती है। उस दौरान लोगों ने उनके कार्टून की आलोचना भी की। आपत्ति जाहिर करते हुए उनसे राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान की अपील की गई। खुद अन्ना के साथियों ने उनके कार्टून पर ऐतराज जताया और उन्हें नसीहत दी। लेकिन किसी ने भी उनकी नीयत-नजरिये और राष्ट्रप्रेम पर आशंका व्यक्त नहीं की। यह समझ से परे है कि कुछ लोगों को ऐसा क्यों लग रहा है कि असीम ने जान-बूझकर राष्ट्रीय प्रतीकों का मजाक बनाया और वह देशद्रोही हैं। रिपब्लिक पार्टी के सदस्य अमित कटारनिया की शिकायत के आधार पर महाराष्ट्र पुलिस ने असीम को संविधान का मजाक उड़ाने और इंटरनेट पर अमर्यादित सामग्री डालने के जुर्म में गिरफ्तार तो कर लिया, लेकिन आश्चर्य यह है कि महाराष्ट्र पुलिस ने 152 साल पुराने ब्रिटिश कानून 124 (अ) के चश्मे से असीम के कार्टून को क्यों देखा और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा क्यों दर्ज किया गया? क्या यह माना जाए कि कार्टून बनाना राष्ट्रद्रोह है या भ्रष्टाचार के खिलाफ उग्र अभिव्यक्ति संविधान का उपहास है? सवाल यह भी है कि जब देश स्वतंत्र है और संविधान ने देश के नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है तो फिर उसे कुचलने वाले काले कानून को अभी तक खत्म क्यों नहीं किया गया? दरअसल, देश की निर्वाचित सरकारें और हमारे नीति-नियंता औपनिवेशिक मानसिकता की धारणा से उबर नहीं पाए हैं, जबकि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में ब्रिटिशकालीन राजद्रोह की परिभाषा को पलट दिया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना है। देशद्रोही कौन सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या असीम त्रिवेदी अन्ना के आंदोलन से जुड़े नहीं होते, तब भी उनके साथ इसी तरह का दु‌र्व्यवहार होता? क्या कानून इतना ही सक्रिय होता? अगर हां, तो फिर महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने वाले लोगों के खिलाफ कानून अपना काम क्यों नहीं कर रहा है? पिछले दिनों मुंबई के आजाद मैदान में हुई हिंसा के जरिये देश में नफरत का जहर घोलने वाले उपद्रवियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज किया गया? बिहार के सीतामढ़ी से गिरफ्तार अब्दुल कादिर जिसके ऊपर अमर जवान ज्योति को क्षतिग्रस्त करने का आरोप है, उसके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज किया गया? पूर्वोत्तर के नागरिकों को महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से भगाने की साजिश रचने वाले देशद्रोहियों के खिलाफ केंद्र सरकार ने ठोस कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या उन जनप्रतिनिधियों को देशद्रोही नहीं मानना चाहिए, जिन्होंने असम हिंसा की आड़ में देश में सांप्रदायिक माहौल खराब करने की कोशिश की? वे किस तरह राष्ट्रभक्त हो सकते हैं? असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी भी राजनीति से प्रेरित है। दरअसल, सरकार यह सिद्ध करना चाहती है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़े सभी लोग भारतीय संविधान, संसद और राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति आदर भाव नहीं रखते हैं। सरकार यह भी साबित करना चाहती है कि भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग भी देशभक्त नहीं हैं। सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर देशद्रोह का मुकदमा कवियों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं मानवाधिकारवादियों के खिलाफ ही क्यों ठोका जा रहा है? क्या उन जनप्रतिनिधियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज नहीं होना चाहिए, जिन्होंने देश की संपदा को लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है? उन्हें राष्ट्रभक्त कैसे कहा जा सकता है, जो देश की संसद और विधानसभाओं में असंवैधानिक कृत्यों को अंजाम देते हैं? क्या उन मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों को देशद्रोही नहीं माना जाना चाहिए, जो राष्ट्रीय चिह्न वाले लेटर हेड पर घोटाले को अंजाम देने के लिए सिफारिशी पत्र लिखते हैं? केंद्र सरकार को जवाब देना चाहिए कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी संवैधानिक संस्था सीएजी पर हमला बोलकर किस तरह संविधान की मर्यादा का पालन कर रहे हैं? उनका आचरण किस तरह राष्ट्रभक्त होने का सबूत है? सच तो यह है कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन कर रही है, लेकिन देश बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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